मैं कैलाश चंद तिवारी

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मैं कैलाश चंद तिवारी अल्मोड़ा से

इस वक्त ऋषिकेश से देहरादून जाती सड़क पर हूँ। आस पास जंगल ही जंगल है। और साथ ही तेज हवा और बारिश भी। शहरों में ऐसा देखने को कभी-कभी क्या कभी नहीं मिलता। सो मैंने भी गाड़ी का शीशा नीचे किया और बिना वक्त गँवाएँ उस ख़ूबसूरत जगह का लुफ़्त लेना शुरू किया। 

माफ़ कीजिएगा मैं बताना भूल गई कि आखिर मैं यहाँ कैसे पहुंची और मैं यहाँ क्या कर रही हूँ। चलिए मैं बताती हूँ। 

आज एक एग्जाम था। उत्तराखंड असिटेंट प्रोफेसर का। तारीख़ है 8 अगस्त। मैं भी शामिल थी जिसमें। यूँ आना तो नहीं चाहिए था क्योंकि पढ़ाई कुछ ख़ास की नहीं थी। इसलिए कि सिलेब्स बहुत बड़ा था, या यूँ कहिए अथाह था। और मैं, कोर्स की किताबों से जी चुराने वाली। लेकिन आना तो था क्योंकि घरवाले नहीं जानते थे कि मैं तैयार नहीं हूँ। और उन्हें उम्मीदें बहुत हैं मुझसे। और कुछ आना यूं भी था कि दो साल हुए कहीं गए हुए। और फिर ऊपर से सेंटर – ऋषिकेश। तो भला कौन बेवकूफ नहीं जाएगा। सो मैं भी निकल गई भगवान भरोसे एग्जाम देने।  

मैं एक दिन पहले यानी कल ही पहुंची थी बस से। सुबह 10 बजे वाली यूपी रोड़वेज से देहरादून। बता दूं कभी गलती से भी यूपी रोड़वेज में सफ़र न कीजिएग वरना सफ़र में suffer हो जाएगा। ख़ैर जैसे तैसे मैं देहरादून पहुंच ही गई। आज यानी 8 अगस्त को सुबह जल्दी निकलना था। मैंने इससे पहले ऋषिकेश नहीं देखा था, तो गाइड के तौर पर या यूं कहूँ मेरी बेवकूफियों को मद्देनज़र रखते हुए दीदी साथ आई थी।  

हम एक घंटा पहले ही सेंटर पहुंच गए। वहां जाकर पता लगा कि एडमिट कार्ड में भी जानकारी गलत छापी जाती है।  

रिपोर्टिंग टाइम था 12:30 का और वहां हमारी एंट्री हुई 2 बजे जो कि पेपर शुरू होने के वक्त था। रूम नंबर चेक किए गए और फिर हॉल की तरफ बढ़ा गया। 

कुछ देर बाद पेपर शुरू हुआ ओ० एम० आर० शीट दी गई और साथ ही एक पेन और क्वेश्चन पेपर। पर अभी थोड़ी देर हुई ही थी कि मेरा मन डोलने लगा। चूंकि पढ़ा कुछ था नहीं तो ऐसा होना लाज़िम था। लेकिन अब समय निकालने के लिए किया क्या जाए यह समस्या थी। सो, मैंने भी कुछ अपनी पुरानी जानकारी और कुछ अकड़ बकड़ बंबे बो के भरोसे पेपर करना शुरू किया। इसके अलावा चारा ही क्या था! उस वक्त एक कहावत बिल्कुल सटीक बैठ रही थी मुझ पर “मरता क्या न करता”। सुनी ही होगी आपने। 

हालत देख कर आप समझ गए होंगे कि मर तो नहीं रही थी मैं पर हाल उससे कम भी न था। मेरी हालत बिल्कुल वैसी थी जैसी लैला के इंतजार में बैठे मज़नू की। उसे लैला का इंतजार था और मुझे पेपर नाम की बला के टलने का। अभी कुछ देर पेपर किया ही था कि देखती हूँ कमरे में पानी पिलाने के लिए आंटी जी आई हैं। मेरा चेहरा देख कर वो भी समझ गई थी कि मेरा गला नहीं दिमाग सूख रहा है। सो आंटी जी पानी का गिलास और जग लिए सीधे मेरी ओर चली आईं। दो गिलास पानी पी लेने के बाद कुछ होश आया।  

सचमुच गणित और भौतिक विज्ञान यानि फिजिक्स का नशा बहुत तेज होता है। लेकिन उसे रसायन विज्ञान यानि केमिस्ट्री उतार ही देती है। सो केमिस्ट्री की भाषा में h2o ने मेरा सारा नशा एक पल में दूर कर दिया।  

अब बारी आई बायोमेट्रिक की। एक हैंडसम नौजवान सामने से चलकर आया और मेरा बाएं हाथ का अंगूठा थाम का थम प्रिंट स्कैन किया। और बाद मे जाते वक्त मेरी आंखों में देख कर उसने कहा थैंक्यू। 

अब मैं आपको बता दूं कि यह एग्जाम हॉल है लेकिन आँखें और मन इन्हें कभी भी कुछ भी अच्छा लग सकता है। और फिर मैं ठहरी अलग फितूर की लड़की। जिसे हर ऐसा लड़का जो ऐसा करे अच्छा ही लगता है।  

लगभग दो घंटे और बड़ी मशक्कत के बाद वक्त पूरा हुआ, यहां मशक्कत शब्द मेरे दिमाग के लिए है। जैसे तैसे करके ओ.एम.आर शीट जमा की गई और वहां से निकला गया। 

बस स्टैंड ज्यादा दूर नहीं था तो पैदल चलने की कोई समस्या थी ही नहीं। हम बस बस स्टैंड पहुंचे ही थे कि बारिश भी आ गई। इसीलिए बस का इंतजार न करते हुए हमने टैक्सी कर ली। और निकल पड़े घर को। रास्ते में हम ज्यों ज्यों आगे बढ़ते गए बारिश की बूंदे मोटी होती गई। 

दुनिया जाने क्या सोचती होगी पर, बारिश में मेरा मानना है कि बारिश की बूंदों मे पानी नहीं होता बल्कि याद होती है। किसी अपने की याद और कभी-कभी किसी ऐसे की जो अपना हो सकता था। उस दिन की बारिश को भी कुछ ऐसा ही मंजूर था। हम कुछ आगे बढ़े ही थे कि गाड़ी रूक गई। वापस लौटते एक मोटर साइकिल वाले से पता चला आगे सड़क पर कोई पेड़ गिर गया है। और जब तक जंगलात वाले नहीं आते आगे जाना मुश्किल होगा। 

इतना सुनकर किसी भी आम आदमी को जिसे घर जाने की जल्दी हो और जो काम काजी हो उसे परेशानी होनी ही थी। लेकिन जो बेरोज़गार हो, शहर के किसी कोने से आया हो और जिसे लिखने के कीड़े ने काटा हो उसे कोई जल्दी नहीं होती। मुझे भी नहीं थी। बल्कि मैं चाहती थी बारिश तेज हो और हम कुछ और देर यहीं रूके रहे। इन बारिश की बूंदों से हिलते पत्तों और इस जंगल को देखते ।  

आपको एक बात बता दूँ कि लेखक जो होता है शापित होता है। उसे किसी भी जगह ले जाओ वह लिखने के लिए कुछ न कुछ ढूंढता ही रहता है। और साथ ही सोचता रहता है चीजों को हर प्रकार से रखकर। अमूमन मेरे साथ तो यही होता है। अब अगर मैं लेखिका नहीं भी कही जाऊं लेकिन शापित तो हूँ मैं। 

मैं अभी-अभी यह चाह ही रही थी कि मुझे कुछ वक्त और मिले यहाँ रुकने को कि इतने मे धीरे-धीरे गाड़ियाँ आगे बढ़ने लगी। पता लगा कोई छोटा पेड़ गिरा था जिसे हटा दिया गया। जैसे-जैसे गाड़ी आगे बढ़ती गई एक शहर पीछे छूटता गया। और एक शहर आगे इंतजार करने लगा। जीवन भी तो कुछ यूं ही है। कोई पीछे छूट जाता है ताकि हम आगे किसी और से मिल सकें। और समझ सकें कि जाना एक बेहद महत्वपूर्ण क्रिया है। जाने के बाद ही आना संभव है। लेकिन कुछ लोग कभी लौट कर नहीं आते। इसलिए नहीं कि वे आ नहीं सकते। बल्कि इसलिए कि उन्हें याद ही नहीं रहता कि लौटना है। लेकिन लौटे भी तो किस की ख़ातिर, किसी ने कहा भी तो नहीं था इंतजार करने को! 

हाँ, मैंने नहीं कहा था उसे कि हो सके तो लौट आना। मैंने नहीं कहा कि मैं इंतजार करूंगी। और वह भी कभी नहीं लौटा। 

आज बड़े दिनों बाद इन बिछड़ते रास्तों को देख कर उसकी याद आने लगी है। एक चेहरा जो दशकों पहले देखा था आज कुछ कुछ उभर आया है। दशकों से मेरा मतलब बीते हुए दस सालों से ही है। और अगर उसे गए दस साल नहीं भी हुए हैं तो भी मन के लिए तो दशक ही है क्योंकि अब उसका चेहरा साफ नज़र नहीं आता। एक दशक शायद काफ़ी होता होगा किसी को भूलने के लिए। अब बस एक आवाज कभी कभी किसी भोली सूरत वाले लड़के को देख कर गूंज जाती है कानों में। 

“मेरा नाम कैलाश चंद तिवारी है। और आपका ?” 

यही नाम था उसका कैलाश चंद तिवारी, अल्मोड़ा से था। 

धीरे-धीरे हवा के साथ उसकी बातें तैरने लगी है फिर आस-पास। धीरे-धीरे मन पुरानी यादों में गोते लगा रहा है। 

बात तब की है जब बारहवीं मे मैंने पी.सी.एम ले लिया था। क्यों? इसका जवाब आज तक नहीं मिला। पर जो ले लिया था सो कोचिंग जाना तो आवश्यक ही था। सर्दियों के दिन थे। मुझे कोचिंग शाम को जाना होता था लेकिन सर्दियां थी तो रात ही कह सकते है शाम 7 बजे को। मैं ठीक 7 बजे कोचिंग पहुंची। पहले वाला बैच अभी गया नहीं था तो बाहर ही खड़ी होकर इंतजार करने लगी। इतने मैं दो लोग मेरे बगल में आकर खड़े हो गए। स्टूडेंट्स ही थे। एक लड़की जिसका नाम था चंपा और एक लड़का था कैलाश।  

उसने मुझसे हाथ मिलाते हुए यही कहा था, “ मेरा नाम कैलाश चंद तिवारी है। मैं अल्मोड़ा से हूँ। यहाँ आपके शहर कुछ दिन रहने आया हूँ। यहीं कोचिंग करूंगा फिजिक्स की।” मैंने भी अपना नाम बता दिया था और साथ ही यह भी कि मैं भी फिजिक्स ही पढ़ती हूँ।   

जब पहला बैच बाहर निकला तो हम दाखिल हुए। मैंने उजाले में उसका चेहरा ठीक से अब देखा था। बड़ी ही भोली शक्ल थी उसकी। गोरा उजला लड़का। कद काठी भी ठीक थी। पहाड़ी अधिकतर ऐसे ही होते हैं। मेरे जैसे कुछ अपवादों को छोड़कर। शहर में लोग भोले लोगों को बेवकूफ समझते हैं। लेकिन मैं उसे बेवकूफ नहीं कह सकती थी। आखिरकार उसने पी.सी.एम जो लिया था। ग्यारहवीं मे फिजिक्स, केमिस्ट्री और मैथ्स पढ़ने वाले। या तो बहुत दिमाग वाले होते हैं या सचमुच बेवकूफ़। तो अब वह बेवकूफ़ था कि नहीं यह मैं नहीं कह सकती थी। उस दिन कोई ख़ास बात नहीं हुई। 

धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। हम रोज शाम 7 बजे कोचिंग मे मिलते लेकिन मैं ज्यादा बात नहीं करती थी। और करती भी कैसे सामने सर जो बैठे होते थे। और साथ ही कोचिंग के और बच्चे और चंपा भी। 

हाँ, चंपा के बारे मे बताना भूल गई। चंपा रिश्ते में कैलाश की साली लगती थी। यानि उसकी भाभी की बहन। और चंपा को कैलाश से सख्त चिड़ थी। लेकिन रिश्ते के नाते दोनों को एक साथ ही कोचिंग आना पड़ता था। धीरे-धीरे दिन बीतने के साथ मैं और कैलाश साथ बैठने लगे। बैठना था ही क्योंकि कोई और बैठता तो वह बहस करने लगता था। उसे शायद कोई लगाव हो गया था। उस उम्र में ऐसा होना लाज़िम था। विज्ञान की भाषा में कहें तो हार्मोनल चेंज जो सब के साथ होता है। कैलाश की एक बात थी वह बैठता तो था मेरे बगल में लेकिन बोलता कुछ नहीं था। शायद मेरी वजह से। क्योंकि मैं पढ़ते वक्त सिर्फ किताबों में घुसी होती थी। और साथ ही उस वक्त हम इतने मॉडर्न नहीं हुए थे। एक झिझक सब में होती है उन दिनों। उसमें मैं भी थी और कहीं न कहीं मुझ में भी। खैर अब साथ बैठते-बैठते एक महीना हो गया था। और तभी एक रोज कैलाश कोचिंग में आया । वह बहुत खुश था। बहुत चहक रहा था। और चहकना बनता भी था। वह वापस जो जा रहा था। उसकी ईजा यानि मां को उसकी याद आ रही थी और कैलाश जो यहाँ नया था उसका मन भी कुछ खास यहाँ रमा नहीं था। तो उसने भी जाना तय कर लिया था।  

उसने आकर न जाने क्यों उस दिन मुझसे बात की। और कहा सुनो, मैं कल से कोचिंग नहीं आऊंगा। वापस जा रहा हूँ अपने गांव। अब कल से किस के साथ बैठोगी। मैंने उसकी तरफ देखा और मुस्कुरा दी बस। मेरे पास कोई जवाब नहीं था। क्या कहती मैं ? एग्जाम पास थे और जिसके साथ बैठकर पढ़ने में मन लग रहा है वह जा रहा है। मैं कैसे करूंगी अब सब। उस वक्त कुछ समझ नहीं आ रहा था। न यह कि मैं उसे पसंद करती थी या नहीं। या फिर यह कि अब किस के साथ बैठूंगी या फिर यह कि एग्जाम कैसे होंगे अब?? कुछ भी तो समझ नहीं आ रहा था। मैंने मुस्कुरा तो दिया था उसे देख कर पर मेरा दिमाग सुन्न हो गया था। एक महीने में हम बोलने वाले न सही चुप्पी वाले दोस्त बन ही गए थे। हां, हम चुप्पी वाले दोस्त थे। जब वह कोई फॉर्मूला गलत पढ़ देता तो मैं उसे आंखे दिखा देती थी। और जब मैं कभी जल्दी जल्दी पढ़ देती थी तो वह इधर-उधर देखने लगता था। बस यही एक तरीके का संवाद था हमारे बीच। और अब वह भी खत्म हो रहा था। 

लेकिन अभी आज का एक घंटा बचा था। कल कैलाश जा तो रहा था पर अभी आज पढ़ना बाकी थाक्लास शुरू हुई और मैं किताब के पन्ने पलटने लगी। तभी किसी के फुसफुसाने की आवाज आई। 

ओए सुन, इतनी तेज पन्ने मत पलट । किताब फाड़नी है क्या? 

मैंने कुछ नहीं बोला।  

दोबारा आवाज आई। सुन, तुझसे एक बात कहनी है।  

मैंने इस बार उसकी तरफ देखा और फिर किताब देखने लगी। 

आज वह आप से सीधे तू पर आ गया था। शायद अपनेपन की वजह से या फिर यूं कहूं कि अब जाते वक्त वह सब कहना चाहता था जो शायद आप और तुम की दीवार के रहते कह पाना संभव नहीं था। 

अब तीसरी बार फिर आवाज़ आई और उसने कहा कल जा रहा हूँ आज तो बात कर ले। हमेशा चुप ही रहेगी क्या?  

अब इस बार मन फिर उसके जाने कि बात सुनकर भारी हो गया। और मैंने उदास होकर धीरे से कहा, “बोलो”। 

उसने कहा तेरा नंबर मिलेगा क्या?? 

मैंने फुसफुसाकर कहा क्यों?  

उसने कहा फोन करूंगा तुझे और किस लिए । 

मैंने कहा सर देख रहें हैं हमें। 

उसने कहा चल तू मत बोल, पर लिख तो ले।  

मैंने उसकी तरफ देखा, उसने कहा मेरा नंबर लिख ले और क्या ! 

तू ही कर लेना फोन। 

मैने इस बार हाँ में सिर हिला दिया। 

उसने बोलना शुरू किया, पर चूंकि आवाज नहीं कर सकते थे तो वह धीरे-धीरे बोलने लगा।  

उसने कहा लिख बहत्तर .. सतासी.. उन्नयासी..और लास्ट में बीस। 

और फिर पूछा – लिख लिया न? 

मैंने कहा हाँ। पर सच यह था कि शहर में रहकर हिंदी मीडियम से पढ़ने वाले। न हिंदी में ठीक होते हैं और न इंग्लिश में। और वही मेरा हाल था। मुझे हिंदी में कुछ गिनतियां तो आती हैं मगर सब नहीं। उन्न्यासी कैसे लिखते हैं मैं सर के डर से पूछ ही नहीं पाई।  

इसके बाद कैलाश ने फिर कहा – सुन। 

जाते-जाते हाथ तो मिला ले यार।  

इसपर मेरी रूह कांप गई। क्योंकि पूरे कोचिंग सेंटर के अंदर बेवजह एक लड़का लड़की हाथ मिलाते तो कोई क्या समझता।  

खैर कोई कुछ भी समझता। सच यह था कि मैं डर रही थी। 

और मैंने इसपर कुछ नहीं कहा। 

कैलाश फिर बोला – सुन बेंच के नीचे से हाथ मिला ले यार। तू मुझे यहाँ सबसे अच्छी लगी। बोली नहीं कभी फिर भी अच्छी लगी। एक बार जाते वक्त हाथ मिला ले। 

मैंने उसे अजीब नज़रों से देखा। इनमें गुस्सा कम और डर ज्यादा था।  

फिर आवाज आई – हाथ मिला ना। मैंने हाथ आगे किया है। 

मैं इस पर सर को देखने लगी। यह चेक कर रही थी कि कहीं ये बचकानी बातें कोई सुन तो नहीं रहा। और फिर डरते-डरते हाथ आगे बढ़ा दिया। 

लेकिन डर इतना था कि हाथ आगे बढ़ा कर पीछे खींच लिया। इस बार कैलाश मुझे गुस्से से देखने लगा। मानो मन ही मन बोल रहा हो। डरपोक लड़की। 

ख़ैर मैंने दोबारा और आख़िरी कोशिश की। लेकिन इस बार सर की आवाज आई। कितना लिख लिया कैलाश । 

न्यूमेरिकल्स हुए कि नहीं। कैलाश सर को देखने लगा। और फिर मुझे। जैसे कह रहा हो, लो मिला लिया हाथ !

लेकिन कैलाश उस दिन जिद्द पर था। उसने कहा, सर अभी कुछ न्यूमेरिकल्स बाकी हैं। जरा रूक के चेक कीजिएगा। 

मैं सर के डर की वजह से हाथ फिर पीछे खींचने लगी पर इस बार कैलाश ने अपनी लास्ट वाली उंगली से मेरी लास्ट वाली उंगली यह कहते हुए पकड़ ली कि हाथ न सही उंगली ही मिला ले। 

मेरी आंखों के किनारों पर दो बूंदे उग आयीं थी उस रोज। पहली बार किसी का जाना चुभ रहा था। पर जाना तो सब को है एक दिन। फिर मैं उसे अपने ही शहर जाने से कैसे रोकती भला? मैंने नहीं रोका उसे। और न कहा कि मुझे भी वह पूरे कोचिंग में सबसे अच्छा लगा। 

वो आख़िरी दिन था जब हम मिले थे।  

उसके कई दिनों बाद मैंने अपनी फिजिक्स की कॉपी के पीछे लिखा वो नंबर डायल किया। पर चूंकि हिंदी ख़राब थी और नंबर गलत। फोन नहीं लगा। और मैंने फिर कभी नहीं सुनी वह आवाज। “मैं कैलाश चंद तिवारी, अल्मोड़ा से और आपका?”

अब रास्ता ख़त्म हो गया था। कैलाश कहीं पीछे याद के बादलों में गुम गया। और मैं घर के सामने खड़ी थी। और इसके साथ मेरे अधपके दिनों की एक अधपकी कहानी यहीं समाप्त।

पूनम रावत
पूनम रावत
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पूनम रावत (जन्म - 19 मई, 1995) मूलतः उत्तराखंड से हैं. आप इन दिनों गाज़ियाबाद में अध्यापन कर रही हैं. आपकी रचनाएँ ही आपकी पहचान हैं. आपसे rawatpoonam594@gmail.com पे बात की जा सकती है.

पूनम रावत (जन्म - 19 मई, 1995) मूलतः उत्तराखंड से हैं. आप इन दिनों गाज़ियाबाद में अध्यापन कर रही हैं. आपकी रचनाएँ ही आपकी पहचान हैं. आपसे rawatpoonam594@gmail.com पे बात की जा सकती है.

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