तस्वीर, इश्क़ की खुटियाँ और जनेऊ

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तस्वीर इश्क़ की खुटियाँ और जनेऊ

वे तीन वेश्याएँ थीं। वे अपना नाम और शिनाख्त़ छुपाना नहीं चाहती थीं। वैसे भी उनके पास छुपाने को कुछ था नहीं। वे वेश्याएँ लगती भी नहीं थीं। उनके उठने-बैठने और बात करने में सलीका था। मेक-अप भी ऐसा नहीं जो अपना पेशा खुद बताने लगे। उनकी साड़ियां और ब्लाउज़ भी भड़काऊ नहीं थे। वे गुलदस्तों की तरह भीनी-भीनी महक रही थीं। कलाइयों में सादा चूड़ियाँ थीं। महीना सावन का था। उनकी हथेलियों में मेंहदी रची हुई थी….उनके नाम न लिए जाएँ यही बेहतर होगा। तो इनके नाम एक, दो और तीन रख लेना मुनासिब लगता है।

–  आप इस पेशे में कैसे आईं?

एक – यह हमारा पुश्तैनी पेशा है। इसे मंजूर करना मुझे अजीब या तकलीफ़देह नहीं लगा। यही लगा कि यह ठीक ही है। इस में गलत क्या है? और फिर तब तक बाहर की दुनिया देखी भी नहीं थी। हमें क्या मालूम कि औरत किसी और तरीके से भी रहती है।

– और आप?

– मैं तो बस आ गई इस पेशे में। पहले मालूम ही नहीं था कि यह कोई अलग पेशा है। यह तो याद नहीं कि औरों की तरह मुझे इस पेशे में धूमधाम से बैठाया गया था या नहीं…. पर पहली बार जो आदमी मेरे ऊपर आया, उसने कुछ ऐसा दिया जिसका पता मुझे नहीं था। मैं डरी भी, सहमी भी। मैंने दर्द भी सहा लेकिन सच कहूँ….मैं अजीब-से सुख में नहा गई थी। उस जिस्मानी सुख का मुझे पहले पता ही नहीं था…

– और आप?

तीसरी – मैं तलाकशुदा औरत हूँ। मेरे हस्बैंड ने मुझ पर तरह-तरह से चढ़ाइयाँ की हैं और बच्चे पैदा किए हैं। मैं अपने सारे प्यार के बावजूद उन तमाम बच्चों को संभाल नहीं सकती थी.। शाहजहाँ की बेगम मुमताजमहल की तरह अट्ठारह की उम्र से उन्‍तीस की उम्र तक ग्यारह बच्चे पैदा किए और मारपीट-तकलीफ़ें सहीं.। तभी सोचा कि बच्चे भी पैदा करो और मारपीट भी सहो! इसका क्या फायदा….जो पैसा देकर साथ सोयेगा, वह मारपीट तो नहीं करेगा…और यहाँ हम, वैसे तो हमल रहते नहीं, अगर रह जाएँ तो गिरवा भी सकती हैं.। यहाँ मजहब की जकड़बन्दी नहीं है….यह तो नहीं मालूम कि इस सिलसिले में मजहब में कुछ ऐसा है., लेकिन घरों में यही बताया जाता है। औलाद पैदा करने की मजबूरी से यह तो बहुत बड़ी आज़ादी थी…दिक्‍कतें तो होती हैं। कुछ बेहद वहशी लोग आते हैं। वे सताते हैं….लेकिन ज़्यादातर औसत लोगों से साबका पड़ता है जो पैसा तो पूरा देते हैं पर कोशिश के बावजूद वक्‍त आने से बहुत पहले बेकार हो जाते हैं। हम उनकी मदद करते हैं.। शादीशुदा जिन्दगी में औरत इस हुनर को सीख लेती है.।

पहली – जी, जब देखा कि औरत और तरीके से भी जी सकती है, तो मन हुआ, इस धंधे को छोड़ दूं। पर अम्मी और मालकिन ने बताया, इससे बेहतर धंधा नहीं है। बड़े से बड़ा आदमी तेरे कदमों में आकर बैठेगा। उन्होंने हमें नाचने-गाने की तालीम भी दी…सीख ले, अरे सीख ले, न जाने कब तेरी कौन-सी अदा किसी को पसन्द आ जाए…बड़ी से बड़ी बेगमें हरम में पड़े-पड़े यही धन्धा तो करती रही हैं।

दूसरी – देखो भइया, यो जिस्मानी सुख तो एक बात थी…फिर धीरे-धीरे पता चला कि उम्र ढलने के बाद क्‍या होता है।…हमारे साथ नेपालिनें थीं, बंगालिनें थीं। वो अपने घरों को याद करके बहुत रोती थीं। हमें तो घर का पता ही नहीं था। वो अपने घरों के बारे में बताया करती थीं। एक के पास अपने छोटे भाई की तस्वीर थी। वह उसे छुपा के रखती थी। देख-देख के रोया करती थी।

तभी मैंने बगल में सिसकी सुनी। देखा तो पहली मुँह छुपा कर ज़ार-ज़ार रो रही थी। मैं सकते में आ गया। उसके कन्धे पर हाथ रखकर मैंने उसे चुप कराने की कोशिश की। वह कुछ सँभली तो मैंने रो पड़ने की वजह पूछी।

– क्या तुम्हें कुछ याद आ गया था?

– हाँ, बहुत कुछ…

कहते हुए उसने अपने पर्स से एक तस्वीर निकालकर सामने कर दी।

– इसमें मेरी दो छोटी बहनें और भाई हैं! मैं भी इस तस्वीर को छिपा कर रखती हूँ। एक बार पकड़ी गई तो बहुत मार पड़ी थी।

– लेकिन क्‍यों? मालकिन ने मारा था?

– दोनों ने मिलकर मारा था।

– तुम्हारी मम्मी ने भी!

– हाँ…मैं पहले जो कुछ बोली, झूठ बोली थी। यह मेरा पुश्तैनी धन्धा नहीं है। मेरी मम्मी भी असली नहीं है। वह मेरी मम्मी बनकर धोखा देती रही।

– यह तुम्हें कब पता चला, कैसे पता चला?

– एक बार टसर (साड़ियों) का सौदागर आया था। कभी-कभी मालकिन हम लोगों के लिए उसी से साड़ियां खरीदती थी। वह गठरी बाँध के लाता था। उस दिन बारिश बहुत थी। मम्मी बोली-बारिश की वजह से कोई सीढ़ियाँ चढ़ा ही नहीं…रुक जा, रात यहीं बिता ले। वह रुक गया। फिर सौदागर और मालकिन के बीच बड़ी फाश बातें होती रहीं। मुझे लेकर। बताना भी मुश्किल है।

– तो छोड़िए उन बातों को… लेकिन एक बात बताए बिना मैं बात पूरी कैसे करुंगी। वो सौदागर किसी और के साथ भी रात बिता सकता था…

– तो जितना मुनासिब लगे, बता दो!

– मैं ही सामने थी। और लड़कियां तो कपड़े बदलने चली गई थीं। मालकिन ने उसे उकसाने के लिए तरह-तरह की झूठी बातें बताईं। मेरे बारे में बोली अगर इसे रात को सोनेवाला न मिले तो दूसरे दिन दिन-भर यह हंगामा करती है। खाना-पीना हराम कर देती है। इसके कूल्हे देखो! मैंने कनखी से देखा, सौदागर का जिस्म भड़कने लगा था। वो मेरे साथ सोने चला आया। सुबह वह चाय पीकर गठरी उठाके चला गया…फिर वह मेरे पास आने-जाने लगा…एक दिन मालकिन और अम्मी को चकमा दे कर मैं उसके साथ भाग गई। तब उसी ने मुझे मेरे घरवालों से मिलवाया। उसने सब कुछ पता लगा के रखा था। मेरी असली अम्मी मुझे देखकर बहुत रोई। अब्बा का इन्तकाल हो चुका था। भाई-बहन मुझे ताज्जुब से देख रहे थे। हम रोए-धोए तो बहुत लेकिन अम्मी ने मुझे घर रखने से मना कर दिया।

– क्यों?

– अब यह तो वही जानें…

– तो तुम घरवालों से अलग कैसे हुईं? कैसे मालकिन के यहां पहुंची?

– अब याद भी नहीं…इतना याद है कि मैं यतीमखाने में थी। मालकिन मेरी इस अम्मी को लेकर वहाँ आई। इस अम्मी ने रो-रो कर, माथा पटक-पटक कर सर तक फोड़ लिया। मैं इसे ही अम्मी समझी। आखिर कई दिनों बाद अम्मी और मालकिन मुझे ले आईं। तब से यहीं थी।

– तो क्‍या बगैर कोर्ट-पुलिस के यह हो सकता है कि कोई किसी को अपना बच्चा बताकर ले आए?

– हो तो नहीं सकता, पर होता सब कुछ है। उसी सौदागर ने बताया था कि यतीम़ाने वालों ने मुझे बेच दिया था।

– ओह! और वो सौदागर?

– वो…वो कब तक साथ देता। अम्मी रख लेती तो शायद वो रिश्ता निभाता। लौटी तो बस, यह तस्वीर लेती आई। इसे भी देने में अम्मी ने बड़ी हुज्जत की।

कहते-कहते वह फिर रो पड़ी। तीसरी ने उसे सँभाला। दूसरी ने मुझे देखा।

– आपने जिस्मानी सुख की बात की थी। क्या आप उसे ही अन्तिम सुख मानती हैं?

– नहीं। अब नहीं मानती। वह सब काफ़ूर हो गया। आदमी मेरे सुख के लिए नहीं, अपने सुख के लिए आता है। एक बार एक शायर आए। ये नौकरी और शायरी साथ-साथ करते थे। नौकरी का पैसा वो बीवी को देते थे, शायरी का मुझपे खर्च करते थे। एक दिन बोले – हमें तुम से इश्क़ हो गया है। मैंने पूछा – तो शादी करोगे? वे बोले – शादी में बहुत झमेला है….

– फिर?

– फिर मैंने उनसे कहा – तो यह इश्क़-विश्क़ की बात छोड़ो, जो करते हो, करते रहो। इश्क बीवी से करो, हमारे पास जब मन करे, आते-जाते रहो। तमाम बीवियाँ इश्क़ की खूँटियों पर टँगी हैं…हमसे इश्क़ करोगे तो वो कहाँ जाएँगी?

– बड़े अजीब-अजीब लोगों से पाला पड़ता है आप लोगों का, नहीं?

तीसरी यह बात सुनके हँसने लगी। पहली भी मुस्कराई। उसकी आँखों में अब आँसू नहीं थे। उसने तीसरी को कुछ याद दिलाया।

– वो लेमनचूसवाला!

– उससे भी मजेदार है एक और। उसकी बीवी गाँव में रहती है। वो किसी स्कूल में मास्टरी करता है। अच्छी हिन्दी बोलता है। कहता था – मैं मंगल के दिन वेश्यागमन नहीं करता। यह बजरंगबली का दिन है!

हम सभी को बेसाख्ता हँसी आ गई। मुझे एक शेर याद आया – एक शेर अर्ज करूँ?

– जी, सुनाइए!

शेर है: ‘सुबह को तौबा कर ली, रात को फिर पी ली… रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गई!’

तीनों ठहाका लगा के हँस पड़ीं।

“इससे भी ज्यादा मजेदार बात एक और है….”

– क्‍या?

– वैसे तो वह पैंट-शर्ट पहनता था लेकिन ऐन वेश्यागमन के वक्‍त वह कान पर जनेऊ चढ़ा लेता था!

कमलेश्वर
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कमलेश्वर (६ जनवरी१९३२-२७ जनवरी २००७) हिन्दी लेखक कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं।कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि उनके लेखन के कई तरह के रंग देखने को मिलते हैं। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा जाता रहा है।

कमलेश्वर (६ जनवरी१९३२-२७ जनवरी २००७) हिन्दी लेखक कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं।कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि उनके लेखन के कई तरह के रंग देखने को मिलते हैं। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा जाता रहा है।

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