कविताएँ : फ़हीम अहमद

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(1)

मेरी हथेलियों में सारे रस्ते
वो मुस्कान लाने वाली एक पंक्ति कसमसाती रही।

(एक)

बाप के झुके हुए काँधे
अंदर धंसते जा रहे गाल
माथे की फड़फड़ाती हुई नसों को देखकर
मैं परदे के पीछे ही रूका रहकर सोचता रहा
बचपन से ही जैसे कई परदे टंगे रहे हैं
उनकी खुशी और उनके बीच
उनकी खुशियों की तरह परदे के पीछे ही
रूका रहा हूँ मैं।

परदे के उस तरफ यह आदमी जो मेरा बाप है
या है अब दर्द से चरमराता हुआ कोई नया खंडहर!
इनके हाथ हैं या किसी पहाड़ का कोई टुकड़ा
जिसपर इनका अल्लाह
किसी नदी का बहाव बहाना भूल गया
या हैं ख़ुरदरी ज़मीन का कोई हिस्सा
जिसपर हमारे मुल्क की सरकार
फसल उगाना भूल गई
घास और फूल उगाना भूल गई

और उनकी खुशियों की तरह
परदे के पीछे ही रूकी हुई है अभी तक।

(दो)

सबकी तरह मैंने भी क्या किया है अभी तक
उनकी वेदना के लिए मेरी भाषा में
केवल कुछ बिखरे हुए शब्द हैं, एक पूरा वाक्य भी नहीं।
मिटा देनी चाहिए मुझे ऐसी भाषा जो बाप के लिए
चेहरे पर मुस्कान लाने वाली एक पंक्ति न बना पाए,
डूब जाना चाहिए कहीं गहरे में अपने मन की भाषा को लेकर
कि वे अभी तक वेदना का उत्सव ही बनाना जानती है
नितांत वेदना के लिए उसके पास कोई पंक्ति नहीं।

(तीन)

घर से लौटते हुए उन्हें
चेहरे पर मुस्कान लाने वाली एक पंक्ति देना चाहता था
पर परदे से झांकते हुए जिस कुर्सी पर बैठे देखा उन्हें
वह आदमी मेरा बाप नहीं, राग मल्हार-सा लगा मुझे
जिसे कोई कंठ आकर गाएगा अभी और आसमान रो पड़ेगा।
जो अभी उठ खड़ा हुआ और चला आया मेरे पास
तो मेरे अंदर बावली नदी बनकर बहने लगेगा।
क्योंकि वह परदे के उस तरफ थे, आ नहीं सकते थे।

क्योंकि वह बैठे हैं उम्र की अतृप्त रेखाओं पर।
क्योंकि वह बैठे हैं कमज़ोर हो रही उम्मीदों के साथ।

क्योंकि वह बैठे हैं गुज़रे हुए दिनों का चिट्ठा लेकर
और बारी-बारी से पलट रहें हो जैसे चुपचाप अपने मन की प्रयोगशाला में
ज़िंदगी का कोई हिस्सा बदलने की चाह रहे हों, जिसे माथे की
दोनों भावों के बीच सिकुड़ती हुई जगह में देखा जा सकता था
और समझा जा सकता था
कि हर बाप अपनी दुनिया का वैज्ञानिक होता है।

(चार)

मेरी हिम्मत नहीं हुई के परदे के उस पार जा सकूँ,
सुन सकूँ उनके किए गए प्रयोगों को
मेरे कदम चुप रहे मेरे होंठो की तरह
मेरी हिम्मत मर गयी
मेरे हाथ न उठे उनके पैरों की जानिब
जिन्हें दबाकर मैं वो एक मुस्कान वाली पंक्ति सुनाना चाहता था,
चाहता था कि इस बार जब लौटूँ
उनके पाँव की कुछ थकन अपनी हथेलियों में भरे हुए लौटूँ।
और…
घर से लौटते हुए मेरे पास सर पर रखे हुए
उनके हाथों के सिवा कुछ नहीं था।
उनके पांव की थकन उनके पांव में रही,
मेरी हथेलियों में सारे रस्ते
वो मुस्कान लाने वाली एक पंक्ति कसमसाती रही।

(2)

“मुझे चाँद और गुलमोहर चाहिए” यह अतिशयोक्ति हो सकती है
लेकिन जीने के लिए इससे हल्की पंक्ति और कोई नहीं।

 (अ)

मैं कहता था कि अनगिनत सदियाँ बंध आई थी हमारे बीच।
तुम्हारे जिस्म के हर हिस्से में
कई – कई शहरों के नक्शे उतारे थे
मेरे जिस्म के हर मोड़ पर एक बेचैन नदी बहाई तुमने।
हम एक कदम साथ चला करते थे
तो एक सदी पार कर जाते थे
पलक झपकते सारे प्रेमियों के सारे ब्रह्माण्ड नाप आते थे
जिस किले की मेहराबों से गुज़रते थे
कदम हमारे चूमकर उन्हें मुरदार होने से बचा लेते थे

मैं करवट लेता था जिस ओर
तुम उभर आती थी
मैं किशमिशी होंठो को चूमता था तुम्हारे
और हम कभी चिड़िया में बदल जाते थे
हम कभी दरगाह से उठती धूनी में बदल जाते थे
हम कभी बुझे हुए लैम्पपोस्ट में बदल जाते थे
.
.
.
अतिशयोक्ति भरा यह जीवन और जिया जा सकता था।

(ब)

तुमने कहा कि कहते हैं एक दिन सब खत्म हो जाएगा
जीने की इच्छा से बड़ा कुछ नहीं,
जीने के लिए इससे हल्की पंक्तियां चाहिए होती है।

इसलिए याद होगा तुम्हें
मैंने तुम्हारी पीठ पर कई गुलमोहर बनाए हैं
तुमने कई चाँद की रातें मेरे सीने में उतारी हैं

सब ख़त्म हो जाने के बाद कोई इन्हें भी ले जाएगा हमसे ?

तुम बस इतना करना अपनी पीठ से
एक फूल गुलमोहर का बालों में लगाते रहना
मैं चांद को बुन-बुनकर आँखों की पुतलियों में ढालता रहूँगा।

और..

और कुछ नहीं क्योंकि
जीने के लिए इससे हल्की पंक्तियाँ और कोई नहीं।

(3)

अब से सब हिसाब रखूँगा

मेरे पास तुम्हारी तरह जादुई खिलौने नहीं
मेरे पास कागज़, कलम भी नहीं
स्मृतियों में सारा हिसाब रखता हूँ
तो अब से पाँव की थकन का हिसाब भी रखूँगा
यह भी रखूँगा कि शहर और बाबू लोगों ने किसी तरह
मौत के घर से भी दूर किया मेरा घर !

तो चलों गाँठ बांधता हूँ मैं अब से
सड़क पर चलना भी अपने श्रम का हिस्सा रखूँगा।

( 4 )

पल

हमारा
सबसे न्यूनतम
सबसे विशालतम पल
होंठो का हमारे माथे पर होना था।

(5)

और तुम इस धरती के
इकलौते शिकारी रह जाओगे

और तुम इस धरती के
इकलौते शिकारी रह जाओगे
धरती के जिस ओर देखोगे
हर किनारा तुम्हारा होगा
धरती के सारे मेहनतकशों की रोटी तुम्हारी होगी
धरती की सारी खुशबू तुम्हारी होगी
धरती के सारे झंडे-तिरंगे शान में तुम्हारी
धरती के सारे अस्त्र-शस्त्र
बम-बारूद
तोप-वोप
सब तुम्हारी पिंडनाली की नोंक पर

“सा
रे
गा
मा
पा
धा
नि
सा”
की जुगलबंदी कर रहे होंगे।

मगर मीरु-वीरू-धीरू
जो जो नाम होंगे तुम्हारे
दुनिया भर की टकसालों पर अंकित
क्या होगा जब खनिजों में बदल जायेंगे हम ?
जब म्यूज़िमों में अवशेष बनकर रह जाएंगे हम!
जब रिपोर्ट ही बताएगी हमारी निशानदेही के चिराग
अखंड और शुद्ध आने वाली तुम्हारी नस्लों को

तब..?

खून,
पियोगे किसका ?
गुलाम,
बनाओगे किसे ?
युद्ध,
करेगा कौन ?

(6)

हमारा दुःख हमारी तरह आवारा दुःख है !

(एक)

हमारा दुःख हमारी तरह आवारा दुःख है
कोई दैर कोई हरम नहीं उसका।

वह भी रात का एक पंछी है
जिसे उजाले में उड़ने का श्राप है।

वह भी धुंध है एक अकेलेपन की
जिसकी कोई लिपि नहीं।

उसके भी पांव में फंसे हुए रास्ते अंतहीन हैं
उसके भी कंठ में रुके हुए नाम अतृप्त हैं।

उसमें भी है
हर दस्तक पे सिहर जाना
दीवारों को कुरेदना आँखों से
पहाड़ों की खलाओं में जाकर रोना
और वापिस लौटते हुए छोड़ते आना
समन्दर, नदी और नालों में अपनी कोई निशानी।

उसमें भी है
दुनिया बनाने के बाद
ख़ुदा के बहाए गए वे आँसू
जो जमींन पर फूलों की शक्ल में दिखे
और चेहरों की शक्ल में आँखों में उतर गए
और अंत में तमाम अतृप्ताओं के साथ
आंसुओं में ही बदल रहे हैं वे।

(दो)

यह हमारे दुःख की आवारगी
हमारी लापता दुआओं की आवारगी है
हमारा दुःख इन्हीं लापता दुआओं की तलाश है।
जिन्हें आँसुओं के टिकट लगाकर
ख़ुदा के दरबार में भेजा गया था।

( तीन )

वे लापता दुआएँ अभी तक लौटी नहीं हैं।
उन्हें आसमान का कौन-सा हिस्सा चर रहा है ?
वे आसमान का कौन-सा स्तंभ होंगी ?
वे फ़कीरों के काले कसोरों में बन्द हैं ?
या किसी के सदके में रूक गई है कहीं ?
हमें हैरान कर सकती हैं यह बातें
कि दुआओं की कोई खाताबही नहीं होती,
ख़ुदा और उसके दफ्तरों की होती हैं।

इसलिए हमें सोचना होगा
जो दुआएँ कुबूल नहीं होती, वे कहाँ जाती होंगी ?
किसे पता होंगे उनके पते ?
जिन्हें हम भूल गए अपने पते के साथ लिखना।
जिन्हें हम भूल गए ख़ुदा की लिपि में लिखना
जिन्हें ख़ुदा भूल गया हमारी लिपि में पढ़ना
और उन पर वापसी का टिकट लगाना।

फ़हीम अहमद

फ़हीम पेशे से अध्यापक हैं और रंगमंच की दुनिया से ताल्लुक़ रखते हैं. आप इन दिनों दिल्ली में हैं और आपसे fzafaheem59@gmail.com पे बात की जा सकती है.

फ़हीम पेशे से अध्यापक हैं और रंगमंच की दुनिया से ताल्लुक़ रखते हैं. आप इन दिनों दिल्ली में हैं और आपसे fzafaheem59@gmail.com पे बात की जा सकती है.

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