इकलौता डर

1 min read
sabir haka poem iklauta dar

जब मैं मरूँगा
अपने साथ अपनी सारी प्रिय किताबों को ले जाऊंगा
अपनी क़ब्र को भर दूंगा
उन लोगों की तस्‍वीरों से जिनसे मैंने प्‍यार किया
मेर नये घर में कोई जगह नहीं होगी
भविष्‍य के प्रति डर के लिए

मैं लेटा रहूंगा, मैं सिगरेट सुलगाऊंगा
और रोऊंगा उन तमाम औरतों को याद कर
जिन्‍हें मैं गले लगाना चाहता था

इन सारी प्रसन्‍नताओं के बीच भी
एक डर बचा रहता है :
कि एक रोज़, भोरे-भोर,
कोई कंधा झिंझोड़कर जगाएगा मुझे और बोलेगा –

‘अबे उठ जा सबीर, काम पे चलना है।’

सबीर हका
सबीर हका
+ posts

सबीर हका का जन्‍म 1986 में ईरान के करमानशाह में हुआ. वह तेहरान में रहते हैं और इमारतों में निर्माण-कार्य के दौरान मज़दूरी करते हैं. सबीर हका के दो कविता-संग्रह प्रकाशित हैं.

सबीर हका का जन्‍म 1986 में ईरान के करमानशाह में हुआ. वह तेहरान में रहते हैं और इमारतों में निर्माण-कार्य के दौरान मज़दूरी करते हैं. सबीर हका के दो कविता-संग्रह प्रकाशित हैं.

नवीनतम

फूल झरे

फूल झरे जोगिन के द्वार हरी-हरी अँजुरी में भर-भर के प्रीत नई रात करे चाँद की

पाप

पाप करना पाप नहीं पाप की बात करना पाप है पाप करने वाले नहीं डरते पाप

तुमने छोड़ा शहर

तुम ने छोड़ा शहर धूप दुबली हुई पीलिया हो गया है अमलतास को बीच में जो

कोरोना काल में

समझदार हैं बच्चे जिन्हें नहीं आता पढ़ना क, ख, ग हम सब पढ़कर कितने बेवकूफ़ बन

भूख से आलोचना

एक मित्र ने कहा, ‘आलोचना कभी भूखे पेट मत करना। आलोचना पेट से नहीं दिमाग से