1.
जीवन इतना
दुरूह रहा कि
दुखों की तस्बीह पर साधा
मैंने अपना
असाध्य जीवन
और उनके अतिशय पर
जाना कि, मोक्ष
कुछ और नहीं,
सुख और दुख से परे की
अनुभूति है!
2.
दुख जब भी आए
मैंने उनको कभी सहा नहीं,
जिजीविषा से जिया।
दुख में
मैं जंगल सी रही,
सूखती, जलती
और फ़िर हरी हो जाती।
मैं जानती हूँ
‘हरितिमा’
जिजीविषा का पर्याय है!
3.
नदी
समंदर के विछोह में,
सूख कर रास्ता हो जाती है
ताकि मिल सके
हर कोई अपनों से।
सूखी हुई नदी
अपनी देह से गुजरने वाले
पथिकों को नहीं जानती
पर हाँ,
वो उस दुख को पहचानती है
किसी से न मिल पाने का दुख !
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अर्पण जमवाल
अर्पण जमवाल ज्वाली गाँव, धर्मशाला (हिमाचल) से हैं। इन दिनों आपकी पहचान स्वतंत्र लेखिका के रूप में है। आपने अपनी सेवा सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों व विभिन्न विभागों में भी दी है। आपसे arpanjamwal556@ gmail.com पे बात की जा सकती है।