नशे की रात के बाद का सवेरा

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कहानी : नशे की रात के बाद का सवेरा

जैसी कहावत है, यह पिछली नशे की रात के बाद का सवेरा था. जब मैं पी के औंधा हो रहा था.

एक ऐसा अनुभव जो हमेशा याद रहता है और जिसके कारण उसे यह इज़्ज़त हासिल हुई है.

लगता था कि जितनी भी शराब मैंने पी है, वह सब मेरे भेजे में जम गई है और अब फट पड़ने को उतावली हो रही है.

मैं उठने भी नहीं पा रहा.

हिल भी नहीं पा रहा, ज़रासा हिलूं तो कनपटी की नसें फड़कने लगती हैं और सिर में गहरा, तेज़ दर्द शुरू हो जाता है.

इतवार का सवेरा था, इसलिए मैं जब तक चाहे बिस्तर में पड़ा रह सकता थाया जब तक मेरी बीवी पड़ा रहने देती.

इसलिए मैंने उठने की तक़लीफ़ से दूर बने रहना और रात के डिनर का जैकेट भी उतारने का फ़ैसला किया.

फिर भी मैंने ठोढ़ी के नीचे उंगली फंसाकर बहुत ही सख़्त कॉलर को ढीला किया, उसकी कमान खींचकर नीचे फेंकी और तकिये में चेहराजमाकर दोबारा सोने की कोशिश की.

कुछ ही क्षण में मेरा दिमाग़ जादुई दरी पर उड़कर पिछली शाम की सुखदायी दुनिया में पहुंच गयाठंडी हरी घास के मैदान में खड़े पेड़ रंगबिरंगी रौशनी में जल उठे, गर्मी की रात की हवा में संगीत की लहरें दौड़ने लगीं, और शराब के नशे में घूमतीफिरती औरतें ज़रूरत सेज़्यादा सुन्दर और आकर्षक लगने लगीं.

यह पांच दम्पतियों की नाचगाने की पार्टी थी.

पुरुष सारे एकदूसरे के मित्र थे.

उनकी पत्नियां भी एकदूसरे की मित्र थीं.

पुरुष ज़्यादातर अपने मित्रों से ज़्यादा उनकी पत्नियों के प्रशंसक थे.

हम यह जानते भी थे लेकिन ग्रुप के नियमों के अनुसार इसको बिलकुल स्वीकार नहीं करते थे. इसके विपरीत हममें रिवाज़ यह बन गयाथा कि पत्नियों की मामूली बातों की भी आलोचना करें और उनके पतियों की प्रशंसा करते नज़र आएं.

यह ग़लत बात थीलेकिन इससे लाभ होता थाऔर हम एकदूसरे के घनिष्ठ बने रहते थे.

मैंने उस दिन तय कर लिया था कि नशा करके रहूंगा.

दरअसल मुझे शराब ज़्यादा प्रिय भी नहीं है, और यह मुझे स्वादिष्ट भी नहीं लगती.

लेकिन हमारे दल में ज़्यादा पीकर उसे बर्दाश्त कर लेना अच्छे आदमी और मर्द होने का सबूत माना जाता था.

मुझे लोकप्रिय होने का गर्व था. मुझे मर्द होने का प्रमाण भी देना ज़रूरी लगता था, क्योंकि पिछले दिनों इसके बारे में सन्देह व्यक्त किएगए थे.

इसलिए मैंने बियर की कई बोतलें ख़ाली कर दीं और मानता रहा कि यह कोई ख़ास बात नहीं है. हमारे दल की किसी भी पार्टी में गिलासपर गिलास ख़ाली करना मर्दानगी की निशानी माना जाता था और मैं इन मर्दों में भी सबसे ऊपर स्थान पाना चाहता था. इसलिए मैंगिलास ख़ाली करता गया. मैंने शराबें भी कई तरह की ढालीं.

जब ज़रूरत से ज़्यादा बियर मेरे पेट में समा गई, तब उसका असर दिखाई पड़ना शुरू हुआ.

मुझे कई दफ़ा पेशाब करने जाना पड़ा.

लॉन के हरेभरे बॉर्डर पर बारबार खड़े होने के बाद मैंने ख़ुद अपने से कहा कि अब बहुत हो गया, अब बस कर.

बुड़ढे, तुझे चढ़ गई है,’ मैंने अपने से कहा. ‘अब ज़्यादा गधापन मत कर. तू जानता है कि ज़्यादा चढ़ गई तो तू एकदम बेकार हो जाएगा. आधा नशा ही अच्छा नशा होता हैयह चीनी कहावत बड़े काम की है. अब तू वह भी नहीं कर सकेगा.’

मैं टेबिल पर वापस लौटा, तो दोस्तों ने मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिया,‘बस ख़त्म, तुम तो बड़ी बातें करते थे,’ कई मेरे ऊपर चढ़ दौड़े तो मैंनेऔर भी पूरी ढालनी शुरू कर दी.

शराब मेरे ऊपर असर दिखाने लगी थी.

लड़कियां हमें सन्देह की नज़र से देख रही थीं. क्या वे सोच रही थीं कि चढ़ गई है?

मैंने तय किया कि नहीं चढ़ी है, यह मैं साबित करके दिखाऊंगा.

इसलिए मैं उनकी और बाक़ी और नशे में धुत्त लोगों की तरफ़ देख कर मुस्कुराया.

उनमें से एक, दुबलासा पीले पड़े चेहरे का लड़का मेरे गले में बांहें डाले जा रहा था और लोगों से कह रहा था कि हमें गुदगुदाएं.

मैंने उससे अपने को छुड़ाया और उसका सिर थपथपाकर यह बताने की कोशिश की कि मैं उसकी हालत समझ रहा हूं. मैं नाचने कीतैयारी करने लगा.

दो कांटिनेन्टल वाल्ज़ करूंगा और पसीने में सब बह जाएगा.

हिलताडुलता मैं फ्लोर पर गया.

मेरा पार्टनर कौन था, यह याद नहीं द्सती था. एक लड़की मुझे बहुत आकर्षक लगने लगी.

वह बराबर मुस्कुराती और हंसती जा रही थी और उसके सफ़ेद चमकते दांत चारों तरफ़ अपनी रौशनी बिखेर रहे थे. वह पीछे की तरफ़सिर झटकती और चन्द्रमा की तरफ़ देखकर हंसने लगती थी. मुझे ख़तरासा लगने लगा.

मैं उसके गालों पर पड़े गड्ढों में अपनी उंगलियां डालना और मुंह पर जानबूझकर फैलाये बालों को सहलाना चाहता था. यह इच्छा मुझ परहावी होने लगी लेकिन मैं इसे रोकने का निश्चय कर चुका था.

मैंने अपने होंठ काटने शुरू किए और जब तक वे फट गए और उनसे ख़ून बहने लगा, तब तक काटता रहा. यह मेरे प्रतिरोध का सबूतथा. तभी नृत्य समाप्त हो गया और मैं अपने साथियों के पास, सही सलामत वापस गया.

अब मैंने किसी और के साथ ज़्यादा सुरक्षित ढंग से नाचने का विचार किया. अब मैं कसरत के लिए नाचूंगा, मनोरंजन के लिए नहीं. मेरीआंखें उपयुक्त साथी की तलाश में चारों तरफ़ घूमने लगीं. वे सबसे अनुपयुक्त व्यक्ति पर जाकर टिकीं.

वह ख़ास सुन्दर नहीं थी, सिर्फ़ गोरी और गुलगुली थी. पहले वह काफ़ी पतली थी लेकिन उसने बदन पर जगहजगह चढ़ते मांस कोदबाना स्वीकार नहीं किया. उसके कपड़ों का साइज़ वही रहा जो उसके कॉलेज के दिनों में था. उन्हीं चुस्त कपड़ों में वह अपने को ठूंसनेकी कोशिश करती थी. लेकिन उसका मांस था कि बढ़ता ही जा रहा था.

उसकी बल्ब जैसी छातियां छोटीसी कुर्ती के नीचे से उछलती ही रहती थीं. उनकी तरफ़ से नज़रें हटाना आसान नहीं होता था. वह इन परपड़ती मर्दों की नज़रों को देखती महसूस करती सिर नीचे झुकाकर उन्हें ढकने की कोशिश करती थी.

उसकी ठोढ़ी इन दोनों गोलाइयों के बीच टिक जाती और वह शर्मीली दिखने लगती धीजिससे उसके प्रति आकर्षण और भी बढ़ता था. वह कमनीय थी. मैं जानता था कि मुझे उसके साथ नाचना नहीं चाहिए, लेकिन मैं नाचने लगा.

मेरी इच्छाशक्ति उसके कोमल और चुम्बकीय स्पर्श से प्रभावित होने लगी. अगर मैं ख़ुद उसके स्पर्श से दूर रहने का प्रयत्न करता, तो भीउसके शरीर के स्पर्श से बच नहीं सकता था.

इसलिए मैंने उसे ज़्यादा दूर रखना सही नहीं समझा. मैं उसे अपने पास इतना तो ले आया कि उसके गो से दबकर मेरी गर्दन लगें.

मैं पूरी तरह धुंधुआने लगा. जब मैंने पहली दफ़ा नाचना शुरू किया मित्रों ने चेतावनी दी थी कि नाच हिन्द के अनुरूप नहीं है. मैंने उसचेतावनी पर ध्यान दिया था और अपने को कुछ इस तरह बांध लिया था कि हिन्दुस्तानी स्वभाव का यह विरोध ज़्यादा व्यक्त हो.

फिर कई चेतावनियों और अभ्यास के बाद मैंने बालरूम नृत्य की परम्परा के विपरीत दिखाई देते इस नियम को त्याग दिया था. बाद मेंमुझे अपनी यह ग़लती महसूस हुई.

मैंने बहुत पी रखी थी, इसलिए मुझे याद नहीं रहा कि मैंने क्या किया, लेकिन यदि मैं कोई सपना देख रहा होता तो मुझे मालूम है मैंक्या करना चाहता. छोटासा स्ट्रैप जो उसके वक्ष को कसे हुए था उसे मैं खोलकर अपनी पैंट की जेब में रख लेता.

जैसे ही अपने आप मेरा हाथ इस काल्पनिक वस्तु को जेब में रखने के लिए बढ़ा अचानक ही मेरा सपना टूट गया.

मेरा हाथ किसी मुलायम और रेशमी वस्तु पर पड़ायह रूमाल तो हो नहीं सकता था इसके ऊपर सिलाई और लेस लगी हुई थी. मैंनेइसको धीमेसे खींचारेशमी ब्रेज़री थी, उसे मैंने अपने हाथों में उठा लिया. मैं ग़लती तो बिलकुल नहीं कर रहा था.

मैं एकदम परेशान हो गया और माथे पर ठंडा पसीना उतर आया.

मैं क्या नशे में इतना धुत्त हो गया था.

बीवी को पता लगेगा तो वह क्या कहेगी? उसने मुझे चेतावनी दे रखी थी कि वह इस तरह की बेवफ़ाई बर्दाश्त नहीं करेगी. क्या मैंने एकग़लती करके अपना पारिवारिक जीवन तबाह कर दिया था? उसने कई दफ़ा धमकी भी दी थी.

तुम एक बार करोगे, तो मैं सौ बार करूंगी,’ क्या मेरे घर पर उन लोगों का हमला होगा जो मेरे एक स्कोर को 99 से हरा देंगे? नहीं, मेरीपत्नी को यह पता नहीं चलना चाहिए.

मुझे अपनी बीवी की मुझे पुकारती आवाज़ें सुनाई देने लगीं. मैंने झटपट यह चीज़ अपनी जेब में ठूंस ली, और नशे में होने का दिखावाकरते हुए कराहने लगा.

अब उठ भी जाओ,’ उसने ज़ोर से कहा,‘कल रात तुमने जो किया, उसे देखते हुए यह सज़ा सही है.’

उसे कितना और क्या पता चल गया है? यह समझ नहीं पाया. इसलिए मैं फिर कराहा और सिर पकड़कर बाथरूम की तरफ़ चला. मैं वहांअपने रोमांस के सबूत को नष्ट कर दूंगा.

उसे जेब से निकाला और टुकड़े किए. फिर उनका गोलासा बनाकर फ्लश में बहा दिया. अब मैं अपनी पत्नी का सामना कर सकता थाऔर जान सकता था कि वह कितना और क्या जानती है?

मैंने कल रात काफ़ी ज़्यादा पी ली थी, मैंने कहा.

हां, और क्‍या!’उसने झटके से कहा.

क्या मैंने ज़्यादा दुर्व्यवहार किया?’ मैंने सवाल किया.

और क्या!’ उसने दूसरा वार किया.

क्या किया मैंने?’ मैंने जानना चाहा.

जो तुम हमेशा करते हो नशे में. भुगतना मुझे पड़ता है. और तुम कितनी गुण्डागर्दी पर उतर आते हो. मेरी वह कहां हैजो तुमने जेब में रखली थी?’

मेरा सिर दर्द ऐसे ग़ायब हो गया जैसे किसी ने सिर में कील ठोंककर उसे निकाल लिया हो.

मैं बिस्तर पर फिर लेट गया और अपने अधूरे सपने का अन्त देखने लगाजो एक विवाहित आदमी बिना संकोच के कर सकता है.

ख़ुशवंत सिंह
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ख़ुशवंत सिंह (जन्म: 2 फ़रवरी 1915, मृत्यु: 20 मार्च 2014) भारत के एक प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक, उपन्यासकार और इतिहासकार थे। एक पत्रकार के रूप में उन्हें बहुत लोकप्रियता मिली। उन्होंने पारम्परिक तरीका छोड़ नये तरीके की पत्रकारिता शुरू की। भारत सरकार के विदेश मन्त्रालय में भी उन्होंने काम किया। 1980 से 1986 तक वे राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे।

ख़ुशवंत सिंह (जन्म: 2 फ़रवरी 1915, मृत्यु: 20 मार्च 2014) भारत के एक प्रसिद्ध पत्रकार, लेखक, उपन्यासकार और इतिहासकार थे। एक पत्रकार के रूप में उन्हें बहुत लोकप्रियता मिली। उन्होंने पारम्परिक तरीका छोड़ नये तरीके की पत्रकारिता शुरू की। भारत सरकार के विदेश मन्त्रालय में भी उन्होंने काम किया। 1980 से 1986 तक वे राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे।

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