डॉक्टर के शब्द

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डॉक्टर के शब्द

डॉ. रमन के पास मरीज बीमारी के आखिरी दिनों में ही आते थे। वे अक्सर चिल्लाते, ‘तुम एक दिन पहले क्यों नहीं आ सकते थे?’ इसका कारण भी साफ था – डॉक्टर की बड़ी फीस और इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह कि कोई यह नहीं मानना चाहता कि आखिरी समय आ गया है और डॉ. रमन के पास जाना चाहिए। आखिरी समय और डॉक्टर रमन जैसे एक-दूसरे से मिल-जुल गये थे, इस कारण वे उनसे डरने भी लगे थे। इस तरह जब यह महापुरुष मरीज के सामने प्रकट होते, तब इस पार या उस पार, निर्णय तुरंत करना होता था। अब कोई हीलाहवाली या चालबाजी काम नहीं आती थी। बहुत समय से डॉक्टरी करने के कारण उनमें एक तुर्श स्पष्टवादिता भी आ गई थी, इस कारण उनकी राय की कद्र भी की जाती थी। अब वे राय देने वाले डॉक्टर मात्र न रहकर फैसला सुनाने वाले जज बन गये थे। उनके शब्दों पर मरीज की जिन्दगी निर्भर रहने लगी थी। लेकिन डॉक्टर साहब इन सबसे परेशान नहीं होते थे। वे नहीं मानते थे कि मीठे शब्द बोलकर जिन्दगी बचाई जा सकती है। वे नहीं सोचते थे कि झूठ बोलकर दिलासा देना उनका कर्तव्य है जबकि प्रकृति कुछ ही घंटों में फैसला सुना देगी। लेकिन जब भी उन्हें उम्मीद की कोई जरा-सी भी किरण नजर आती, तो वे कमर कसकर मैदान में उतर पड़ते और चाहे जितने घंटे या दिन भी लग जायें, वे सब कुछ भूलकर मरीज को यमराज के पंजे से छुड़ा लाने के प्रयत्न में लग जाते।

आज, एक मरीज के सिरहाने खड़े उन्हें खुद को दिलासा देने वाले ऐसे लोगों की जरूरत महसूस हो रही थी, जो झूठ बोलकर भी उन्हें ढाढस बंधा सकें। रूमाल निकालकर उन्होंने माथे से पसीना पोंछा और मरीज के पास चुपचाप कुर्सी पर बैठ गये। बिस्तर पर उनका जिगरी दोस्त गोपाल निढाल पड़ा था। उनकी दोस्ती चालीस साल पुरानी थी, जो किंडरगार्टर स्कूल से शुरू हुई थी। अब परिवार और काम-धंधे की बातों को लेकर उनका मिलना-जुलना काफी कम हो गया था पर प्यार में कमी नहीं आई थी। इतवार के दिन शाम को अक्सर गोपाल उनके पास पहुंच जाता और अस्पताल के एक कोने में चुपचाप बैठा प्रतीक्षा करता रहता कि डॉक्टर साहब कब खाली होते हैं। फिर दोनों साथ खाना खाते, फिल्म भी देखते और देश-दुनिया की जमकर बातें करते। यह उनकी स्थायी मित्रता थी और इसमें वक्त और हालात का कोई असर नहीं पड़ा था।

अपनी व्यस्तता के कारण डॉ। रमन ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि गोपाल पिछले तीन महीने से उनसे मिलने नहीं आया है। एक दिन सुबह जब उन्होंने मरीजों से भरे अस्पताल की एक बेंच पर उसके बेटे को इन्तजार करते देखा तब उन्हें यह याद आया। फिर भी वे घंटे भर तक उससे बात करने का वक्त नहीं निकाल सके। इसके बाद जब वे आपरेशन-रूम जाने के लिए उठे तो उसके पास जाकर बोले, ‘क्यों आये हो, बेटे?’ लड़का झेंपता हुआ धीरे से बोला, ‘मां ने भेजा है।’

‘बात क्या है?’

‘पापा बीमार हैं।’

आज आपरेशन करने का दिन था और तीन बजे तक वे फुरसत नहीं पा सके। इसके बाद वे तुरंत लॉली एक्सटेंशन में स्थित मित्र के घर के लिए चल पड़े।

गोपाल बिस्तर पर पड़ा सो रहा था। डॉक्टर साहब उसके सिरहाने जा खड़े हुए और पत्नी ने पूछा, ‘यह कब से बीमार है?’

‘डेढ़ महीना हो गया, डॉक्टर साहब!’

‘किसका इलाज चल रहा है?’

‘एक पड़ोसी डॉक्टर का। हर तीसरे दिन आते हैं और दवा देते हैं।’

‘नाम क्या है उसका?’ यह नाम उन्होंने कभी नहीं सुना था। बोले, ‘इसे मैं नहीं जानता। लेकिन मुझे तो कुछ बताना था। तुमने खुद क्यों खबर नहीं की?’

‘हमने सोचा आप व्यस्त होंगे और व्यर्थ में आपको परेशान करना होगा।’ पत्नी ने बड़ी दयनीयता से कहा। वह काफी परेशान नजर आ रही थी।

डॉक्टर समझ गया, अब गंवाने लायक वक्त नहीं बचा है। उन्होंने कोट उतारा और बक्सा खोला। इन्जेक्शन ट्यूब निकाली, सुई खौलते पानी में रख दी। पत्नी उन्हें यह सब करते देखकर और भी परेशान होने लगी और सवाल पूछने लगी।

‘अब सवाल मत करो’, डॉक्टर ने जोर से कहा। उसने बच्चों पर नजर डाली, जो खौलते पानी में सुई को उछलते देख रहे थे। वे बोले, ‘बड़े लड़के को यहीं रहने दो, बाकी सबको किसी और कमरे में भेज दो।’

मरीज की बांह में इन्जेक्शन लगाकर वे कुर्सी पर बैठ गये और घंटे भर उसे देखते रहे। मरीज शान्त पड़ा था। डॉक्टर के चेहरे पर पसीना निकल आया और थकान से आंखें मुंदने लगीं। मरीज की पत्नी कोने में खड़ी चुपचाप सब कुछ देख रही थी। फिर धीरे-से बोली, ‘आपके लिए कॉफी बनाऊं?’

‘नहीं,’ हालांकि भूख से वे बेहाल हो उठे थे। उन्होंने दोपहर का खाना भी नहीं खाना था। थोड़ी देर बाद वे उठे और बोले, ‘मैं बहुत जल्द लौट आऊंगा। इन्हें बिलकुल मत छेड़ना।’ थैला उठाया और बाहर खड़ी कार में जा बैठे।

पंद्रह मिनट में वे वापस आ गये, साथ में एक नर्स और सहायक भी थे। पत्नी से बोले, ‘मैं एक आपरेशन करूंगा।’

‘क्यों? क्या हुआ है?’ पत्नी से घबराकर पूछा।

‘बाद में बताऊंगा। अभी तुम लड़के को यहां छोड़ दो और पड़ोसी के घर चली जाओ, और जब तक मैं बुलाऊं नहीं, वापस मत आना।’

पत्नी बेहोश होकर जमीन पर गिरने को हुई, लेकिन नर्स ने उसे संभाल लिया और बाहर जाने में मदद की। रात को करीब आठ बजे मरीज ने आंखें खोलीं और बिस्तर पर धीरे से हिला। सहायक बहुत खुश हुआ और कहने लगा, ‘अब ये जरूर ठीक हो जायेंगे।’ डॉक्टर ने भावहीन आंखों से उसे देखा और धीरे से कहा, ‘इसे ठीक करने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं लेकिन इसके दिल का क्या होगा…’

‘नाड़ी में तो सुधार हुआ है।’

‘ठीक है, लेकिन इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। ऐसे मामलों में शुरू में हलका सुधार दिखाई देता है लेकिन वह टिकता नहीं है…वह झूठा साबित होता है।’ फिर थोड़ी देर सोचते रहकर बोले, ‘अगर नाड़ी सबेरे आठ बजे तक चलती रहती है, तो यह अगले चालीस बरस तक चलती रहेगी। लेकिन मुझे शक है कि रात को दो बजे के बाद भी यह इसी तरह चलती रहेगी।’

इसके बाद उन्होंने सहायक को वापस भेजा दिया और मरीज के पास बैठ गये। 11 बजे के करीब मरीज ने फिर आंखें खोलीं और डॉक्टर की ओर देखकर मुस्कराया। उसमें हलका सुधार हुआ था और उसने कुछ खाना भी खाया। घर भर में चैन और खुशी की लहर दौड़ गई। सब डॉक्टर के पास आ खड़े हुए और कृतज्ञता प्रकट करने लगे। लेकिन वे चुप बैठे मरीज की ओर देखते रहे, लगता था कि वे किसी की बात सुन नहीं रहे हैं। पत्नी पूछने लगी, ‘अब ये खतरे से बाहर हैं?’

बिना सिर घुमाये, उन्होंने कहा, ‘इन्हें हर चालीस मिनट बाद ग्लूकोज और ब्रांडी देती रहो। दो चम्मच काफी होगी।’

पत्नी रसोईघर में चली गई। वह बेचैन हो रही थी। वह चाहती थी कि जो भी सच्चाई हो, अच्छी या बुरी, उसे पता चल जाये। डॉक्टर साहब कुछ स्पष्ट क्यों नहीं बता रहे? दुविधा उसके लिए असह्य होती जा रही थी। शायद वे मरीज के ही सामने कुछ न कहना चाहते हों। इसलिए रसोई के दरवाजे से उसने उन्हें इशारे से बुलाया। वे चले गये तो उसने पूछा, ‘अब ये कैसे हैं? बच तो जायेंगे?’

डॉक्टर ने होंठ काटे और जमीन की ओर देखते हुए धीरे से कहा, ‘अपने पर काबू रखो। इस वक्त कोई सवाल मत करो।’

भय से पत्नी की आंखें फैल गई। उसने उनके हाथ कसकर पकड़ लिये और कहने लगी, ‘मुझे सच बता दीजिए।’

‘इस वक्त मैं तुमसे बात नहीं करूंगा।’ यह कहकर वे कुर्सी पर जाकर फिर बैठ गये।

पत्नी ने चीखकर रोना शुरू कर दिया। आवाज सुनकर मरीज ने चौंककर आंखें खोलीं और देखने लगा कि क्या बात है। डॉक्टर साहब फिर उठे, रसोई की ओर गये, दरवाजा बाहर से बंद कर कुंडी चढ़ा दी, जिससे आवाज बाहर निकलने से रुक गई।

वे फिर कुर्सी पर आकर बैठे तो मरीज ने धीरे से पूछा, ‘क्या आवाज थी? कोई रो रहा था क्या?’

डॉक्टर ने कहा, ‘तुम अपने पर जोर मत डालो। बात करो। सोने की कोशिश करो।’

मरीज ने फिर पूछा, ‘क्या मैं जा रहा हूं? मुझसे मत छिपाओ।’

डॉक्टर ने अस्पष्ट-सी कुछ ध्वनि की और कुर्सी पर बैठे रहे। उनके जीवन में ऐसी स्थिति कभी नहीं आई थी। लीपापोती उनके स्वभाव में नहीं थी। इसी कारण लोग उनके शब्दों को बहुत महत्व देते थे। उन्होंने मरीज की तरफ एक नजर डाली। उसने इशारे से उन्हें पास बुलाया और धीरे से कहने लगा, ‘मैं जानना चाहता हूं कि और कितना जियूंगा, मुझे वसीयत पर दस्तखत करना है। वह तैयार रखी है। पत्नी से कहो, उसे उठा लाये। तुम गवाह के दस्तखत कर देना।’

डॉक्टर बोला, ‘इस वक्त अपने पर दबाव मत डालो, शान्त रहने की कोशिश करो।’ लेकिन यह कहते हुए वे स्वयं को मूर्ख महसूस कर रहे थे। सोचने लगे- ‘कितना अच्छा हो, मैं इस सबसे बचकर किसी ऐसी जगह चला जाऊं, जहां मुझसे कोई सवाल न पूछा जा सके!’
मरीज ने अपने कमजोर हाथों से डॉक्टर की कलाई फिर से पकड़ ली और जोर देकर कहने लगा, ‘राम, यह मेरा सौभाग्य है कि इस वक्त तुम यहां मेरे पास हो। मैं तुम्हारे शब्दों पर विश्वास कर सकता हूं। मैं जायदाद का मामला सुलझाकर जाना चाहता हूं। नहीं तो मेरे बाद पत्नी और बच्चों को बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। तुम्हें सुब्बिया और उसके लोगों की जानकारी है। वक्त रहते मुझे दस्तख्त कर लेने दो। बताओ…’

‘ठीक है, लेकिन जरा ठहरो…’ डॉक्टर ने उत्तर दिया, फिर वे उठे और बाहर अपनी गाड़ी में जाकर बैठ गये। सोचने लगे। घड़ी देखी, आधी रात हो चुकी थी। वसीयत पर दस्तखत होने हैं तो दो घंटे में हो जाना चाहिए, नहीं तो…वे संपत्ति के बारे में जिम्मेदार नहीं होना चाहते थे। घर की समस्याओं का उन्हें अच्छी तरह ज्ञान था, और सुब्बिया तथा उसके लोगों की भी उन्हें सही जानकारी थी।

लेकिन इस वक्त वे क्या कर सकते थे? अगर वे वसीयत पर दस्तखत करने की सुविधा उसे दे देते हैं तो यह उसकी मौत का परवाना भी हो सकता है, क्योंकि इसके कारण जीवित रहने की उसकी कोशिश एकदम खत्म हो जायेगी। वे गाड़ी से निकले और घर की ओर चल पड़े। फिर कुर्सी पर जाकर बैठ गये। मरीज बराबर उनको देखे जा रहा था। डॉक्टर ने खुद से कहा, ‘अगर मेरे शब्द इसे बचा सकते हैं तो इसे मरना नहीं चाहिए। वसीयत की फिर क्यों जरूरत है?’

वे बोले, ‘सुनो, गोपाल!’ यह पहली दफा वे अपने मरीज के सामने नाटक करने जा रहे थे, झूठ बोलकर जीवन जीने की उसकी इच्छा जगाने।

मरीज के ऊपर झुककर वे जरा ज्यादा जोर देकर बोले, ‘तुम वसीयत की फिक्र मत करो। तुम जियोगे। तुम्हारा दिल बहुत मजबूत है।’

यह सुनते ही मरीज के चेहरे पर चमक आ गई। संतोष की सांस भर कर उसने कहा, ‘तुम कह रहे हो यह? तुम्हारे मुंह से निकली बात जरूर सच होगी…’

डॉक्टर ने कहा, ‘हां मैं कह रहा हूं। तुम हर क्षण ठीक हो रहे हो। अब सो जाओ। गहरी नींद में सो जाओ। मन से सब परेशानियां निकाल दो। मैं सबेरे तुमसे मिलूंगा।’

मरीज ने कृतज्ञ-भाव से डॉक्टर की ओर देखा और फिर आंखें बन्द कर लीं। डॉक्टर ने अपना बैग उठाया और धीरे से दरवाजा बन्द करके बाहर निकल गया।

घर जाते हुए रास्ते में वह अस्पताल में रुके, सहायक को बुलाया और बोले, ‘तुम लॉली एक्सटेंशन वाले मरीज के पास चले जाओ- दवा की एक ट्यूब साथ ले जाना। अब किसी भी क्षण वह जा सकता है। कष्ट ज्यादा हो तो यह ट्यूब दे देना। जल्दी करो, जाओ।’

दूसरे दिन दस बजे वह फिर वहां पहुंच गये। कार से निकलते ही मरीज के कमरे की ओर तेजी से गये। मरीज जाग रहा था और ठीक दिख रहा था। सहायक ने बताया कि नब्ज सही चल रही है। उसने स्टेथेस्कोप मरीज के दिल पर रखा, कुछ देर सुना और पत्नी से बोला, ‘देवी, अब खुश हो जाओ। तुम्हारा पति नब्बे साल तक जिन्दा रहेगा।’

अस्पताल लौटते हुए सहायक ने डॉक्टर से पूछा, ‘सर, क्या वे जीवित रहेंगे?’

‘अब मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ कि गोपाल नब्बे साल तक जिन्दा रहेगा। लेकिन मेरे लिए हमेशा यह पहेली बनी रहेगी कि वह यह हमला कैसे झेल गया!’

आर के नारायण
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आर के नारायण (अक्टूबर 10, 1906- मई 13 2001) का पूरा नाम रासीपुरम कृष्णस्वामी अय्यर नारायणस्वामी था। नारायण अंग्रेजी साहित्य के भारतीय लेखकों में तीन सबसे महान् उपन्यासकारों में गिने जाते हैं। मुल्कराज आनंद तथा राजा राव के साथ उनका नाम भारतीय अंग्रेजी लेखन के आरंभिक समय में 'बृहत्त्रयी' के रूप में प्रसिद्ध है।

आर के नारायण (अक्टूबर 10, 1906- मई 13 2001) का पूरा नाम रासीपुरम कृष्णस्वामी अय्यर नारायणस्वामी था। नारायण अंग्रेजी साहित्य के भारतीय लेखकों में तीन सबसे महान् उपन्यासकारों में गिने जाते हैं। मुल्कराज आनंद तथा राजा राव के साथ उनका नाम भारतीय अंग्रेजी लेखन के आरंभिक समय में 'बृहत्त्रयी' के रूप में प्रसिद्ध है।

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