बुझी हुई रातों की
करवटों में
ऊंघते
अनमने ढंग से
सन्नाटे और अंधेरे में
मैंने बो रखी हैं
कुछ तस्वीरें
कुछ मोह-पाश
जो तेज झंझावात में
पानी की तरह बह निकलते हैं
और जमा हो जाते हैं
किसी कफ़ जमे मुहाने पे
उसके ऊपरी तह पे
हथेली फेर
उंगलियाँ डूबा
टटोलता हूँ, तत्त्व
टटोलता हूँ, बोधिसत्त्व
कभी-कभी कुछ उबाल मारता है,
कभी-कभी कुछ नीचे धँसाये जाता है।
फिर कंक्रीट को
हाथों से धक्का दे
नाखूनों से नोंच-खरोंच
डालता हूँ, वहाँ पे
मुट्ठी भर रेत
उंगलियों में लिए
ख़ून, कफ़ और रेत
महसूस करता हूँ
असमर्थता
असक्तता
दिव्यांग-खंड
चेतना-शून्य हो
बिना मर्म
बिना मरहम
चीड़ के पास
लुढ़क जाता हूँ।
जब जागता हूँ
रगड़ता हूँ, पीठ पे उग आए कांटों को
जो अब मुश्किल नहीं
“एक उपक्रम है”
और बिना कुछ उठाये
बिना वापिस देखे
आकारहीन
एक संभावना छोड़ आता हूँ।

विक्रांत चौहान
विक्रांत पटना से हैं और मौज़ूदा वक़्त के माने हुए रंगकर्मी व् अभिनेता हैं. साथ ही आप एक समर्थ व् प्रतिभावान कवि भी हैं. आपकी रचनायें विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व् ऑनलाइन पोर्टल्स पे प्रकाशित होती रहती हैं. आपसे vikrant.chhauhan@gmail.com पे बात की जा सकती है.