पर्दे पर शब्द मुझे वैसे ही लगते हैं जैसे नीले आसमान में तारे

शुरू में कविता बोली जाती थी। सुनी जाती थी। मुँहा-मुँही फैलती थी। कंठस्थ होती थी। इस क्रम में कुछ हेर-फेर भी होता होगा। जितने मुँह और जितने कंठों से कोई शब्द कोई

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