1.
वह
कांसे की नर्तकी
जो मोहनजोदड़ो के छिन्न-भिन्न हो चुके
सभ्यता के
बरसों बाद
कहीं मिट्टी की
अनंत परतों में
अपने अंतर्मन की
अनेकानेक यात्राएं समेटे मिली थी
उसके हृदय में समय की
उदास घुंघरू बंधी थी
अनादिकाल से
इंतजार ही
उसकी प्रेम की ज़िद रही थी
बासी उदासियों को
लपेट चांद की रोटी में
नर्तकी ने पी रखी है
कितने ही रोगों की दवा
नई लकीरें हैं
मिलन और जुदाई से परे
उसके हाथों के छाले
रात के बाद
दिन की प्रक्रिया में शामिल
जो कुछ टूटता जुड़ता है
ब्रह्मांड में
वह उस नर्तकी आस्था है
जिसे बांचा नहीं जा सकता है।
2.
इस ठंडी और बोझिल सी शाम में
दीवारों के कोनों में खिल उठते हैं
रातरानी के फ़ूल
उगते हैं कुछ स्वप्न
जा टकराते हैं
हकीकत के जाले में
दोनों कुछ ज़्यादा मुखर हैं
बह जाने देते हैं झंकार
अंतस की पीड़ा समेटे कूबड़ में अपने
और आंचल में
फिर इक वसंत की दस्तक को
अनसुना करते हुए
बिखरी पड़ी खुशबुओं को
सहेजती हूँ
यादों की मर्तबान में।
3.
अमृत कलश
और विष पात्र का बोझ लिए
ईश्वर के कंधे से
मैंने स्वेच्छा से ग्रहण किया विष
सुना था प्रेम कहानी में डुब गए लोग
विष को अमृत कर दिया करते हैं
मगर ऐसा ना हुआ
विष ने अपना आवरण चित्र नहीं बदला
ईश्वर नापता है ज्यामितीय कोण से
मेरी चाल
विवशता समर्पण मोह
बार-बार
देता हुआ हिदायतें
इक बिम्ब में
हालांकि इक और प्रतिबिंब में
मैं और ईश्वर
बैठे हुए एक ही किनारों वाली
परिपाटी पर
गुनगुनाते हुए कोई कविता
मुस्कुरा उठते हैं
अपनी बेबसी पर।

गुँजन उपाध्याय पाठक
गुँजन उपाध्याय पाठक हिंदी कविता में नयी मगर समर्थ व् सशक्त कवियित्रियों में से एक हैं। आप इन दिनों पटना में रहती हैं। आपसे gunji.sophie@gmail.com पे बात की जा सकती है।