शुरू में कविता बोली जाती थी। सुनी जाती थी। मुँहा-मुँही फैलती थी। कंठस्थ होती थी। इस क्रम में कुछ हेर-फेर भी होता होगा। जितने मुँह और जितने कंठों से कोई शब्द कोई कवि – सृजन गुजरा होगा उतनी ही बार कुछ न कुछ अदला या बदला होगा। इसीलिए कोई भी मौखिक पाठ ‘शुद्ध’ या ‘प्रामाणिक’ नहीं है। हर पाठ में हर मुँह की भाप है। इसलिए एक तरह से यह सामूहिक प्रयास या वृंद-सृजन भी है। उपजहिं अनत अनत छवि लहहिं।
फिर लिखने की विद्या चली। चाहे भोजपत्र पर या ताड़ पर या कागज पर। लिखा होने से उसमें स्थायित्व और दुर्भेद्यता भी आई। छापखाने ने इसे घर-घर तक पहुँचाया। लेकिन केवल उन्हीं तक जो पढ़ सकते थे। एक सीमित समूह में संचरित कविता अब नजर के बाहर उड़ान भरने लगी।
मेरे जैसे लोग सिर्फ लिखित कविता के अनुभव और अभ्यास को जानते हैं। यह सबसे सस्ता माध्यम है। सामूहिक होते हुए भी एकल का साधन और साध्य। सामूहिक इसलिए कि भाषा तो सबकी है। मेरे पहले से है। और एकल इसलिए कि मुझे लिखते हुए और किसी की जरूरत नहीं है। कविता लिखना सबसे आजादी का काम है। पढ़ना भी उतनी ही आजादी, अकेलापन और कम खर्चे का काम है। इसके अलावा यह सुविधा और विकल्प तो हमेशा है ही कि कलम-कागज न हो तो भी मैं कविता कह सकूँ और किताब छिन भी जाए तो कंठस्थ कविता बोल सकूँ।
अब एक नया माध्यम और उपकरण आया है। ये कविताएँ अंतर्जाल या इंटरनेट के जरिए आप तक पहुँचेंगी। आप इन्हें कागज पर नहीं, किसी पर्दे पर पढ़ेंगे जिसमें शब्द उसके भीतर से उगेंगे। यह फिल्म से आगे की बात है। और आप एक एक पंक्ति को सरका कर पढ़ सकते हैं और चाहें तो पूरा मिटा भी सकते हैं। यहाँ भी कविता पढ़ी ही जा रही है जैसे पहले।
लेकिन फर्क ये है कि एक साथ बहुत से लोग अपने अपने उपकरण पर उसे दुनिया में कहीं भी पढ़ सकते है। इस तरह शब्दों को व्याप्ति मिलती हैं। हालाँकि केवल वही पढ़ सकते हैं जिनके पास ये उपकरण हैं। जो इसे चलाना जानते हैं। और इसे बचा कर रखना या न रखना उनकी इच्छा पर है।
एक डर मुझे है कि अगर इस पद्धति या अंतर्जाल (इंटरनेट) के मालिक चाहें तो किसी भी कविता का प्रसारण पलक झपकते रोक सकते हैं। किताब के साथ मुश्किल होगी। इसलिए कविता को, या हर पाठ को, केवल अंतर्जाल के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता।
एक डर और है। अगर आप चाहें तो किसी भी पाठ में कुछ भी हेर-फेर कर सकते हैं। इसलिए भी कागज पर सुरक्षा ज्यादा है।
एक निजी बात यह है कि कविता पढ़ने के पहले मैं किताब को, कागज और रोशनाई और जिल्द को सूँघता हूँ, जैसे भुट्टा खाने के बाद उसे तोड़कर सूँघता हूँ। वह गंध बहुत कुछ कहती है। इंटरनेट मुझे उसे गंध से मरहूम कर देता है। खैर!
तो मुझे खुशी है कि ये चालीस कविताएँ अब हवा में रोशनी की कीलों की तरह जागती रहेंगी। परदे पर शब्द मुझे वैसे ही लगते हैं जैसे नीले आसमान में तारे। शांतिः।
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अरुण कमल
अरुण कमल (जन्म-15 फरवरी, 1954) आधुनिक हिन्दी साहित्य में समकालीन दौर के प्रगतिशील विचारधारा संपन्न, अकाव्यात्मक शैली के ख्यात कवि हैं। साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कवि ने कविता के अतिरिक्त आलोचना भी लिखी है, अनुवाद कार्य भी किये हैं तथा लंबे समय तक वाम विचारधारा को फ़ैलाने वाली साहित्यिक पत्रिका आलोचना का संपादन भी किया है।