मेरे पच्चीस शील

1 min read

मेरी कविता का आधार आस्था है, इस आस्था के पचीस शील हैं जो नीचे लिखे गए हैं।

पहला शील – मैं बहुत अक्लमंद हूँ। मुझ जैसे और भी हैं। बहुत-से ऐसे हैं जो न मुझ जैसे हैं, न मुझ-जैसों जैसे हैं। इसको छिपाने से कोई लाभ नहीं है, न छिपाने से कोई हानि नहीं है; छिपाने से हानि है, न छिपाने से लाभ है।

दूसरा शील – मैं परम स्वतंत्र हूँ। मेरे सिर पर कोई नहीं है। अर्थात् अपने किए के लिए मैं शत-प्रतिशत जिम्मेदार हूँ। अर्थात् मेरे लिए नैतिक होना संभव है।

तीसरा शील – मैं संसार का सबसे महत्त्वपूर्ण प्राणी हूँ। यदि नहीं हूँ तो आत्म-हत्या के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं है। यही दशा आपकी भी है।

चौथा शील – नितांत अव्यावहारिक होना नितांत ईमानदारी और अक्लमंदी का लक्षण है। समाज में सब तो नहीं, पर काफी लोग ऐसे होने चाहिए। जिस समाज में नितांत अव्यावहारिक कोई नहीं रह जाता, वह समाज रसातल को चला जाता है।

पाँचवाँ शील – मैं अपने को बहुत नहीं सेटता, क्योंकि यह मेरा कर्त्तव्य नहीं है। लेकिन आपका कर्त्तव्य है कि मुझे सेटें। इसका प्रतिलोम भी सत्य है।

छठा शील – सर्वोत्तम समाज वह है जिसमें व्यक्ति के केवल अधिकार ही अधिकार हों, कर्त्तव्य कोई नहीं। अर्थात् जो भी मैं चाहूँ वह मुझे मिल जाय, लेकिन जो मैं देना न चाहूँ वह मुझे देना न पड़े।

सातवाँ शील – कविता के क्षेत्र में केवल एक आर्य-सत्य हैः दुःख है। शेष तीन राजनीति के भीतर आते हैं।

आठवाँ शील – कविता को राजनीति में नहीं घुसना चाहिए। क्योंकि इससे कविता का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, राजनीति के अनिष्ट की संभावना है।

नौवाँ शील – शेली महान् क्रांतिकारी कवि था, इसलिए उसको चाहता हूँ; लेकिन उसके नेतृत्व में क्रांतिकारी होना नहीं चाहता। बाबा तुलसीदास महान् संत कवि थे, लेकिन वह संसद के चुनाव में खड़े हों तो उन्हें वोट नहीं दूंगा। नीत्शे का ‘जरदुस्त्र उवाच’ सामाजिक यथार्थ की दृष्टि से जला देने लायक है, पर कविता की दृष्टि से महान् कृतियों में से एक है। उसकी एक प्रति पास रखता हूँ और आपसे भी सिफारिश करता हूँ।

दसवाँ शील – कवि अनिर्वाचित मंत्रदाता हो सकता है। निर्वाचित मंत्री हो जाने से कवि का हित और जनता का अहित होने की आशंका है। दोनों ही अवाँछनीय संभावनाएं हैं।

ग्यारहवाँ शील – कविता से समाज का उद्धार नहीं हो सकता। यदि सचमुच समाज का उद्धार करना चाहते हैं तो देश का प्रधानमंत्री बनने या बनाने की चेष्टा कीजिए। बाकी सब लोग हैं।

बारहवाँ शील – इससे पहले कि आलोचक मुझसे पूछे कि समाज का नागरिक होने के नाते आप ऐसा क्यों लिखते हैं, वैसा क्यों नहीं लिखते, मैं आलोचक से पूछता हूँ कि पहले यह सिद्ध कीजिए कि समाज का नागरिक होने के नाते कविता लिखना भी मेरा कर्त्तव्य है।

तेरहवाँ शील – कवि अ-कवियों से अधिक संवेदनशील या अनुभूतिशील नहीं होता। जो कवि इसके विपरीत कहते हैं उनका विश्वास मत कीजिए; वे अ-कवियों पर रंग जमाने के लिए ऐसा कहते हैं। यह संभव है कि कवि की संवेदना का क्षेत्र अ-कवि से कम हो। प्रायः यही होता है।

चौदहवाँ शील – जो मैंने भोगा है वह सब मेरी कविता का विषय नहीं है। कविता का विषय वह होता है जो अब तक की भोगने की प्रणाली में नहीं बैठ पाता। हर कलाकृति ठोस, विशिष्ट अनुभूति से उपजती है और उसका उद्देश्य अनुभूति की सामान्य कोटियों को नए सिरे से परिभाषित करना होता है। परिभाषा विशिष्ट और सामान्य में सामंजस्य का नाम है। बिना सामंजस्य के भोगने में समर्थ होना असंभव है।

पंद्रहवाँ शील – अ-कवि अपनी विशिष्ट अनुभूति और अब तक उपलब्ध सामान्य परिभाषा में असामंजस्य नहीं देखता। कभी दीख भी जाता है तो थोड़ी-सी बेचैनी के बाद वह अनुभूति को जबरदस्ती बदलकर परिभाषा में बैठा लेता है। यह अ-कवि का सौभाग्य है।

सोलहवाँ शील – कवि अभागा है। वह विशिष्ट अनुभूति को बदल नहीं पाता। तब तक बेचैन रहता है जब तक परिभाषा को बदल नहीं लेता। असामंजस्य देखने का काम बुद्धि करती है। परिभाषा बदलने का काम कल्पना करती है। शब्दों में अभिव्यक्ति अभ्यास के द्वारा होती है। यह सब एक निमिष में हो सकता है, इसको एक युग भी लग सकता है; कवि-कवि पर निर्भर है।

सत्रहवाँ शील – कवि की अमरता गलतफहमी पर निर्भर करती है। जिस कवि में गलत समझे जाने का जितना अधिक सामर्थ्य होता है वह उतना ही दीर्घजीवी होता है।

अठारहवाँ शील – सार्थकता बराबर तप नहीं, शब्दाडम्बर बराबर पाप।

उन्नीसवाँ शील – वस्तु-स्थिति यह है कि मेरे बाबा ने जो कहा था वह न मेरे पिता कहते हैं और न मैं कहता हूँ। लेकिन जब मेरे पिता मुझसे कहते हैं कि मेरे बाबा ने क्या कहा था तो वह परंपरा है। जब मैं स्वयं कहता हूँ कि मेरे बाबा ने क्या कहा था तो यह प्रयोग है। यदि मैं कुछ नहीं कह पाता तो न परंपरा है न प्रयोग।

बीसवाँ शील – पश्चिम से छूटना असंभव दीखता है। अध्यात्म के बिना निस्तार नहीं है, यह भी पश्चिम ने कहा है और यह बासी है। अध्यात्म और भौतिकवाद में समन्वय होना चाहिए, यह भी पश्चिम ने कहा है और यह भी बासी है। केवल भौतिकवाद में निस्तार है यह भी पश्चिम ने कहा है लेकिन नया है।

इक्कीसवाँ शील – कविता राग है। राग माया है। माया और अध्यात्म में वैर है। अतः आध्यात्मिक कविता असंभव है। जो इसमें दुविधा करते हैं उन्हें न माया मिलती है न राम। जैसा हाल छायावादियों का हुआ। इससे शिक्षा लेनी चाहिए।

बाईसवाँ शील – मुझसे पहले की पीढ़ी में जो अक्लमंद थे, वे गूंगे थे। जो वाचाल थे वे अक्लमंद नहीं थे। अंग्रेजी ने अक्लमंद बनाया लेकिन गूंगा करके छोड़ा। गांधीजी ने आवाज तो दी लेकिन अक्ल बंधक रखवा ली। बड़ा क्रोध आता है। यह मेरा दुर्भाग्य है।

तेईसवाँ शील – सोचने का काम क्यों सारे देश ने सिर्फ एक आदमी पर छोड़ दिया और स्वयं शरणागत होकर ‘मा शुचः’ का पाठ करने लगा? उस आदमी ने भी शरणागतों को ‘अटेंशन’ और ‘स्टैंड-एट-ईज’ के निर्देश तो दिए, पर यह नहीं बताया कि कब ‘अटेंशन’ कहना चाहिए और कब ‘स्टैंड-एट-ईज’। वह हमारी आकांक्षा को विराट् और विवेक को बौना छोड़कर चला गया। जो बचे हैं वे अटकल से ‘काशन’ बोलते हैं जिससे परेड तो हो सकती है लेकिन लड़ाई नहीं जीती जा सकती।

चौबीसवाँ शील – पचास से ऊपर वय हो जाना अपने आपमें अक्लमंदी का प्रमाण नहीं है। प्रमाण-पत्र मैं दूँगा।

पच्चीसवाँ शील – अवज्ञा परमो धर्मः।

विजयदेव नारायण साही

विजयदेव नारायण साही ( 1924 - 1982 ) हिंदी साहित्य  के नयी कविता दौर के प्रसिद्ध कवि, एवं आलोचक हैं। वे तीसरा सप्तक के कवियों में शामिल थे।

नवीनतम

मेरे मन का ख़याल

कितना ख़याल रखा है मैंने अपनी देह का सजती-सँवरती हूँ कहीं मोटी न हो जाऊँ खाती

तब भी प्यार किया

मेरे बालों में रूसियाँ थीं तब भी उसने मुझे प्यार किया मेरी काँखों से आ रही

फूल झरे

फूल झरे जोगिन के द्वार हरी-हरी अँजुरी में भर-भर के प्रीत नई रात करे चाँद की

पाप

पाप करना पाप नहीं पाप की बात करना पाप है पाप करने वाले नहीं डरते पाप

तुमने छोड़ा शहर

तुम ने छोड़ा शहर धूप दुबली हुई पीलिया हो गया है अमलतास को बीच में जो