आरएसएस और बीजेपी का स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं की तरफ़ झुकाव, उनके सिद्धांतों — मसलन साम्राज्यवाद का विरोध, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की वज़ह से नहीं है। उनका यह लगाव इसलिए है क्योंकि उनके पास अपने ख़ुद के महान नेता नहीं हैं। खुले तौर पे बात की जाये तो, उनके पास कांग्रेस के नेताओं जैसे गांधीजी, नेहरू, पटेल, सुभाष चंद्र बोस, मौलाना आजाद, और बादशाह खान सरीखे नेताओं की बराबरी करने वाला कोई नहीं है। इसलिए, अपनी छवि को बेहतर दिखाने के लिए, वे इन नेताओं का लगातार अपमान करते हैं – इसके लिए वे कुछ नेताओं को टारगेट करते हैं और उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश करते हैं। सरदार पटेल के बाद, इन दिनों, नेताजी सुभाष चंद्र बोस हिंदुत्व का नया शिकार हैं।
हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने एलान किया कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्मदिन, ‘पराक्रम दिवस’ (साहस दिवस) के तौर पे मनाया जाएगा। हालाँकि इसमें कोई बुराई नहीं है मगर देखना यह है कि सरकार, आरएसएस और बीजेपी के लोग और यहाँ तक कि ख़ुद प्रधानमंत्री भी इसे लोगों तक पहुँचाने के लिए कौन-सा रास्ता अपनाते हैं। पश्चिम बंगाल चुनावों के दौरान, आरएसएस और बीजेपी ने नेताजी की विरासत का फायदा उठाने की पूरी कोशिश की। इसके लिए उन्होंने नेताजी के एक रिश्तेदार को बीजेपी में न सिर्फ़ शामिल किया बल्कि कुछ झूठे दस्तावेजों को भी जानता के बीच रखा। मगर अफ़सोस, इसका उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ और बंगाल की जनता ने बीजेपी को बुरी तरह हराया।
नेताजी की जयंती पर हर साल इस तरह का नाटक होना लगभग तय-सा है। मगर हमें भाजपा के झांसे में आने से पहले कुछ जरूरी बातें समझ लेनी चाहिए और नेताजी के खिलाफ खड़े किए जा रहे दूसरे नेताओं को बदनाम नहीं करना चाहिए। भले ही नेताजी ने गांधी से मतभेद के बाद कांग्रेस छोड़ दी, मगर उन्होंने कभी गांधी, नेहरू और कांग्रेस को भला-बुरा नहीं कहा। इसका पता हम नेताजी की आजाद हिंद फौज की रेजिमेंटों को दिए गए नामों से लगा सकते है। उन्होंने रेजिमेंटों के नाम गांधी ब्रिगेड, नेहरू ब्रिगेड, आजाद ब्रिगेड और रानी लक्ष्मीबाई ब्रिगेड रखे। रानी लक्ष्मीबाई के नाम को छोड़कर, सभी रेजिमेंटों के नाम कांग्रेस के नेताओं के नाम पर थे। नेताजी ने कांग्रेस नेताओं का आदर तब भी किया, जब वो उनसे अलग हो चुके थे। उन्होंने रेजिमेंट के नाम के लिए सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी या आरएसएस के किसी सरसंघचालक का नाम कभी नहीं चुना। उनके लिए सच्चे राष्ट्रीय नेता नेहरू, गांधी और आजाद ही थे। 1943 में बैंकॉक में अपने देश-निकाला के दौरान, नेताजी ने गांधी के जन्मदिन पर उनके योगदान को बेजोड़ और बेमिसाल’ बताया। उन्होंने कहा कि — “कोई भी व्यक्ति, अपनी ज़िंदगी में, ख़ासकर ऐसी परिस्थितियों में, इससे ज्यादा हासिल नहीं कर सकता।”
नेताजी ने खुद को कांग्रेस के वामपंथी धड़े से जोड़ा। उन्होंने अपनी किताब ‘द इंडियन स्ट्रगल’ में जवाहरलाल नेहरू के बारे में लिखा कि — “उनका दिमाग वामपंथियों के साथ है, मगर उनका दिल महात्मा गांधी के साथ है”। उसी किताब में नेताजी ने बोल्शेविक क्रांति की बहुत तारीफ़ की और कहा कि भारत का भविष्य उससे जुड़ा है। उन्होंने आगे लिखा — “बीसवीं सदी के दौरान, रूस ने अपनी उपलब्धियों के ज़रिए सर्वहारा क्रांति, सर्वहारा सरकार और सर्वहारा संस्कृति में संस्कृति और सभ्यता को समृद्ध किया है। दुनिया की संस्कृति और सभ्यता में अगला उल्लेखनीय योगदान भारत से ही किया जाएगा।”
उन्होंने आगे लिखा —
“जैसा कि मार्क्स और लेनिन ने लिखा है और कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की नीति में बताया गया है, मैं पूरी तरह से मानता हूँ कि साम्यवाद, वतनी आज़ादी की लड़ाई को पूरी तरह से समर्थन देता है और इसे अपने विश्वास का हिस्सा मानता हूँ। मेरा मानना है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे के तौर पर एकजुट किया जाना चाहिए और इसके दो ज़रूरी लक्ष्य होने चाहिए – सियासी स्वतंत्रता हासिल करना और समाजवादी शासन स्थापित करना।”
1922-24 के दौरान, जब नेताजी अपने क्रांतिकारी अवतार में नहीं थे, उन्होंने मास्को और बर्लिन से आए दो कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों, जो ब्रिटिश ख़ुफ़िया सेवा से बचना चाहते थे, उनको रहने के लिए सुरक्षित ठिकाना मुहैया कराया। दिसंबर 1922 की एक रात, बंगाली बुद्धिजीवी अबनी मुखर्जी, डॉ. सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय के घर पहुंचे। अबनी को दिलीप रॉय ने नेताजी से मिलवाया, जिसके बाद संतोष मित्रा ने अबनी को नेताजी के पास भेजने का इंतज़ाम किया। इसी तरह, ढाका के क्रांतिकारियों ने नेताजी के कहने पर एम.एन. रॉय की दूत नलिनी गुप्ता को भी रहने के लिए जगह मुहैया करायी। अंग्रेज अब समझ चुके थे कि नेताजी ख़तरनाक इरादों वाले इंसान थे। उन्हें 25 अक्टूबर 1924 को गिरफ़्तार कर बर्मा भेज दिया गया।
आरएसएस और बीजेपी ने हमेशा से भारतीय संविधान के समाजवादी अनुच्छेद का मजाक उड़ाया है और तमाम कम्युनिस्टों को देशद्रोही घोषित किया है। क्योंकि नेताजी समाजवादियों और कम्युनिस्टों के समर्थक थे इसलिए उन्होंने उनको भी देशद्रोही घोषित करने की भरसक कोशिश की। मगर चाहते हुए भी, वो ऐसा कभी, कर नहीं पाये। बल्कि इसके उलट, वे चुनावों के दौरान नेहरू और गांधी के एक दूसरे के बरअक्स खड़ा करते रहे ताकि इसका उन्हें झूठा सियासी फ़ायदा मिलता रहे।
नेताजी ने सियासत के अपने सबक देशबंधु चित्तरंजन दास से सीखे थे, जिन्होंने बंगाल में मुसलमानों के सामाजिक और सियासी सुधार के लिए 60 प्रतिशत सीटें तय की थीं। इसी वजह से नेताजी की छवि हमेशा से ही धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी के तौर पे रही। उनका कहना था — “अगर हम भारत को महान बनाना चाहते हैं, तो हमें एक लोकतांत्रिक समाज की बुनियाद पर एक सियासी लोकतंत्र को खड़ा करना होगा। जन्म, जाति, या पंथ के आधार पर मिलने वाले विशेष अधिकार ख़त्म होने चाहिए; और सभी के लिए एक-से मौक़े मौजूद होने चाहिए।” उन्होंने भारतीयों को सतर्क करते हुए कहा कि — “धार्मिक कट्टरता, सांस्कृतिक एकता के रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है, और कट्टरता को ख़त्म करने के लिए धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक शिक्षा पद्दति से बेहतर कोई रास्ता नहीं है।”
नेताजी की धर्मनिरपेक्षता पर टिप्पणी करते हुए हार्वर्ड विश्वविद्यालय के इतिहासकार सुगाता बोस (जो नेताजी के परपोते भी हैं) ने अपनी किताब “हिज मैजेस्टीज अपोनेंट” में लिखा – कि — “नेताजी, नेहरू की धर्मनिरपेक्षता, जिसमें मज़हबी मतभेदों को नापसंद किया जाता था, और गांधीजी द्वारा सियासत में मुख़्तलिफ़ मज़हबी मतों का इस्तेमाल करने के बीच एक संतुलन ढूंढ़ रहे थे।”
इन दिनों जब तमाम नेता अपनी हिंदू पहचान दिखाने के लिए मंदिर-मंदिर घूम रहे हैं, तब हमें नेताजी से यह सीखना चाहिए कि कैसे उन्होंने सियासत और मज़हब को अलग रखा। उनके दोस्त आबिद हसन ने सिंगापुर की एक घटना का ज़िक्र किया जब नेताजी को चेट्टियार मंदिर में जाना पड़ा। वहां उन पर और उनके साथियों, आबिद हसन और मोहम्मद ज़मान कियानी पर, चंदन के तिलक लगाये गए। मंदिर से बाहर निकलते समय, नेताजी ने अपना तिलक मिटा दिया और कुछ ऐसा ही उनके सभी साथियों ने भी किया। नेताजी ने मंदिर में जाने का फ़ैसला तब लिया जब मंदिर के प्रशासन ने सभी जातियों और समुदायों के लिए एक समान राष्ट्रीय सम्मेलन करने पर अपनी रज़ामंदी दी थी।
नेताजी ने मुश्किल (संस्कृतनिष्ठ) हिंदी की बजाय उदारवादी हिंदुस्तानी का इस्तेमाल किया। उन्होंने टैगोर के “जन गण मन” का आसान हिंदुस्तानी तर्जुमा राष्ट्रगान में शामिल किया। उन्होंने अपनी आजाद हिंद फौज के वाक्यों में उर्दू शब्द जैसे एतमाद (विश्वास), इत्तेफाक (एकता) और कुर्बानी (बलिदान) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया। वे टीपू सुल्तान के उछलते हुए बाघ को भी अपनी फौज के सैनिकों के कंधे के बैज के रूप में अपनाते रहे। धर्मनिरपेक्षता नेताजी के लिए ज़रूरी थी, मगर इन दिनों आरएसएस और बीजेपी उसे अपनी सियासत में बदलते दिखाई देते हैं। वे नेताजी की वीरता की बात तो करते हैं, मगर उनकी हिंदू-मुस्लिम एकता के ज़रूरी सिद्धांतों पर जोर नहीं देते।
नेताजी ने हिंदुत्व और विनायक दामोदर सावरकर (जिसे जबरन वीर सावरकर बताया जाता है) के बारे में असहमति जताई। उन्होंने अपनी पुस्तक “द इंडियन स्ट्रगल” में सावरकर और जिन्ना के साथ एक मुलाकात का ज़िक्र किया। उन्होंने लिखा कि — हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की सियासत एक-सी थी और उनकी सियासी बुनियाद भी मिलती-जुलती थी। नेताजी ने लिखा कि — जिन्ना ने उस समय सिर्फ़ यह सोचा कि अंग्रेजों की मदद से पाकिस्तान को कैसे बनाया जाए। उन्हें कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ाई लड़ने का ख़याल पसंद नहीं आया। नेताजी ने लिखा कि सावरकर अंतरराष्ट्रीय घटनाओं को लेकर असंवेदनशील रहे और सिर्फ़ यह सोचते रहे कि कैसे हिंदू भारत में ब्रिटिश सेना में प्रवेश करके सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते हैं। इन साक्षात्कारों से यह पता चलता है कि कि मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा से कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है। बंगाल में नेताजी का डोगमाटिक समर्थन उनकी भीड़ को ब्राह्मणवादी और वर्गवादी विचारों के ख़िलाफ़ खड़ा करता है, जिसका आज आरएसएस और बीजेपी दोनों के ही अंदर असर है।
इसी सिलसिले में, हिंदू महासभा ने बंगाल में खूब बढ़-चढ़कर समर्थन प्राप्त किया, जहां कुछ बड़े व्यवसायी भाई बोस की नीतियों से असंतुष्ट थे। धनी बंगालियों ने भी इसका समर्थन किया, और उनके द्वारा 10,000 रुपये का योगदान भी दिया। मुस्लिम अत्याचार के खिलाफ हिंदू समर्थन बढ़ाने के लिए ख़ौफ़नाक संदेश भी दिया गया, मगर नेताजी ने इसका कड़ा विरोध किया। अपनी आत्मकथात्मक रेखाचित्र, एन इंडियन पिलग्रिम में, नेताजी ने भारतीय इतिहास में ‘मुस्लिम काल’ के तर्क की जोरदार आलोचना की और प्लासी के युद्ध को हिंदू-मुस्लिम सहयोग की मिसाल मानी। नेताजी ने कहा कि इतिहास मेरी बात का समर्थन करेगा। मुझे विश्वास है कि चाहे हम दिल्ली के मुगल बादशाहों की बात करें या बंगाल के मुस्लिम राजाओं की, हिंदुओं और मुसलमानों ने साथ मिलकर देश को सम्भाला था। कई प्रमुख कैबिनेट मंत्री और सेनापति हिंदू थे। भारत में मुगल साम्राज्य की पैठ हिंदू सेनापतियों की मदद से बनी। 1757 में, प्लासी के युद्ध में, अंग्रेजों को हराने वाले नवाब सिराजुदौला का सेनापति भी एक हिंदू था।
केंद्र में जब तक आरएसएस-बीजेपी की सरकार रहेगी, हर साल नेताजी के जन्मदिन पर एक समारोह होता रहेगा और उन्हें भगवा रंग में रंगने की कोशिश की जाती रहेगी। हमें सच्चे नेताजी को याद करना चाहिए। समाजवाद की चाहत रखने वाले धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक भारतीयों के रूप में हमें महान देशभक्त के आरएसएस और बीजेपी द्वारा (गलत) इस्तेमाल से ख़ुद को दूर रखना होगा।
(यह लेख पहले न्यूज़क्लिक में अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था और यहाँ लेखक की अनुमति से उसका अनुवाद किया गया है।
अनुवाद: कुमार राहुल)

शुभम् शर्मा
शुभम् शर्मा मौजूदा समय के महत्वपूर्ण अकादमिकों में एक प्रमुख नाम हैं। वे वामपंथी विचारधारा की प्रखर आवाज़ों में से एक हैं। उन्होंने अपनी एमफिल कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से की है और इन दिनों कनेक्टिकट विश्वविद्यालय, अमेरिका से अपनी पीएचडी कर रहे हैं। आपसे com.shubham10@gmail.com पे बात की जा सकती है।
