इस हमाम में

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आज उसकी घंटी नहीं बजी, न ही आवाज़ सुनाई दी।

रोज सुबह दरवाज़े के बाहर से उसकी आवाज़ सुनाई पड़ती – ‘बाई, कचरा!’ इसी तर्ज़ में वह यानी अंजा हमारे लम्बे कॉरीडोर से जुड़े हुए हर फ़्लैट की घंटी बजाती हुई ‘कचरा’ शब्द का उच्चारण करती, फिर कचरा लेने उसी फ़्लैट के सामने पहुँच जाती जिसकी घंटी उसने सबसे पहले बजाई थी। ऐसा शायद वह सुविधा के लिए करती थी कि तब तक हर फ़्लैट का बाशिंदा अपने-अपने कचरे का डिब्बा दरवाज़े के बाहर रख दे और अंजा को व्यर्थ प्रतीक्षा न करनी पड़े। दस माले की ऊँची इमारत के हर घर से उसे कचरा इकट्ठा करना पड़ता था। लोगों को भी आदत हो गई थी। वे उसकी घंटी पहचानते थे। सुबह दूधवाले की घंटी, पेपरवाले की घंटी और अंजा की। सुबह की व्यस्तता के बावजूद लोग उसकी आवाज़ सुनते ही दरवाज़ा खोल अपना कचरे का डिब्बा बाहर रख देते और बिना अंजा की प्रतीक्षा किए हुए अपने काम में लग जाते। अंजा एक-एक का कचरा क्रमश: अपने प्लास्टिक के भारी झाबे में उड़ेलती, ख़ाली डिब्बा यथास्थान रखकर दूसरे फ़्लैट के दरवाजे पर पहुँच जाती। बाद में लोग अपना-अपना डिब्बा सुविधानुसार उठा लिया करते। शुरुआत के दिनों में मैं भी ऐसा ही करती थी।

ठीक पौने नौ बजे घड़ी देखकर सोमेश दफ्तर के लिए निकल पड़ते। मैं बैग उठाकर उन्हें लिफ़्ट तक छोड़ने के लिए दरवाजा खोलती तो ख़ाली कचरे का डिब्बा घर की देहरी से सटा रखा होता। शायद यह बात सोमेश कई दिनों से ग़ौर कर रहे थे कि कचरेवाली कचरा तो लेकर चली जाती है, मगर मैं इस बीच ख़ाली डिब्बा ज्यों-का-त्यों पड़ा रहने देती हूँ। घर से निकलते ही सबसे पहले ख़ाली डिब्बे का दर्शन उन्हें अपशकुन प्रतीत होता। उनके इस वहम से परिचित होते ही मैंने अपनी आदत बदल ली थी और ऐसी स्थिति में मेरे और अंजा के औपचारिक परिचय ने आत्मीयता की प्रगाढ़ता ग्रहण कर ली थी।

अब होता यह था, जैसे ही उसकी घंटी बजती, मैं फ़ौरन अपनी व्यस्तता झटककर, डिब्बा उठा, अंजा के सामने पहुँच जाती और उसे तुरन्त ख़ाली कर देने के लिए कहती। एक-आध रोज़ तो इस परिवर्तन से उसे परेशानी हुई थी। कचरे का ‘झाबा’ अट्ठावन नम्बरवाले फ़्लैट के सामने ही वह हमेशा की तरह रखा छोड़ आती थी। पूछे बिना उससे रहा भी न गया था। मुहाँसे-भरे साँवले गालों की उभरी गोलाइयों के नीचे कुछ अधिक फटे होंठों में वह अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कराई थी – “इधर कचरे का डिब्बा चोरी नईं होता।”

उसके गलत मतलब निकालने पर एकाएक दिमाग भन्ना उठा था। सुबह का वक़्त था, संयत होकर जवाब दिया, “यह बात नहीं है, अंजा। असल में,सा’ब को दरवाजे पर पड़ा हुआ खाली कचरे का डिब्बा अपशकुन लगता है, बस इसीलिए…

“क्या?” उसका मुँह अचरज से खुल गया। आँखें पटपटाकर बोली, “सा’ब इतना शिखेला-पढ़ेला मानुस होकर ये सब बात मानता है क्या? आजकल तो अपुन लोग भी ऐसा बात पे इस्वास नहीं करता, फिर…”

क्षण-भर निर्विकार भाव से देखा मैंने उसे, फिर ख़ाली डिब्बा लगभग उसके हाथ से झटककर अपना दरवाजा बन्द कर लिया। इस प्रश्न का जवाब भी क्या था मेरे पास? जबरन सहेजा हुआ तटस्थ भाव रसोई तक पहुँचते-पहुँचते मोम-सा पिघलने लगा। एक तरह से मुझे उसका यह कटाक्षपूर्ण प्रश्न अच्छा लगा था, क्योंकि उसके प्रश्न में जिज्ञासा की तीव्रता के अलावा सोमेश के वहमी व्यक्तित्व के प्रति तिरस्कार का भाव भी था।

‘इतना शिखेला-पढ़ेला मानुस…’

अंजा के ये शब्द व्यस्तता के बावजूद मस्तिष्क के संवेदन-तन्तुओं में दुबके, हथौड़े की धमक-से निरन्तर बजते रहे। लगा था, कभी अंजा को अपने क़रीब बैठाकर वह सब बता दूँ, मैं एक नहीं, कई-कई वहमों की चोट से छिदी हुई हूँ और शुष्कता की हद तक जीवन-मोह से विमुक्त। और जब अंजा की आँखों का प्रतिपल गहरा होता विस्मय एकाएक उपहास बनकर सोमेश के व्यक्तित्व पर गिट्टियाँ उछालेगा तो शायद मैं एक सुखद राहत महसूस करूँगी। एक मामूली कचरेवाली का उपहास मेरी अपनी टीसों पर ठंडा फाहा होगा।

ऐसा हो नहीं पाया। उसे अपने क़रीब फुरसत से बैठा तो नहीं पाई। बस, परस्पर बोल-चाल निश्चय ही बढ़ गई। यह भी सोमेश से छिपा नहीं रहा। अपनी नाराजगी वे दबा नहीं सके। एक रोज़ झुंझलाकर बिफरे, “कचरा देने में इतना समय लगता है?”

बात सुनकर भी मैंने अनसुनी कर दी।

मेरी यह ढिठई उन्हें बेहद नागवार गुजरी, “मेरा नहीं तो पास-पड़ोसवालों का तो लिहाज़ करो।”

सुनकर विद्रोह की एक तड़प-सी कौंधी। चीखों का ढका-दबा सैलाब फट पड़ने को हुआ, किन्तु हमेशा की तरह सब भीतर-ही-भीतर अन्तस् की गहराइयों में फूटता रहा…बहता रहा। बहुत पहले अपनी घुटन को अभिव्यक्ति दी थी, चश्मा उतारकर अपनी आँखें दिखाई थीं। इन आँखों में देखने की शक्ति है…मस्तिष्क सोचता भी है…हृदय में संवेदनशीलता भी है।

सुनकर सोमेश हँस दिए थे, “तुम्हारी आँखें सचमुच खूबसूरत हैं, दिवा, पर देखने के लिए उन्हें चश्मे के सहारे की ज़रूरत है।”

फिर जो निर्णय लादने का सिलसिला शुरू हुआ, उसने शायद मेरे कन्धों की मजबूती पहचान ली थी…शादी के चार साल बाद समीप हुआ था।

मेरी ख़रीदी हुई स्लेट तथा रंगीन चाकों का डिब्बा न जाने कहाँ पड़ा होगा! सुन्दर जिल्दवाली अक्षर-ज्ञान की किताबें अपने ऊपर रखी जाने वाली नन्हीं कोमल उँगलियों के स्पर्श से वंचित न जाने किस दराज में पड़ी धूल खा रही होंगी। पाँच साल का समीप मेरी काँपती हुई टाँगों से लिपटा चीखें मारता रहा, मदर ने अंक में भरकर उसे बहलाते हुए गोद में उठा लिया था और सांत्वना से मेरे कन्धे थपथपाते हुए कहा था – कीप पेशंस…..

भाभी-भैया सोमेश को देखकर लौटे थे। भाभी ने कहा था, ‘उन्हें तो एम.ए. या पी-एच.डी. से नीचे पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए ही नहीं।’ कई महीनों तक मुझे देख–दाख आने के बावजूद सोमेश के घरवालों ने मेरे सम्बन्ध में ब्याह का निर्णय लटकाए रखा था। शादी हो जाने के काफी अरसे बाद मौसी ने बताया था -चश्मे के बावजूद, उन्हें इतनी सुन्दर लड़की ढूँढ़े नहीं मिली थी। लड़कियाँ तो बहुत देखी गई थीं, पर सुन्दरता, शिक्षा तथा जन्मपत्री का मिलना और बत्तीस गुणों तक मिलना मेरे साथ ही सम्भव हो पाया था और इसीलिए निर्णय में समय तो ज़रूर लगा, पर हुआ मेरे पक्ष में।

उस रोज की घटना…सालों हो गए, मगर आज भी याद करते हुए सिहरती हूँ। सोमेश दफ्तर के लिए निकल रहे थे और सहसा उनके दरवाजे के बाहर होते ही मुझे याद आया था कि मैं जल्दबाजी में उन्हें रूमाल देना भूल गई हूँ। लपककर दरवाजा खोल कॉरीडोर में पहुंची तो पाया कि ये लिफ़्ट के सामने खड़े उसके ऊपर आने की प्रतीक्षा कर रहे थे।

‘सुनिए!’ मैंने रूमालवाला हाथ आगे उन्हें पुकारा तो वे एकाएक मुड़े और तमतमाए-से मेरे क़रीब आकर तक़रीबन बाँह से घसीटते हुए भीतर खींच ले गए। और इतनी जोर का धक्का मारा कि मेरा पूरा शरीर जड़ से उखड़े पेड़ की तरह ड्राइंगरूम की दीवार से टकरा गया। सुन्न होती देह काले-काले धब्बों से भर गई। आँखों से मैंने उनका चेहरा कोशिश कर देखा था। वे लगभग चीख़-से रहे थे, ‘आइन्दा ऐसी हरकत मत दोहराना, समझी? कितना भी ज़रूरी काम क्यों न हो-एक बार मैं घर से निकल गया तो समझो, निकल गया। पीछे से कभी न बुलाना। दफ्तर में फ़ोन भले ही कर देना!’

उस वक़्त अम्मा कुछ दिनों के लिए हमारे साथ थीं। मेरे प्रकृतिस्थ होते ही उन्होंने मुझे सोमेश के वहमी प्रकृति-पक्ष और उसकी प्रामाणिकता पर लम्बा-चौड़ा भाषण दे डाला था कि ऐसी टोका-टाकी से किस तरह बनते हुए काम बिगड़ जाते हैं – ‘इन सब बातों का तुम्हें ध्यान रखना होगा, बहू। सोच-विचारकर चलने की हमारी कुल-परम्परा है। हम बीस बिसुआवाले कान्यकुब्ज जो ठहरे!’

रूढ़ि और पाखंड के बवंडर में घिरा आहत मन क्षोभ और पीड़ा से छटपटा उठा था। भैया-भाभी के प्रति आक्रोश की उभरी चिनगारी शनैःशनैःजवान आग की शक्ल अख्तियार करती जा रही थी कि तभी अचानक अंजा से भेंट हो गई थी और जान-बूझकर मैंने उससे संसर्ग बढ़ाना शुरू कर दिया था, ताकि ऊँच-नीच की कुलीनता-अकुलीनता से प्रभावित रहने वाली सोमेश की भावनाओं का मुँह बिरा सकूँ।

एक दोपहर गहरी नींद में घंटी की आवाज़ सुनकर जब मैंने दरवाजा खोला तो पाया, सामने कचरेवाली अंजा खड़ी है। समझ में नहीं आया, इस वक़्त वह क्योंकर आ सकती है। उसके असमय आने का प्रयोजन पूछना ही चाहती थी कि तब तक वह साधिकार भीतर दाखिल हो गई। पता नहीं क्यों, मुझे उसका आना अच्छा लगा।

उससे बैठने के लिए कहकर सोत्साह वाशबेसिन पर जाकर मुँह-हाथ धोने लगी। फिर चाय बनाकर, उसे दो कपों में छान, एक कप अंजा को थमा, उसके निकट आकर बैठ गई। अक्सर जब कभी उसे सुबह फ्रिज’ का ठंडा पानी पीना होता तो वह मुझसे ही माँगती थी। मैं निस्संकोच पानी गिलास में ढाल उसे थमा देती। गिलास में पानी लेते हुए वह संकोच से सिकुड़ उठती। कहती – ‘बाई, एक तुमहीच हो जो अपुन को बोईच बरतन में पानी पिलाता है जिसमें तुम ख़ुद पीता है। नईं तो अपुन को तो लोग असीच कप में पानी देता है जो कचरे में फेंकने वाला होता है। समझते हैं, हम इन्सान नई, मैला हैं, मैला।’

वह बिना कुछ बोले फौरन चाय सुड़कने में तन्मय हो उठी। उसके द्वारा ही कुछ कहे जाने की प्रतीक्षा करती रही। उसका चिन्तामग्न चेहरा काफ़ी उदास लग रहा था। मैंने उसे हमेशा हँसते हुए, मज़ाक करते हुए देखा है। बल्कि सुबह मुझे उसके रसीले बतकहाव की वजह से ही प्रतीक्षा रहती थी कि भेंट होते ही वह कोई-न-कोई टीका- टिप्पणी-भरी बात करेगी, या फिर कुछ फूहड़ किस्म के मज़ाक, जो मुझे वस्तुतः अच्छे लगते थे। हमारे बीच दुबकी बैठी चुप्पी मैंने ही तोड़ी।

“क्या बात है, अंजा? आज तुम बड़ी परेशान नज़र आ रही हो?”

“हाँ…वो…बाई! मेरे को कुछ रुपया चइए था।” वह संकोच से सहमती हुई साहस कर बोली।

“रुपये! क्या ज़रूरत आ पड़ी तुम्हें?”

“झोंपड़ा लेने का मेरे को।”

उसकी बात सुनकर मुझे अचरज हुआ। अपनी जिज्ञासा दबा नहीं पाई, “घर नहीं है क्या तेरे पास?”

“है, पन…” कहकर वह अपने मन की दुविधा झेलती कुछ पल मौन हो आई। लेकिन चाय खत्म होते-न-होते वह अपनी सारी परेशानी ब्योरेवार बता गई। उसने तथा उसके तीसरे पति ने मिलकर खार झोंपड़पट्टी में एक झोंपड़ी ली है, जिसके लिए उसे डेढ़ सौ रुपया डिपॉजिट और पन्द्रह रुपए चालू भाड़े का जुगाड़ करना था। मैंने देखा, घर के विषय में बताते हुए उसका उदास चेहरा खिले फूलों-सा निखर आया है।

“अभी वाला घर में नल भी है, म्यूनिसपेलिटी का संडास भी है। पिच्छू जहाँ हम रहता था न, वहाँ पानी का बोत दिक्कत था। बम्बा से पानी भर के लाना पड़ता था। और संडास…सुनेगा तो तुम हँसेगा। इश्वास नईं करेगा। एकदम सुबू को उठकर सड़क का बाजू में…”

ऐसी दयनीय स्थिति सुनकर भी मैं अपनी हँसी रोक नहीं सकी थी।

जाने के पहले डेढ़ सौ रुपए मैंने उसकी हथेली पर धर दिए थे। अंजा की आँखें अनायास स्नेहिल कृतज्ञता से भीग आई थीं। अचानक झुकी तो उसका हाथ मेरे पैरों पर टिक गया – “बाई! आपका जैसा दिल किसी का नईं देखा अपुन।”

घर! मुझे अंजा को मनपसंद घर मिल जाने की ख़ुशी हुई थी। अपना यह फ़्लैट मुझे कभी घर की तरह नहीं लगा। किसी दौड़ती हुई ट्रेन के स्लीपर कम्पार्टमेंट का हिस्सा-भर महसूस हुआ, जिसका फ़र्श दूसरों के घर की छत है और छत किसी और के घर की ज़मीन।

दो-तीन कहानियाँ लगातार पढ़ गई थी। आँखों में दर्द-सा महसूस होने लगा था। पता नहीं, चश्मे का नम्बर बढ़ गया है या दोपहर-भर लगातार पढ़ने का नतीजा था। कहानी की पत्रिका सिरहाने उठाकर रख दी। चश्मा उतारकर दोनों हथेलियों से दुखती आँखों को हल्के-हल्के दबाया। एक सुखद राहत से पलकें तंद्रिल हो उठीं। नहीं-नहीं, मैं सोना नहीं चाहती…

सोमेश महसूस ही नहीं करते कि अब मैं पढ़ते-पढ़ते थक गई हूँ, सोते-सोते थक गई हूँ, दिन-भर टेबल-कुर्सियाँ, कुशन झाड़ते-पोंछते थक गई हूँ…सिर्फ उनकी और उनकी ही बातें सुनते-सुनते थक गई हूँ। न किसी के संग उठना-बैठना, न कहीं मन-मुताबिक आना-जाना। आना-जाना भी हो तो सोमेश की उपस्थिति का दबाव हर पल किसी पीछा करते हुए व्यक्ति की कड़ी निगरानी के आतंक-सा मन को बंधक बनाए रहता।

अंजा से मैंने अपनी इस ऊबन का ज़िक्र किया तो वह सुझाव देती-सी बोली थी, “बाई, अक्खा दिन काय कू घर में पड़ा सड़ता है! दूर किसी ऑफिस-वाफिस में काम-धन्धा देख लो न। साब जो भी बोलता हय, तुम गुप-चुप काय को मान लेता हय? तुम शिखेला-पढ़ेला हे न, परवा मत करो। जितना परवा करेगा न उतनाच वो तुमको आँख दिखाएगा, समझा। फिर बाबा का भी तो काम नईं है। वो उधर शाणा में और तुम इधर घर में अकेला भूत सरखा।”

उसकी बातों ने सचमुच घेरे को तोड़ने का विद्रोह पैदा कर दिया था। सोमेश को बिना बताए एक स्कूल में मैंने अध्यापिका के लिए प्रार्थना-पत्र भेज दिया। साक्षात्कार का बुलावा आने पर चुपचाप साक्षात्कार भी दे आई। अचानक एक दोपहर मुझे स्कूल के अधिकारियों का पत्र प्राप्त हुआ कि मुझे वहाँ एक हफ्ते के भीतर ज्वाइन कर लेना है।

सुबह नाश्ते की टेबल पर सोमेश को जब मैंने यह खुशखबरी दी तो प्रत्युत्तर में उनका क्षण-भर पहले का मीठा स्वर चिड़चिड़ाहट में बदल गया।

“नौकरी की तुम्हें क्या ज़रूरत आ पड़ी?”

“समीप के चले जाने के बाद से मैं दिन-भर अकेली पड़ी ऊबी रहती हूँ। बस, यही सोचकर आवेदन-पत्र भेज दिया था।”

“समय ही काटना है न! लिख-पढ़कर भी तो समय गुज़ारा जा सकता है।” “कितना?”

“औरतें और भी बहुत-से काम घरों में करती हैं। तुम उनसे निराली हो?”

“निराली नहीं हूँ, मगर वे बच्चे भी तो पालती हैं।”

“दिवा!” उनकी आवाज़ उत्तेजना से काँपने लगी, “तुम्हारे वाहियात तर्कों के फेर में मैं नहीं आने वाला। घर में रखकर समीप की ज़िन्दगी नहीं बिगाड़नी है मुझे।”

“मुझे क्यों घर में रख छोड़ा है?”

मेरे इस दुस्साहस की उन्हें रंचमात्र भी कल्पना नहीं थी। दाढ़ी का ‘ब्रुश’ गुस्से से बेसिन पर पटकते हुए वे तौलिया उठा, भन्नाते हुए बाथरूम की ओर मुड़ गए – “पता नहीं हराम…क्या चाहती है? पाँच लाख का फ़्लैट है, बच्चा आराम से सिंधिया में पढ़ रहा है, खामख्वाह आँसू टपकाने की आदत पड़ गई है। वह भी ठीक ऑफ़िस के लिए तैयार होने के समय ही…रेड मारकर रख दी….मल्होत्रा वाला अनुबन्ध आज तय होने से रहा।”

बाथरूम का दरवाज़ा बन्द करने से पहले उन्होंने मुझे आग्नेय नेत्रों से घूरा, फिर आदेश-भरे स्वर में बोले, “फिजूल के तेवर दिखाने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें अभी इसी वक़्त पत्र लिखकर मना कर दो, ताकि वे किसी और को तुम्हारी जगह नियुक्त कर लें, समझी!”

क्या मैं मात्र सोमेश की उँगलियों का संकेत-भर हूँ? यही और बस, इतनी ही मेरी पहचान है और मेरे होने की शर्त? अंजा ने तीसरे आदमी के साथ घर बसाया है…मैं…इस कँटीली फेंसिंग को सुरक्षा की चारदीवारी का भ्रम बनाए क्यों पेट में निवाले डालने की मजबूरी को जीवन का तालमेल और आपसी समझदारी जैसे अर्थहीन शब्दों की आड़ में जी रही हूँ? अंजा के लिए…नहीं…उसका और मेरा समाज-समाज का जीवन-दर्शन अलग-अलग है।

बाथरूम से बाहर आकर सब कुछ पटका-पटकीवाले मूड में स्वतः किया गया। मेरे निकाले हुए कपड़े न पहनकर दूसरे निकाल लिए गए। पॉलिशवाले जूतों को परे सरकाकर गन्दे सैंडिल पहने गए। रूमाल भी दूसरा ढूँढ़ा गया, पर शायद मिला नहीं, अतः रोष में वह भी साथ नहीं रखा गया।

दरवाज़ा इतनी जोर से बन्द किया गया कि बड़ी देर तक कानों में एक अजीब-सी भन्नाहट गूंजती रही।

उठकर दरवाजे तक मैं भी नहीं गई। हमेशा ही समझौते को प्रस्तुत रहने वाली मेरी आदत ने एकाएक रुख पलटा था और इस ढिठई के लिए मन को पछतावे जैसी भावना ने उद्वेलित भी नहीं किया। बस, आक्रोश का ज्वार निरन्तर मन को बेधता रहा। कब तक यह सब सहना है? छह सौ रुपए की यह नौकरी मुझे अपने ढंग से खड़ा तो रहने दे सकती है। फिर…

घृणा…घृणा…घृणा का अविराम बहाव कब से अन्तर की अनदेखी गुहाओं में अबाध बहता रहा था, मुझे आभास ही नहीं हुआ! एक शख्स के इतने हिस्से कैसे कर दिए जाते हैं? बेटी, बहू, पत्नी, माँ-नारी…पैदा होते ही उसे समझाना शुरू कर दिया जाता है कि उम्र के हर टुकड़े को दूसरों की सुविधाओं के अनुकूल आत्मसात करके जीने में ही उसका जीना है – एक निर्धारित स्वीकार…क्यों? आख़िर क्यों?

तकिया अमीबा की शक्ल में कई जगह से भीग गया।

उठकर मैंने दीवारों, दरवाजों के उन हिस्सों को बार-बार छुआ था, पढ़ा था, जिन पर पिछली क्रिसमस की छुट्टियों में आए हुए समीप ने कहीं ए-बी-सी-डी लिख दी थी तो कहीं सेब का अंडाकार आकार खींचकर ‘ए फॉर एप्पल’ लिख दिया था, कहीं वन, टू, थ्री, फोर…

रात को सोमेश मेहमानों के कमरे में ही सो गए, सुबह पता नहीं कब उठकर चले गए। दो बजे तक नींद ही नहीं आई। उठी, मेडीसिन बॉक्स से काम्पोज निकालकर खाई तब कहीं जाकर आँख लगी।

किसी भी काम के लिए उठने की इच्छा नहीं हो रही थी, लेकिन कचरेवाली अंजा की घंटी और साथ-साथ ऊँची हुई लहकदार आवाज़ ने चुम्बक-सा खींच लिया। उठकर रसोई में आई तो हाथ यंत्रचालित-से फ्रिज पर चले गए। देखा, दूध की चारों बोतलें स्टैंड में करीने से लगी हुई हैं। सोमेश ने उठकर ले ली होंगी। मुझे तो पता ही नहीं चला कि कब दूधवाले की घंटी बजी, कब पेपरवाले की। रसोई के प्लेटफॉर्म पर चायदानी तथा एक जूठा कप भी पड़ा हुआ दिखा। परन्तु मन को ग्लानि नहीं हुई। यह सब मुझे तकलीफ न पहुँचाने की भावना से नहीं किया गया है, बल्कि यह दरशाने का प्रयास है कि तुम्हारे बगैर भी इस घर में पत्ता खड़क सकता है। तभी मन को मथते तर्क-वितर्क को परे झटक, मैं कचरे का डिब्बा उठाकर फुरती से बाहर आई। बाहर खड़ी वह मेरी प्रतीक्षा कर रही थी।

कचरे का डिब्बा जैसे ही मैंने उसकी ओर बढ़ाया, तेज-तर्रार अंजा ने किसी अप्रिय घटना की परछाईं मेरी आँखों में पढ़ ली।

“क्या बात है, बाई? आँख तो ऐसा सुझेला हय जैसा रात को तुम बेवड़ा मारकर सोया हो।” मजाक करके वह ख़ुद ही ‘हो-हो’ करके हँस दी। परन्तु मैं न हँस सकी। शून्य दृष्टि से उसके कचरे के झाबे को घूरती भर रही।

“रात सा’ब से लफड़ा हो गया था?” अंजा मेरी ख़ामोशी पर तिक्त होती गम्भीर हो आई।

“हाँ।” मैंने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।

“मरद जात…कोई-कोई छोड़ के बोलेंगे तो…पक्का भडुआ होता है। अपन ने हिम्मत छोड़ी कि समझो उनके खीसे में।” उसने हिकारत से मुँह बिचकाया।

उसकी इस गाली में शायद मिला-जुला आक्रोश था। सुनकर मैं अचकचा उठी। उसे शायद इस बात की परवाह नहीं थी कि इस तरह की कड़वाहट हमारे भीतर भी उठती है; किन्तु ऐसी अशालीन शब्दाभिव्यक्ति में हम उसे सुनने-कहने के आदी नहीं होते।

अंजा का आक्रोश पीछे लौटता कहीं अपनी यंत्रणाओं की गलियों में भटकने लगा था।

“हम तो पहलेवाले मर्द को छोड़ा इसीलिए, अक्खा दिन किटकिट। जितना पगार उठाता था, सब दारू में खलास। तीन साल में तीन बच्चा। बोत मुश्किल से एक गेस्ट हाउस में झाड़ू-कचरा उठाने का नौकरी मिला। पगार बोलेंगे तो फकत अस्सी रुपया…साला, जब देखो तब भेज देता था गेस्ट हाउस के मेम सा’ब के पास – ‘अंजा, पाँच रुपया उधार माँगकर ला न मेम सा’ब से…’ दारू भी मेरे पैसे की पीता और धुत्त होकर हड्डी भी मेरी तोड़ता…बच्चा लोग दो जून पेट भरने को तरसता…छह साल खड़ूस के संग कैसा निकला, बोलने को नईं सकता। फिर सोचा, मर्द के साथ भी तो अपने हाथ का कमा के खाना पड़ता है। अकेला ही बच्चा लोग को पालेगा…”

“पर बाई, जात-बिरादरीवाला अकेला भी तो नईं रहने देता।” कहते-कहते अंजा की आँखें पनिया आईं – “एक दिन हम भट्ठीवाला सेठ सद्धू के घर अपना तीनों बच्चा लेकर आ गया। कुछ दिन तलक तो वो हमकू बड़ा चाव से रखा। फिर लगा दिया भट्ठी के काम में। मैं नौसादर और गुड़ सड़ा के दारू बनाने लगी और वह हरामखोर, रात-दिन जुआ खेलने को लगा। बाद को पता लगा, एक रंडी पर रखेली होती उसकी, वहीं अक्खा रात-दिन पड़ा रहता। झगड़ा करने से भडुआ मेरीच पिटाई करता…”

“कितना दुःख रोएगा…सद्धू ने मेरे दोनों छोकरों को दारू पहुँचाने के काम में भिड़ा दिया। एक रोज़ दोनों मोटर का टियूब में दारू भरकर अँधेरी स्टेशन का पिच्छू एक होटल में पहुँचाने गया होता, तभी पोलिस का हाथ पड़ गया और वो कुतरा…जामिन के वास्ते भी नहीं गया। बचा वो भी नईं। एक दिन अक्खा झोंपड़पट्टी पर पोलिस का धाड़ पड़ा। खोद-खोद के माल बाहर निकाला। सद्धू को भी पकड़ा। छोटेवाले बच्चे को लेकर मैं कइसा भी बच के भाग निकली। मंगतराम पेट्रोल पंपवाली झोंपड़पट्टी में एक रिश्ते की भावज थी, उसी के पास। भावज बड़ा-बड़ा बिल्डिंग में कचरेवाली का काम करती थी। मैंने भी पेट पालने के लिए दो-चार घर पकड़ लिये। बाद में ख़बर लगा था, सद्ध को साल-भर का तड़ीपार मिला है।”

सहसा बगलवाले फ्लैट का दरवाज़ा खुलने से हमारी बातचीत में व्यवधान पड़ा। अंजा एकाएक ख़ामोश हो गई। फ़्लैट के मालिक मिस्टर पंजवानी बाहर निकल रहे थे। अंजा बड़ेसहज भाव से चुपचाप अन्य घरों की ओर बढ़ती हुई उनकी घंटी बजाने लगी।

मिस्टर पंजवानी ने मेरे क़रीब ठहरकर मुझसे ‘हलो’ की। प्रत्युत्तर में मैंने अपनी अटपटी स्थिति को ढकते हुए मुस्कराकर उनसे प्रतिप्रश्न किया, “बहुत दिनों से आप दिखाई नहीं दिए?”

“जी, मैं क़रीब तीन महीने के लिए यूरोप की यात्रा पर था।”

‘अच्छा!” मैंने स्वर में भरसक विस्मय भरकर कहा।

वे मुस्कराते हुए लिफ़्ट की तरफ बढ़ लिए। उनके जाते ही अंजा दरवाज़े से बाहर प्रतीक्षा करते कचरों के डिब्बे की उपेक्षा कर पुनः मेरे करीब आ खड़ी हुई।

“बाई!” उसका स्वर मेरी ओर झुकता हुआ अचानक खुसफुसाहट में बदल गया, बाहर-बीहर कहीं नईं गया था। तीन महीना जेल काट के आया है ये सा’ब,मालूम क्या!”

“क्या!” उसकी करुण कथा से अभिभूत मेरा हृदय एकाएक किसी सनसनीखेज घटना को जान लेने को तीव्र उत्सुकता में परिवर्तित हो उठा।

“बोत बड़ा स्मगलर है ये, पकड़ा गया था…बचा नई…तुमको पता नई?”

“नहीं?” मेरे विस्मय का पारावार नहीं था।

“बोत ऊँचा-ऊँचा लोग रहता है आपके पड़ोस में। चोंतीस लम्बरवाली वो केशव मेम सा’ब हैं न। आपको तो यईच पत्ता होगा कि वो नाच-वाच सिखाती हय…डांस का किलास चलता है उसका। पर असल में…” कहते-कहते अंजा संकोचवश तनिक ठिइकी, “धन्धा करती है छोकरियों का! उनका घर का कचरे के साथ बोत सारा फैमिली प्लानिंग पड़ा रेता हय…क्या बोलेगा, छिह!” घृणा से मुँह बिचकाकर उसने जैसे किसी से त्रस्त होकर नाक सिकोड़ी।

“तुम्हें ये बातें कैसे मालूम पड़ जाती हैं?” मैंने अचरज से पूछा, “जबकि मैं पड़ोस में रहती हूँ!”

“तुम भी बाई, बुद्धू सरीखी बात करती। कचरा के साथ बहुत सारी बातें ये लोग खुद ही बाहर फेंक देता  हय।”

मेरा मन उसकी कुशाग्रता पर हतप्रभ हो उठा। कैसी आत्मविश्वास से पगी और है? कितनी तेज बुद्धि ! कितने आँधी-तूफ़ान झेले,मगर छीज-छीजकर भी लड़ाई लड़ रही है। आज वो घंटी नहीं बजी, न वो लहकदार आवाज़ ही सुनाई पड़ी, जिसकी मुझे बेचैनी से प्रतीक्षा रहती थी।

घंटी तो बजी थी और कचरे के लिए पुकार भी आई थी, लेकिन घंटी का अन्दाज़ रोज़वाला नहीं था। आवाज़ किसी आदमी की थी। मुझे बेहद आश्चर्य हुआ। कचरे का डिब्बा उठाकर मैं हतोत्साहित-सी दरवाज़ा खोलकर खड्डी हो गई। मैंने अंजा की जगह एक बूढ़े को खड़ा पाया।

“आज अंजा नहीं आई? तबीयत ठीक नहीं है क्या उसकी?” मैं अपनी जिज्ञासा कोशिश करके भी दबा नहीं पाई।

प्रत्युत्तर में बूढे ने बुरा-सा मुँह बनाया और कटाक्ष-भरे स्वर में बोला, “तबीयत क्या,बीबीजी! जिसकी एक के साथ नहीं निभी, दस के साथ क्या निभेगी! फिर आदमी और जगह बदल लेने से ज़िन्दगी थोड़े ही बदल जाती है।”

“क्यों? ऐसा क्या हुआ?” मैंने आशंका से भरकर पूछा।

‘होना क्या था, बीबीजी। रात मियाँ-बीबी में खूब झगड़ा हुआ।मरदजात, लुगाई की सहन नहीं हुई, हाथ उठ गया सो उठ गया। अंजा ने ताव में कुछ खा-पी लिया। वाडिया अस्पताल में पड़ी है। अभी तक होश नहीं आया है। मुझे उसके मरद ने बदले में काम सँभालने के लिए भेजा है।”

सुनकर मैं अवाक् हो उठी हूँ। काम में मन नहीं लग रहा। दिमाग में निरन्तर बूढ़े की आवाज़ गूंज रही है – ‘आदमी और जगह बदल लेने से ज़िन्दगी थोड़े ही बदल जाती है..’

चित्रा मुद्गल
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चित्रा मुद्गल (जन्म : 1944) हिन्दी की वरिष्ठ कथालेखिका हैं। उन्हें सन 2018 का हिन्दी भाषा का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया है। उनके उपन्यास ‘आवां’ पर उन्हें वर्ष 2003 में ‘व्यास सम्मान’ मिला था।

चित्रा मुद्गल (जन्म : 1944) हिन्दी की वरिष्ठ कथालेखिका हैं। उन्हें सन 2018 का हिन्दी भाषा का साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया है। उनके उपन्यास ‘आवां’ पर उन्हें वर्ष 2003 में ‘व्यास सम्मान’ मिला था।

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