जब मैं मरूँगा
अपने साथ अपनी सारी प्रिय किताबों को ले जाऊंगा
अपनी क़ब्र को भर दूंगा
उन लोगों की तस्वीरों से जिनसे मैंने प्यार किया
मेर नये घर में कोई जगह नहीं होगी
भविष्य के प्रति डर के लिए
मैं लेटा रहूंगा, मैं सिगरेट सुलगाऊंगा
और रोऊंगा उन तमाम औरतों को याद कर
जिन्हें मैं गले लगाना चाहता था
इन सारी प्रसन्नताओं के बीच भी
एक डर बचा रहता है :
कि एक रोज़, भोरे-भोर,
कोई कंधा झिंझोड़कर जगाएगा मुझे और बोलेगा –
‘अबे उठ जा सबीर, काम पे चलना है।’

सबीर हका
सबीर हका का जन्म 1986 में ईरान के करमानशाह में हुआ. वह तेहरान में रहते हैं और इमारतों में निर्माण-कार्य के दौरान मज़दूरी करते हैं. सबीर हका के दो कविता-संग्रह प्रकाशित हैं.