इस गोलार्ध पर प्रेम गोमेद रत्न है
याकि गोपनीय उल्लास का कोई द्वार
जिससे होकर प्रेम गोश फ़रमाता है
चित-पट जिस करवट भी बैठो
प्रेम आ लगता है पीठ से सटकर
वह सहलाता है पीठ
वह पीठ के भीत पर खेलता है चौसर
प्रेम चहबच्चा बना घूमता है हृदय कोन में
वह झांकता है खिड़की के अंतिम सिरे से
वह झपटना चाहता है वह बेर
जो निहायत ही खट्टा है
प्रेम छुटपन का वह झुनझुना है
जो एक बार खोकर दुबारा कभी नहीं मिला
पर उसे याद कर कुछ छीजता है अंदर
प्रेम तुम्हारी सख़्त हथेली की वह लकीर है
जिस पर मेरा नाम ने कभी ठाँव नहीं पाया
अब
प्रेम से फिरता है मन
यह जटिल से जटिलतम है
याकि गले में बँधी कोई ताबीज़
जिसका धागा छोटा होकर गले में आ फँसा है
अब जनपद से उठने का समय हो गया है
लोग जा चुके हैं
अंतिम तैयारी मेरी है
जाने से पहले अपने वक्ष पर स्थान दो देव !

ज्योति रीता
ज्योति रीता (जन्म: 24 जनवरी) मूलतः बिहार से हैं और इन दिनों अध्यापिका के रूप में सेवारत हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पे देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे jyotimam2012@gmail.com पे बात की जा सकती है।