आलोचना की संस्कृति और संस्कृति की आलोचना

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यदि ”प्रच्‍छन्‍नता का उद्घाटन,” जैसा कि आचार्य शुक्‍ल आचार्य शुक्‍ल ने कहा है: ”कवि-कर्म का प्रमुख अंग है” तो आलोचना-कर्म का वह अभिन्‍न अंग है। यह प्रच्‍छन्‍नता सभ्‍यता के आवरण निर्मित करते हैं। इसलिए ”ज्‍यों-ज्‍यों हमारी वृत्तियों पर सभ्‍यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे, कवि-कर्म कठिन होता जाएगा” और उसके साथ ही आलोचना-कर्म भी। इस सभ्‍यता के कारण ”क्रोध आदि को भी अपना रूप कुछ बदलना पड़ता है, वह भी सभ्‍यता के साथ अच्‍छे कपड़े-लत्ते पहनकर समाज में आता है जिससे मार-पीट, छीन-खसोट आदि भद्दे समझे जानेवाले व्‍यापारों का कुछ निवारण होता है।”

जो कार्य आचार्य शुक्‍ल के जमाने में ‘सभ्‍यता’ द्वारा संपन्‍न होते थे, अब हिन्दी आलोचना में वही काम ‘संस्‍कृति’ से लिया जा रहा है। वैसे भी संस्‍कृति सभ्‍यता की सगोतिया है और अक्‍सर दोनों का प्रयोग साथ-साथ होता है। दोनों में अंतर भी किया गया है – यहाँ तक कि सभ्‍यता की आलोचना के लिए संस्‍कृति का इस्‍तेमाल किया गया है। इस बीच हिन्दी साहित्‍य ने भी ऐसी ‘संस्‍कृति’ विकसित कर ली है जैसा कि जनवरी-अप्रैल 1987 के ‘पूर्वग्रह’ के संपादकीय में अशोक वाजपेयी के इस कथन से पता चलता है : ”साहित्‍य अपनी विशिष्‍ट संस्‍कृति भी विकसित करता है। यह साहित्यिक संस्‍कृति साहित्‍य में सक्रिय शक्तियों और दृष्टियों के बीच संवाद का शील निरूपण करती है, सीमाएँ निर्धारित करती है, खेल के नियम बनाती है ताकि कुछ सीमाओं का अतिक्रमण न हो सके।” इस वक्‍तव्‍य में ‘खेल के नियमों’ का पूरा ब्‍यौरा तो नहीं दिया गया है किन्तु उन नियमों का कुछ आभास इस वाक्‍य से लग सकता है कि ” वह (संस्‍कृति) असहमति और अंतर्विरोधों को मुख्‍य प्रक्रिया में समाहित करती है।” यह है वह ‘विशिष्‍ट संस्‍कृति’ जिसका विकास ‘असहमति को मुख्‍य प्रक्रिया में समाहित कराने के लिए किया गया है।

हिन्दी में संस्‍कृति के इस उपयोग को देखकर सहसा मैथ्‍यू आर्नल्‍ड की याद ताजा हो आती है जिन्‍होंने लगभग सौ साल पहले अपने जमाने की ‘अराजकता’ को नियंत्रित करने के लिए ‘संस्‍कृति’ का सहारा लिया था। उनकी दृष्टि में आलोचना संस्‍कृति का वर्चस्‍व बढ़ाती है और संस्‍कृति समरसता एवं संतुलन स्‍थापित करने का साधन है क्‍योंकि वह समरसता और संतुलन की अभिव्‍यक्ति भी है। इस संस्‍कृति में वही सहयोग दे सकते हैं जो झगड़ा-फसाद जैसे व्‍यावहारिक मसलों से अलग रहते हों और जो अपने आपको तथा अपनी भाषा को ”हाट-बाजार के धुएँ से काला नहीं करते।” आशा की गई कि इस संस्‍कृति के द्वारा सभी वर्गों से ऐसे रंगरूट भर्ती होंगे जो एक प्रकार से किसी के न होंगे। इस प्रकार संस्‍कृति वर्ग-विसर्जन और सामंजस्‍य का अमोघ अस्‍त्र बनकर आई। जाहिर है कि ऐसी दुर्लभ वस्‍तु के हकदार चन्‍द गिने-चुने विशिष्‍ट जन ही हो सकते हैं।

संस्‍कृति का यह सामाजिक उपयोग स्‍वभावत: उन ऐतिहासिक परिस्थितियों की पड़ताल करने को प्रेरित करता हैं जिनमें ‘संस्‍कृति’ की यह अवधारणा पैदा हुई। हाट-बाजार का वह धुआँ, झगड़ा-फसाद, अभिजात वर्ग की सत्ता को चुनौती देनेवाले नए वर्गों का उदय और इन सबके कारण उत्‍पन्‍न होनेवाली तथाकथित अराजकता आदि घटनाएँ सहज ही उस औद्योगिक क्रांति की ओर संकेत करती हैं जिससे निपटने के लिए संतुलन और सामंजस्‍य के नारे के साथ ‘संस्‍कृति’ का विकास किया गया।

उल्‍लेखनीय है कि इस दौर में वह शास्‍त्र भी विकसित हुआ जिसे ‘सौन्दर्यशास्‍त्र’ जैसी भव्‍य अभिधा दी गई। रंगमंच पर नाटक का अभिनय लोग हजारों साल से करते और देखते आ रहे थे। नृत्‍य, संगीत, चित्र, मूर्तिकला, स्‍थापत्‍य, काव्‍य आदि से लोगों का काफी पुराना परिचय था। इन सबको कला नाम से पुकारने की परम्परा भी पहले से चली आ रही थी। इनके अलावा और तरह के सौन्दर्य पर भी लोगों की दृष्टि थी। इन सब पर अलग-अलग ढंग से सोच-विचार भी चल ही र‍हा था। किन्तु सबको मिलाकर एक दर्शन के ढाँचे में चिंतन की प्रक्रिया लगभग अठराहवीं सदी में शुरू हुई और सबके लिए ‘इस्‍थेटिक’ यानी ‘सौन्दर्यशास्‍त्र’ जैसी दार्शनिक संज्ञा दी गई। इस सौन्दर्यशास्‍त्र ने ‘संस्‍कृति’ की प्रकृति पर इतना बड़ा प्रभाव डाला कि उसकी दिशा ही बदल गई।

सौन्दर्यशास्‍त्र से संपर्क होते ही सौन्दर्यबोध संस्‍कृति की पहली शर्त बन गया। सौन्दर्य का प्रमुख आधार कलाएँ हैं, इसलिए कलात्‍मक सृजन से जुड़े हुए समस्‍त क्रिया-व्‍यापार को आदर्शीकृत करके संस्‍कृति का अनिवार्य अंग बना दिया गया और यह आवश्‍यक समझा गया कि जो इन कलाओं के सौन्दर्य के आस्‍वाद में सक्षम है वही संस्‍कृति का वास्‍तविक अधिकारी है और उसी को ‘संस्‍कृत’ या कि ‘सुसंस्‍कृत’ माना जा सकता है। सौंदर्यानुभूति की उपलब्धि संस्‍कृति के लिए आवश्‍यक अर्हता घोषित की गई। एक ओर सौंदर्यानुभूति का स्‍वरूप-निरूपण सौन्दर्यशास्‍त्र का केंद्रीय प्रश्‍न बना तो दूसरी ओर सौंदर्यानुभूति की सारी विशेषताएँ संस्कृति के आदर्श तत्‍वों के रूप में समाहित कर ली गईं। ‘सामंजस्‍य’ और ‘संतुलन’ जैसी अवधारणाएँ इसी स्‍थानातंरण के उदाहरण हैं। अंतर इतना ही आया कि जो ‘सामंजस्‍य’ और ‘संतुलन’ सौन्दर्यशास्‍त्र में शुद्ध मानसिक क्षेत्र तक सीमित थे, संस्‍क‍ृति ने उन्‍हें अपनाकर सामाजिक बना लिया और इस प्रकार उनसे व्‍यक्ति के मन को संतुलित और समरस करने के साथ-साथ समाज में संघर्षशील विभिन्‍न वर्गों के बीच भी संतुलन और सामंजस्‍य स्‍थापित करने का काम लिया जाने लगा। संस्‍कृति ने संतुलन और सामंजस्‍य को गरिमा भी प्रदान की। यह स्‍थापना की गई कि जो व्‍यक्ति स्‍वयं संतुलित और समरस हैं वह श्रेष्‍ठ है। इसके विप‍रीत असंतुलित असमंजस मनवाले व्‍यक्ति स्‍तर से नीचे ही नहीं, असामान्‍य हैं और भले लोगों के बीच उठने-बैठने लायक नहीं है। इसी प्रकार समाज को संतुलित और समरस रखना उच्‍चकोटि का सामाजिक कर्म है और जो समाज के इस संतुलन को बिगाड़ता या तोड़ता है वह असामाजिक कार्य करता है – यहाँ तक कि इस कार्य में लगे हुए लोगों को असामाजिक और समाजविरोधी भी कहा जा सकता है। इस प्रसंग में जान-बूझकर असुविधाजनक प्रश्‍नों को न तो उठाया जाता है और न उठाने ही दिया जाता है। जैसे, समाज में संतुलन से किसके हित विशेष रूप से सुरक्षित रहेंगे और कौन से लोग घाटे में रहेंगे? इस संतुलन को बदलनेवाले क्‍या चाहते हैं, किन सुविधाओं की माँग करते हैं, समाज में उनकी स्थिति क्‍या है, आर्थिक सांस्‍कृतिक दृष्टि से ये कितने संपन्‍न या विपन्‍न हैं? इत्यादि।

इसी प्रकार सौन्दर्यानुभूति की एक अन्‍य विशेषता है कि नि:संगता। कांट के शब्‍दों में प्रयोजनहीन प्रयोजनशीलता। संस्‍कृति ने इस मानसिक व्‍यापार का भी समाजीकरण कर डाला। सुसंस्‍कृत व्‍यक्ति के लिए केवल अपने-पराए के भेद-भाव से ऊपर उठना ही काफी नहीं है, बल्कि उसे सभी वर्गों से ऊपर उठना भी जरूरी है। सच्‍चा बुद्धिजीवी वह है जो यथार्थ में चाहे जिस सामाजिक वर्ग का हो, मानसिक रूप से अपने वर्ग के हितों को छोड़कर ही वह सच्‍ची संस्‍कृति का अधिकारी होगा। नि:संगता की इस शर्त का पालन करने में अंतत: कौन सा वर्ग घाटे में रहेगा, इसे स्‍पष्‍ट करना आवश्‍यक नहीं है। आकस्मि‍क नहीं कि मैथ्‍यू आर्नल्‍ड की संस्‍कृति और साहित्‍यालोचन की प्रमुख अवधारणा यह ‘नि:संगता’ ही थी और इसीलिए सच्‍चे आलोचक की पहली शर्त भी। रही ‘प्रयोजनहीन प्रयोजनशीलता’ वह अपने विरोधाभास के चमत्‍कार के लिए ही दिलचस्‍प नहीं है बल्कि संस्‍कृति के अंतर्गत हाथ का काम न करनेवाले और दूसरों की मेहनत पर गुलछर्रे उड़ानेवाले वर्ग के भोगवाद का उदात्त दर्शन है। कलाकृति की रचना जीवन के चाहे जितने व्‍यावहारिक अनुभव से हो और उसकी रचना करनेवाले चाहे जितनी भौतिक कठिनाइयों से जूझते हुए कलाकृति का निर्माण करें, आस्‍वाद लेनेवालों को उन सबसे क्‍या प्रयोजन? यदि भोक्‍ता का ध्‍यान उन विषम व्‍यावहारिक परिस्थितियों की ओर गया तो कला के आनन्‍द में विघ्‍न अपरिहार्य है। कलात्‍मक आनन्‍द तो रोज-रोज की उन व्‍यावहारिक समस्‍याओं से मुँह मोड़कर ही प्राप्‍त किया जा सकता है। यह तो हुई कला और संस्‍कृति की प्रयोजनहीनता। प्रयोजनशीलता यह हुई कि इससे भोक्‍ता को तो मानसिक संतुलन और सामंजस्‍य की उपलब्धि हुई और दूसरी ओर कला के उत्‍पादकों का मुँह भी व्‍यवहार की दुनिया से मोड़ लिया गया। दो प्रयोजन एक साथ सिद्ध। एक ही ढेलेसे दो शिकार।यह है सौन्दर्यशास्‍त्र की सांस्‍कृतिक उपलब्धि।

सौन्दर्यशास्‍त्र ने संस्‍कृति को कई तरह से सीमित और संकुचित किया। संस्‍कृति जीवन-जगत की वास्‍तविकता से कटकर अलग हुई; उत्‍पादन-प्रक्रिया से विच्छिन्न हुई; जीवंत क्रिया व्‍यापार से रहित होकर अमूर्त प्रेम बनी; और अंतत: व्‍यापक जनसमुदाय से कटकर एक छोटे से परजीवी वर्ग की भोग्‍या बन गई, इस प्रक्रिया में ‘संसकृति’, ‘सभ्‍यता’ से भी अलग हो गई। सभ्‍यता और संस्‍कृति में अंतर किया गया। दोनों की अलग-अलग कोटियाँ भी निर्धारित दी गई। सभ्‍यता स्‍थूल, संस्कृति सूक्ष्‍म। सभ्‍यता भौतिक वैभव, संस्‍कृति आध्‍यात्मिक गरिमा। विडंबना यह कि सभ्‍यता का अवमूल्‍यन स्‍वयं ‘सभ्‍य’ लोगों ने किया। अवमूल्‍यन सभ्‍यता का हुआ, लेकिन सभ्‍य लोगों का मूल्‍य बढ़ गया। जो सभ्य थे वे ‘संसकृत’ हो गए। लेकिन ध्‍यान दें तो लड्डू दोनों हाथ। एक हाथ में सभ्‍यता, दूसरे हाथ में संस्‍कृति। आदमी वही।

वैसे, कहने के लिए सौन्दर्यशास्‍त्र ने संस्‍कृति को संकुचित किया, किन्तु हकीकत में वह शिष्‍ट वर्ग है जिसने आगे-पीछे सौन्दर्यशास्‍त्र और संस्‍कृति दोनों को संकुचित किया।

इस प्रक्रिया में संस्‍कृति अपने सही अर्थ में एक विचारधारा बन गई। विचारधारा की पूरी ताकत के साथ। संस्‍कृति का एक अलग वाद खड़ा हो गया। नाम पड़ा संस्‍कृतिवाद।

इस संस्‍कृतिवाद ने साहित्‍य की आलोचना को भी प्रभावित किया। संस्‍कृतिवाद ने जिस तरह संस्‍कृति को संकुचित किया, उसी तरह उसने साहित्‍य की आलोचना को भी संकुचित किया। संस्‍कृतिवाद की शब्‍दावली में कहें तो संस्‍कृति ने साहित्‍य की आलोचना को संस्‍कृत-सुसंस्‍कृत किया।

आलोचना अपनी कोख से ही आलोचनात्‍मक रही है। हिन्दी में ‘आलोचना’ शब्‍द की व्‍युत्‍पत्त्‍िा भले ही ‘लुच्’ धातु से बताकर चारों ओर अच्‍छी तरह देखने के अर्थ में इसका प्रयोग किया जाए, इसे देखने के तेवर कई तरह के रहे हैं। देखने की वह भी एक दृष्टि होती है जो सारे छद्म को तार-तार करके रख देती है। यह वह दृष्टि है जिससे बने हुए सभ्‍य और संस्‍कृत जन घबराते हैं, डरते हैं, थर्राते हैं। अंग्रेजी का ‘क्रिटिसिज्‍म’ शब्‍द अपने उस आलोचनात्‍मक अर्थ को आज भी सुरक्षित रखे हुए है। दोष-दर्शन और छिद्रान्‍वेषण के अर्थ में आज भी आलोचना का व्‍यवहार देखा और सुना जाता है। अंग्रेजी में मैथ्‍यू आर्नल्‍ड से पहले साहित्यिक आलोचना का दोष-दर्शनवाला रूप प्रचलित था और शायद प्रबल भी। साहित्‍य के आलोचक सामाजिक आलोचना के लिए भी इस अस्‍त्र का उपयोग करते थे। रूस में बेलिंस्‍की जैसे तेजस्‍वी आलोचक ने साहित्यिक आलोचना को जिस तरह सामाजिक और राजनीतिक आलोचना के प्रखर अस्‍त्र के रूप में इस्‍तेमाल किया वह उन्‍नीसवीं सदी के पूर्वार्ध के इतिहास का संभवत: सबसे शानदार अध्‍याय है। हिन्दी में भी उन्‍नीसवीं सदी के उत्‍तरार्ध से चलकर बीसवीं सदी में महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचन्‍द्र शुक्‍ल, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा से आती हुई साहित्यिक आलोचना का वह सामाजिक-राजनीतिक तेवर अब भी बरकरार है।

किन्तु सौन्दर्यशास्‍त्र के संपर्क से संस्‍कृति की तरह और लगभग संस्‍कृति‍ के साथ ही साहित्यिक आलोचना का सौन्दर्यीकरण हुआ। सौन्दर्यीकरण शब्‍द सुन्‍दर नहीं है। ‘सुन्‍दरीकरण’ कहें तो भी बात बनने की जगह बिगड़ती-सी लगती है। ठेठ हिन्दी में हिन्दी के अपने देसी लहजे में कहें तो सौन्दर्यशास्‍त्र ने आलोचना को ‘सुन्‍दर’ बनाया। ‘सुन्‍नर’ बनाया। मैथ्‍यू आर्नल्‍ड की कृपा से वह भी ‘नि:संगता’ की साधना करने लगी। अंग्रेजी आलोचना में सौन्दर्यशास्‍त्र से एक शब्‍द आया ‘टेस्‍ट’। हिन्दी ने अपने ढंग से उसे ‘रुचि’ में बदला। पूरा अर्थ न खुला तो उसे ‘सुरुचि’ कहा। फिर ‘अभिरुचि’। अपनी संस्‍कृत की पुरानी परम्परा में ‘रस’ शब्‍द पहले से मौजूद है। अंग्रेजी के ‘टेस्‍ट’ से हल्‍का भी नहीं। बल्कि कहीं अधिक अर्थगर्भ। जब आलोचना के कर्म में ‘अभिरुचि’ दाखिल हुई तो फिर ‘टेस्‍ट’ के साथ ‘एप्रिसिएशन’ का महत्‍व बढ़ा। हिन्दी में इसके लिए उचित शब्‍द की तलाश शुरू हुई। हारकर इस बार संस्‍कृत के उसी रस-सिद्धांत की ओर जाना पड़ा और ‘आस्‍वाद’ ने संतुष्‍ट होने के अलावा कोई चारा न रहा। ‘आस्‍वाद’ की उपलब्धि के साथ सा‍हित्यिक आलोचना मूल आलोचना कर्म से हटकर कलाकृतियों के आस्‍वाद में रुचि लेने लगी। आम आदमी की भाषा में वह साहित्यिक कृतियों की जुगाली करने लगी।

सौन्दर्यशास्‍त्र से साहित्यिक आलोचना में ‘टेस्‍ट’ के साथ एक और शब्द आया ‘डिस्क्रिमिनेशन’। हिन्दी में फिर प्रतिशब्‍द की तलाश शुरू हुई। संस्‍कृत का काव्‍यशास्‍त्र फिर मदद के लिए पहुँचा। वहाँ पहले से ‘व्‍यक्त्‍िा-विवेक’, ‘काव्‍य-विवेक’ जैसे शब्‍द काव्‍यशास्‍त्र के प्रसिद्ध ग्रंथों के रूप में मौजूद थे। अंतत: ‘विवेक’ शब्‍द अपनाया गया। लेकिन सौन्दर्यशास्‍त्र के साहचर्य से यह विवेक सौन्दर्य और कला की वस्‍तुओं में ही विवेक करने तक सीमित रहा। सौन्दर्य, कला और साहित्‍य के सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं में भी विवेक करना जरूरी है, इस ओर से ध्‍यान हट गया। इस विवेक का प्रयोग मुख्‍यत: कलाकृति के रूप में सूक्ष्‍म से सूक्ष्‍म भेद करने के लिए होने लगा। संस्‍कृत काव्‍यशास्‍त्र में पहले भी यह किया जा चुका था। अलंकार, रीति, गुण, वक्रोक्ति, ध्‍वनि और रस के जितने भेदोपभेद यहाँ किए गए, दुनिया के किसी साहित्‍य में शायद ही ऐसी कोई मिसाल मिले। बहरहाल आधुनिक हिन्दी में वर्गीकरण – समर्थ वैसी मनीषा तो मिलने से रही पर रूपवाद की प्रवृत्ति निश्‍चय ही बढ़ने लगी। यह रूपवाद मूलत: सौन्दर्यशास्‍त्र की देन है। आचार्य शुक्‍ल ने क्रोचे की आलोचना करते हुए बहुत पहले इस कलावादी प्रवृत्ति के प्रति सावधान किया था। इसीलिए उन्‍होंने साहित्‍य को कला के अंतर्गत मानने का विरोध किया था। साहित्‍य को कला के छूत से बचाना जो था। यह कला कलावाद की है। कला मात्र नहीं था।

आज भी साहित्‍य में जहाँ रूपवाद और कलावाद है, कलाओं के संसर्ग के कारण। भोपाल की मध्‍यप्रदेश कला परिषद भी साहित्‍य की कलाओं के साथ और कलाओं के बीच रखने का गर्व करती रही है। यह सबकुछ संस्‍कृति विभाग के शामियाने के नीचे हुआ है। इस सह अस्त्‍िात्‍व से कलाओं का क्‍या बना, यह तो नहीं पता, साहित्‍य की आलोचना जरूर कलात्‍मक और कलामय हो गई है। जहाँ बहुत कला होगी, परिवर्तन नहीं होगा – यह लिखते समय रघुवीर सहाय के ध्‍यान में यह स्थिति भी थी?

सच तो यह है कि साहित्‍य के लिए न तो कलाओं का संपर्क हानिकर है, न सौन्दर्यशास्‍त्र का। हानिकर है कलावाद की कला और कलावाद का सौन्दर्यशास्‍त्र; और इस सौन्दर्यशास्‍त्र पर कलावाद की छाप इतनी गहरी है कि वह सौन्दर्यशास्‍त्र की अधिकांश अवधारणाओं तक में घर किए बैठी है – यहाँ तक कि सौन्दर्यशास्‍त्र की समूची भाषा कलावादी अभिरुचि से ओतप्रोत है। इस भाषा में सोचनेवाला व्‍यक्ति साहित्‍य को तो रूपाकारों में देखने का अभ्‍यस्‍त हो ही जाता है, जीवन-जगत और समाज को भी उन्‍हीं रंग-रूपों की तरह देखने लगता है। ‘देखहि चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे।’ आकस्मिक नहीं कि इस सौन्दर्यशास्‍त्रीय प्रभाव में सारा साहित्‍य सिमटकर ‘काव्‍य’ बन जाता है, अभिरुचि कविता तक सिमट रहती है। आगे बढ़ी तो नाटक तक और वह भी इसलिए कि उसमें विविध कलाओं का योग रहता है। उपन्‍यास और कहानी इस अभिरुचि के दरवाज़े के बाहर होते हैं। इनमें से एकाध को प्रवेश भी मिल पाया तो इसलिए कि उनमें ‘कवित्‍व’ है। यहाँ ‘कवित्‍व’ का अर्थ विशेष है। एक खास काट का कवित्‍व। नख-दन्‍त-विहीन। गर्द-गुबार रहित। जिन बातों के कारण कहानी-उपन्‍यास वर्जित रहते हैं।

वैसे, रूपाकार का मजा लेना अपने आप में बुरा नहीं है। शुद्ध रूप का भी अपना रस है। रूप को केवल रूप की तरह बहैसियत रूप देखना भी अच्‍छा लगता है और यह कोई गुनाह नहीं है। लेकिन ऊपर-ऊपर से जो रूप मात्र प्रतीत होता है, वह भी आखिर मानव की कृति है – मानवीय कृति। कला-समीक्षक और स्‍वयं कलाकार कहते रहे कि उसका कोई अर्थ नहीं है, वह सिर्फ ‘है’, फिर भी वह मानवीय होने के नाते अपने सृजन और अधिग्रहण दोनों में सामाजिक क्रिया है और इस नाते एक निश्चित सामाजिक प्रक्रिया का अभिन्‍न अंग है। देश-काल का अतिक्रमण करने और कराने की क्षमता रखने के बावजूद उसका अस्ति‍त्‍व असंदिग्‍ध रूप से सामाजिक है। इसलिए सामाजिक विश्‍लेषण के द्वारा ही उसका ठीक-ठीक महत्‍व आँका जा सकता है। समाज के संदर्भ को छोड़ देने पर तो वह समझ से भी परे चला जाता है। सौन्दर्यशास्‍त्र ने आलोचना से उसका यह समाज छीन लिया, समाज का आधार हटा दिया। निराधार आलोचना अपनी आलोचनात्‍मक क्षमता खो बैठी। आलोचना नितांत ‘रचनात्‍मक’ हो गई। शुद्ध रचनात्‍मक आलोचना। रचना के अनुकरण पर एक दूसरी रचना। स्‍वधर्म छोड़ उसने परधर्म स्‍वीकार कर लिया। और ‘स्‍वधर्मे निधन श्रयो परधर्मो भयावह:’। नि:संदेह इस धर्मपरिवर्तन के लिए वह सराही भी जाती है। अपने सराहनेवालों की वह स्‍वयं भी सराहना करती है। उसमें सिर्फ सराहने की क्षमता बच रहती है। एक दरबारी की तरह। इस सराहने को ही वह आलोचना का धर्म-कर्म समझने लगती है। अंतत: आलोचना का एक नया शास्‍त्र तैयार हो जाता है, सम्‍प्रदाय खड़ा हो जाता है। मंगलाचरण में आलोचनात्‍मक आलोचना का प्रत्‍याख्‍यान और उपसंहार में आशंसा का बखान। नामकरण ‘आस्‍वदवादी आलोचना’। वैसे संक्षेप में अपने आपको वह आलोचना ही कहती है, गोया आलोचना अगर कोई है तो वह सिर्फ वही। ‘रचनात्‍मक आलोचना’ यह खिताब रचनाकारों का दिया हुआ है।

सौन्दर्यशास्‍त्र ने राजनीति को भी सुंदर बनाया है। राजनीति सुंदर होकर ‘फासिज्म’ की शक्‍ल में आई। सन् पचहत्‍तर की इमरजेंसी भूली न होगी। हर शहर को सुंदर बनाने का अभियान चलाया गया था। दिल्‍ली के तुर्कमन गेट को सुंदर बनाने के लिए गोलियाँ चलानी पड़ीं। राजनीति की सुंदरता का वह पहला स्‍वाद था। घूँट खून की थी। सुंदर राजनी‍ति की अद्वितीय सौंदर्यानुभूति! अफसोस उस राजनीति के सौन्दर्यशास्‍त्र का कोई शास्‍त्र नहीं रचना गया। इस सौन्दर्यशास्‍त्र में भी जोर रूप पर था। इस रूपवाद का सूत्र वाक्‍य था अनुशासन। ठीक कलानुशासन की तरह। शुद्ध रूप को ही देखने की शर्त हो तो रूप का यह अनुशासन बुरा न था। कुछ कलापारखी उसे अच्‍छा कहनेवाले थे। फासिज्म उन्‍हें कहीं और दिखाई पड़ता था। वहाँ नहीं जहाँ सचमुच था। ऐसे कलापारखियों में कुछ मार्क्‍सवादी भी थे। स्‍तालिनकाल के रूपवाद से भली-भाँति परिचित। अनुशासन के प्रशंसक! इस प्रकार सौन्दर्यशासत्र कभी-कभी राजनीति को भी इतना ‘सुंदर’ बना देता है कि राजनीतिक आलोचना की दृष्टि धुँधली हो जाती है, धार कुन्‍द पड़ जाता है। जब राजनीति का यह हाल है तो साहित्यिक आलोचना के अंजाम का अंदाजा लगाया जा सकता है।

इसलिए ‘आलोचना की संस्‍कृति’ को ठीक से समझने के लिए संस्‍कृति की आलोचना जरूरी है और संस्‍कृति की आलोचना का पहला चरण है ‘ संस्‍कृतिवाद की आलोचना।

संस्‍क‍ृतिवाद एक ऐसी विचारधारा है जो जीवन की सारी समस्‍याओं को समेटकर संस्‍कृति की समस्‍या बना देती है क्‍योंकि उसके अनुसार जीवन की तमाम समस्याएँ सिर्फ संस्‍कृति की समस्‍याएँ हैं। किन्तु संस्‍कृतिवाद की विचारधारा यहीं नहीं रुकती। इसके बाद वह संस्‍कृति की अवधारणा को भी संकुचित करती है। इस विचारधारा में अमूर्तन की विशेष भूमिका होती है। संस्‍कृति एक जीते-जागते क्रिया-व्‍यापार की जगह कुछ अमूर्त मूल्‍यों की तालिका बनकर रह जाती है, देश-काल से परे कुछ ऐसी विशेषताएँ जो सार्वभौम और शाश्‍वत हैं। संस्‍कृतिवाद की संस्‍कृति ऐसी अनूठी वस्‍तु है जिसे किसी मानव-समाज ने नहीं बनाया, बल्कि जो मानव-समाज को बनाती है। ”मोहि तौ मेरो कवित्त बनावत” की तरह। संस्कृतिवाद की विचारधारा के प्रभाव को नष्‍ट करने के लिए संस्‍कृति के इस रहस्‍यवाद और अमूर्तन का विरोध आवश्‍यक है।

किन्तु संस्‍कृतिवाद का विरोध करते समय कुछ गलतियों के प्रति सतर्क रहना जरूरी है। आवेश में कभी-कभी संस्‍कृति मात्र का विरोध होने लगता है। संस्‍कृति के अमूर्तन का विरोध जरूरी है किन्तु उसकी सापेक्ष स्‍वायत्तता को नकारना गलत है। मार्क्‍सवादी आलोचक संस्‍कृति के सामाजिक आधार पर जोर देने के लिए संस्‍कृति को आ‍र्थिक आधार मात्र बनाकर रख देते हैं; यह मार्क्‍सवाद नहीं, मार्क्‍सवाद का मजाक है। किसी देश की आर्थिक स्थिति के सुधर जाने से अपने आप सांस्‍कृतिक उत्‍थान नहीं हो जाता। आर्थिक स्थिति पर अंशत: निर्भर रहने के बावजूद संस्‍कृति की सत्ता अंशत: स्‍वायत्तभी होती है और इस स्‍वायत्त क्षेत्र के विकास के लिए अलग से भी प्रयास करने की आवश्‍यकता है। यहाँ तक कि कभी-कभी सांस्‍कृतिक पिछड़ापन स्‍वयं आर्थिक विकास में बाधक बन जाता है।

यहीं प्राथमिकता का प्रश्‍न उठता है। पहले संस्‍कृति या पहले आर्थिक और राजनीतिक उत्‍थान? सच पूछिए तो यह प्रश्‍न ही गलत ढंग से उठाया गया है। एक निश्चित ऐतिहासिक स्थिति की विशिष्‍टता के अनुरूप यह सामान्‍य प्रश्‍न भी विशिष्‍ट रूप से सामने आता है। इतिहास की संश्लिष्‍ट प्रक्रिया में प्राथमिकता का प्रश्‍न इतने सामान्‍य रूप में प्रस्‍तुत नहीं होता और न आगे-पीछे के ढंग से वह हल ही किया जाता है। मिसाल के लिए उपनिवेशवादी दौर में जब राजनीतिक स्‍वाधीनता भारत का प्रथम लक्ष्‍य था, सारे सांस्‍कृतिक प्रयास इस बिना पर मुल्‍तवी नहीं रखे गए कि आजादी मिल जाने के बाद ही संस्‍कृति की ओर ध्‍यान दिया जाएगा। आजादी के इंतजार में यदि डेढ़-दो सौ वर्षों तक सारे सांस्‍कृतिक कार्य ठप्‍प रखे गए होते, स्‍वाधीन भारत कितनी मूल्‍यवान सांस्‍क‍ृतिक विरासत से वंचित रह जाता। यही नहीं बल्कि आजादी के बाद क्षतिपूर्ति असंभव होती। यह कहना कि संस्‍कृति एक दिन में नहीं बनती- संस्‍कृतिवाद नहीं है।

इसी प्रकार का एक भ्रम यह भी है कि संस्‍कृति का बुद्धि-विलास विकसित और समृद्ध यूरोप, अमेरिका तथा जापान को मुबारक, एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के देश फिलहाल संस्‍कृति की ऐयाशी में अपने सीमित साधनों का अपव्‍यय नहीं कर सकते। एक तो इस कथन के पीछे स्‍पष्‍टत: संस्‍कृति की अत्‍यन्‍त सीमित धारणा निहित है। दूसरे, विकास में संस्‍कृति की सक्रिय भूमिका की कोई पहचान नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तथाकथित तीसरी दुनिया के देशों ने सांस्‍कृतिक चेतना का विकास करके ही साम्राज्‍यवादी शिकंजे से अपनी राजनीतिक स्‍वाधीनता प्राप्‍त की। राष्‍ट्रीय चेतना के विकास के बिना स्‍वाधीनता की प्राप्ति असंभव थी, और कहने की आवश्‍यकता नहीं कि राष्‍ट्रीय चेतना वस्‍तुत: एक सांस्‍कृतिक चेतना है। स्‍वाधीनता-प्राप्ति के बाद इस सांस्‍कृतिक चेतना की आवश्‍यकता कम हुई नहीं है। आर्थिक विकास और जनतांत्रिक राजनीति का विस्‍तार करने के साथ ही अपनी स्‍वाधीनता की रक्षा निश्‍चय ही प्रधान आवश्‍यकताएँ प्रतीत होती हैं, किन्तु इन सभी कार्यों को संपन्‍न करने के लिए देश की जनता को सांस्‍कृतिक चेतना से लैस करना भी उतना ही आवश्‍यक है। यदि इस बात पर जोर न दिया गया तो संस्‍कृति का समूचा मैदान ऐसे तत्त्‍वों के हाथ पड़ जाएगा जो किसी-न-किसी तरह संस्कृतिवाद की विचारधारा का ही प्रचार करते हैं। संस्‍कृतिवाद का जवाब अर्थवाद नहीं है; जवाब है संस्‍कृति की ऐसी मूलगामी आलोचना जो आलोचना की संस्‍कृति के मूल अभि‍प्राय का मायाजाल छिन्‍न-भिन्‍न करने में समर्थ हो।

नामवर सिंह
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नामवर सिंह (28/07/1926 – 19/02/2019) हिंदी के शीर्षस्थ शोधकार, समालोचक रहे. ‘कविता के नए प्रतिमान’ और ‘दूसरी परंपरा की खोज’ उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं.

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