गाँव में मेरी नानी थी,
जो सबसे पहले बसंत की आहट पहचान लेती थी
और बिखेर देती थी,
अपने इर्दगिर्द क्यारियों में
फूल, फल, सब्जियों के बीज
वहाँ धनिए की गंध फैली होती थी
वो दाना डालती थी
चिरई, चुरमुनों को
वो अक्सर कहती थी
इस धरती पर तुम्हारा हक उतना ही है
जितना अन्य जीव जंतुओं का
नानी की दुनिया में लौटना मानो
बचपन की सबसे मधुर स्मृतियों को
उसी त्वरा में जीना था और
महसूस करना था, फिर से
मिट्टी, पानी, प्रकृति और
पाकीज़गी को
वो मानती थी कि हर अच्छी चीज को खिलना ही चाहिए
हर अच्छी चीज वितरित होनी चाहिए
वो हिस्सेदारी वाली परम्परा की अंतिम प्रतिनिधि थी

जय प्रकाश
जय प्रकाश औरंगाबाद, बिहार से हैं और पेशे से अध्यापक हैं. आपसे Jps4582@gmail.com पे बात की जा सकती है.