हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।
अगर मैं तुम को ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुँई,
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप के – तुम हो, निकट हो, इसी जादु के –
निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूँ-
अगर मैं यह कहूँ –
बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की ?
आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फ़ूल से
सृष्टि के विस्तार का – ऐश्वर्य का – औदार्य का –
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक बिछली घास है,
या शरद की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी
अकेली
बाजरे की।
और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूँ
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है –
और मैं एकान्त होता हूँ समर्पित
शब्द जादु हैं –
मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है ?

अज्ञेय
सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय’ (07/03/1911 – 04/04/1987) को कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, ललित निबंधकार, संपादक और अध्यापक के रूप में जाना जाता है. आप ‘प्रयोगवाद’ एवं ‘नयी कविता’ को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं. आपको 1964 में साहित्य अकादमी और 1978 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया.