सबको तो रोशनी नहीं मिलती
समझौता कर लो
अँधियारे से
हर भटके राही को सिर्फ़ यही
उत्तर एक मिला ध्रुवतारे से।
ज़्यादातर सुंदर ही होते हैं
फूलों के बारे में यह सच है
नहीं गंध से नाता पर
सबका यह न मानना मन का
लालच है।
मंज़िल सचमुच कहीं नहीं होती
सभी लौटते हैं
अधवारे से
डूब चुकी नौका तक तल द्वारा
पहुँची यह आवाज़
किनारे से।
यों भिक्षुक की आँखों में आया
सपना कम रंगीन नहीं होता
लेकिन मरुस्थल की हरियाली पर
जग को कभी यक़ीन
नहीं होता।
धुँआ सत्य है तन समिधा कर दो
बहुतेरे घुट गए तुम्हारे से
हर बुझती-बुझती चिनगारी को
यह आदेश मिला
अंगारे से।
पतझर में अंधा होने वाला
हर ऋतु को वीरान
बताता है
धरती ठहरे
घूमे या डूबे
इसमें
सूरज का क्या जाता है।
शून्य कभी कम अधिक नहीं होता
व्यर्थ जिओ मत यों
मनमारे से
थकती साँसों के स्वर सरगम को
यह संकेत मिला इकतारे से।
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कैलाश वाजपेयी
कैलाश वाजपेयी (11 नवंबर 1936 - 01 अप्रैल, 2015) हिन्दी साहित्यकार थे। उनका जन्म हमीरपुर उत्तर-प्रदेश में हुआ। उनके कविता संग्रह ‘हवा में हस्ताक्षर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया था।