सुपरिया के डार

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सुपरिया के डार
सुपरिया के डार

अलसुबह नींद खुलते कैलेंडर में छुट्टी देख रहा था. सब कुछ बदला पर लाला रामस्वरूप का कैलेंडर आज भी मेरी आवश्यकता है, कमरे में ठीक सामने वाली दीवार पर उसका होना. आते–जाते तिथि देखता. रेनू टोकती भी, छेड़ती भी क्यों न यहाँ अपना रोमांटिक फोटो फ्रेम कर लगवा दे, बेडरूम में पति-पत्नी की फोटो से प्यार और प्रगाढ़ होता है” और मेरे बालों को प्यार से सहलाती हुई किचेन की ओर चाय बनाने चली जाती है.

उसके जाते ही कैलेन्डर देखा तो जाना आज सावन मास की शुक्ल पंचमी है.

यह दिन हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण दिन होता था. बाबा और दादी कितनी तैयारी करते. इस दिन कोई काम नहीं करता. औज़ार वाला काम. नागपंचमी को विशेष पकवान बनता. बटलोई में धीमी धीमी आंच में खीर पकती, चावल में दूध सीझता रहता देर तक, गुलाबी होने तक. अहा! उसकी खुशबू… चौक पूरी जाती, घर के द्वार पर गोबर से नाग बनाएं जाते, उनके मुँह में हरी दूब लगायी जाती.

फ्लैट के इस डोर की जगह मुझे लकड़ी का सांकल वाला दरवाजा कौंध गया, अंदर जहाँ दीवार पर औज़ार सजे थे, आरी, रुखानी. लेंथ मशीन में एक गेंदे की माला .एक कोने में दुधिया लकड़ी, केवडा का पत्ता और लाख. घर का अहम् हिस्सा था यह कमरा. आज इनकी पूजा होती है. पहले पहल हमारे पुश्त जंगलों में रहते थे और आयरा, कुरुआ तथा पैला बनाते थे, ये माप के आधार पात्र होते हैं. फिर रीवा के राजा साहब ने पुश्तों की कला से प्रभावित होकर कुनबे को वही खन्ना टाकीज के पास काला घोड़ा चौराहा में जगह दे दी. पूर्वज जंगल से क़स्बे में आकर बस गए. आज भी रीवा की बसावट वैसी ही है. दादी ने बताया था. हमारा वास्ता जंगल से पड़ता था. जंगल में जंगली जानवरों का भय और साँप का भय भी रहता था. कहावत है न साँप का काटा पानी तक नहीं मांगता. साँप उन्हें न काटे और जीवन रक्षा हो सके अतः नागदेवता को प्रसन्न करने के लिए सारे प्रयोजन होते आ रहे हैं.

आज भी घर में यही हो रहा होगा और झट मैंने फ़ोन लगाया, घर, बाबा को.

बाबा, अपना कइसन हैं ?

हम पंचे निकहा से हैन. तुम सुनावा? हमार बहुरिया कइसन हैं?

अच्छी है, बाबा.

हियाँ कबे आय रहे हो तुम, अबकी अइहा तो चिरहुला चलब.

उनकी आवाज़ सधी हुई थी.

“सब अच्छा तो चल रहा है पर रास्ता वो नहीं है. लगता है रास्ता पैरों के नीचे से खिसक रहा है बाबा” कहना तो चाहता था पर कहता नहीं हूँ .

मेरी आवाज में एक कातर बेकरारी को वो पहचान गए थे.

और फिर इधर उधर की बातचीत के बीच नागपंचमी तो भुला ही गयी.

उन दिनों अमरपाटन से बुआ तो दीदी बनारस से आती थी. दोपहर हम बच्चन की पलटन माई की बगिया में झूला झूलने जाते. सोचते सोचते

मैं वो गीत गुनगुनाने लगा –

हमका देओं न पठाय
जहाँ झूले न मनमोहन
यशोदा दारे गढ़ों हिंडोलों
झूले सखिन के साथ…..

तभी रेनू का आलाप सुनाई पड़ता है – आज छुट्टी है प्लम्बर को बुला लो.

ओह, हाँ जरूर, मैं बेड से बाहर आया, मैंने प्लम्बर को फ़ोन करके घर आने को कहा .

बाबा बताते, उनकी अम्मा खूब कोसती उन्हें, कहती – ए रामसिया खाट में पड़े पड़े जिनगी कैसे काटोगे कछु काम में मन लगाओ.
बाबा सुपारी के बड़े शौकीन थे. वे खाली समय खाट में पड़े-पड़े सुपारी कतरते रहते. सरौता और सुपारी यानि रामसिया.. रामसिया सुपारी की इस सफेद भूरी लहरिया को अपना दिल दे बैठे. उनकी दीवानगी देख उनकी अम्मा उनसे यही काम करवाने लगी. माँ होने के नाते अम्मा को
यही चिंता थी बेटा किसी तरह जीने लायक कमाने लगे.

रामसिया अपनी जवानी में थे, और पड़ोस में रहने वाली मीना, जिसकी देह सुपारी के बिरवे जैसी नाजुक और लहरदार थी, पर लट्टू थे. शायद अम्मा जानती थी. तभी तो गीत रच लिया था और ठप्पे से गाती –

मलिया लगाये सुपरिया का बिरवा /अलग अलग ओखे डार,
ओइठै से निकले दुलहै दुलैरुआ /कतरै सुपरिया के डार
मचियन बैठी माता कौसलया /मालिन बरहन दे
बरजा हो साहेब अपने दुलैरुआ /कतरै सुपरिया के डाल
कुँअना हो तो भाटो रे मालिन /सगरा भटौं न जाए
बालक होय तो बरजों रे मलिन /छैल बरज नहीं जाए …

मतलब वो अपने दुलारे को कैसे समझाए कुआँ हो तो पाटा जा सकता है सागर को कोई बाँध सका है .छोटा बच्चा हो तो उसे समझाया जाए जवान बेटे को कोई क्या समझाए.

अम्मा के बड़बोलेपन व मेलजोल के कारण उनके पास लोग विवाह में प्रयुक्त होने वाली मांगलिक सुपारी भारी मात्रा में फुडवाने आने लगे . कोई भी मांगलिक उत्सव सुपारी के बिना संभव जो नहीं होता.

उस दिन जब पता चला मीना का ब्याह बनारस तय हो गया है, रामसिया गुमसुम हो गए . उन्हें पता था मीना के मन में भी प्यार का बिरवा है. ..इसी उदासी में वो पूरा समय सुपारी को निहारते रहते. उन्ही दिनों उन्हें सुपारी की प्राकृतिक बनावट में गोल मटोल ठुमकती सी मीना दिखी ..दुबली पतली मीना का आगे का रूप और इसी नीरव एकांत में सुपारी को पोला कर, तराश कर उन्होंने बना डाली प्यारी सी सिन्दूर की डिबिया.

मीना के आंगन मंडप छ्वा.

कसक और वेदना के साथ उपहार के तौर पर अम्मा को मीना के लिए सिन्दूर डिबिया बना के दी.. और इस तरह उनके अन्दर का कलाकार जाग गया..कलाकृति में जिंदगी ढालने लगे. जो भी कलाकृति बनती जीवन से भरी होती. सुपारी से कलाकृति बनाने वाला कलाकार. राष्ट्रीय पुरुस्कार से सम्मानित कलाकार का सफ़र तय किया लेकिन उनकी चिंता है एक समय बाद सुपारी के ये खिलौने भुरभूरा जाते है.यह जानते हुए भी कि मानव जीवन भी पानी का बुलबुला है वो अपनी कृतियों की लम्बी उम्र चाहते, अपनी उम्र से लम्बी .

जो भी सज्जन सुपारी फुडवाने आते उन्हें रामसिया जी अपनी तरफ से उपहार के तौर पर सिन्दूर की डिबिया दे देते तो फिर क्या था जहाँ जहाँ दुल्हन गयी, उसके साथ साथ सिन्दूर की डिबिया भी गयी. इस सुपारी की डिबिया ने कलकत्ता,पटना, लखनऊ, कश्मीर,नैनीताल में तहलका मचा दिया. इस डिबिया ने नाम,शोहरत, पैसा सब दिया पर एक कलाकार के मन का क्या? वो भला कहाँ ठहरते? उन्हें अपने को उजागर करने का जरिया मिल गया. इधर आदतन शादी ब्याह बच्चे होते गए. बड़ी कलात्मकता से सब निर्वहन करते चले गए. वास्तव में देखा जाएतो मेरे बाबा रामसिया मेरे मात-पिता बंधू सखा सब थे. मेरे हीरो.. .इस कला की एक एक बारीकी को बिना सीखे ही मैं कब सीख गया पता नहीं.छुटपन से ही जब जब शिल्प मेला लगता वो मुझे साथ ले चलते. प्रायः चौदह वर्ष से ही में मोम और पोलिश का काम करने लगा था. बाबा ने बुआ और दीदी को भी इस कला में निपुण किया था जबकि उनके समय में लडकियाँ शिल्पकारी करे यह बड़ी क्रांतिकारी बात थी. “यह नाजुक काम स्त्रियों की कल्पना को साकार कर पाए इससे खूबसूरत और क्या होगा. उनके हाथों में एक खास नजाकत कुदरती होती है’’, बाबा कहते.

मुझे एक जरूरी एक्सप्लेनेशन तैयार करना था, अपना लैपटॉप खोल के बैठ गया. पसीने से तर-बतर एकाग्रचित, धैर्य, आत्मविश्वास से भरे “बाबा के हाथ” के कई जादुई करिश्मे स्क्रीन पर चमक उठे. मुझे लगा मुझे “वो हाथ” होना था. इन पांच सालो में अपने बाबा की सृजनशक्ति की एक वैभवशाली थाती की पुकार मुझे मुंबई की भीड़ में स्पष्ट सुनाई देने लगी. जब दिन भर की थकान के बाद हर रोज़ सोने से पहले देर रात जब इस सवाल से जूझता रहता हूँ तब तक रेनू को उसकी नींद संभाल लेती है.

अब रेणु से क्या बताऊँ जब मैं रीवा में था, मोम से सुपारी की घिसाई व रंगने का काम मैं ही करता. जब दिल रमने लगा तभी कैम्पस में मुंबई के लिए चयनित हो गया. उन्हीं दिनों सामने पतंग बेचने वाला टुन्नू भी बाबा से सुपारी से सिन्दूर की डिबिया बनाना सीख गया. बिछिया नदी के किनारे पतंगबाजों की होड़ ही अब कहाँ बची ? बसावट फैलती जा रही है और पतंग का शौक रखने वालो की इच्छा सिकुड़ती जा रही है. बाबा ने मेरी दीदी को भी सिखाया था, दीदी तो घर गृहस्थी में इसे साध नहीं पाई पर टुन्नू कलाकार बन गया, विभिन्न आमंत्रण में बाबा के साथ वो भी मेले मेले जाता. जहाँ वो देश विदेश के कलाकारों से मिलते.

बाबा ने शिल्पकारी में नए नए प्रयोग किए. इस बार बनाया शिव जी का मंदिर, चार खम्ब में टिका गुम्बद व बीचोंबीच शिवजी की पिंडी. गणेशजी की विभिन्न आकृति. ताजमहल. रीवा में नवास्ता फैक्ट्री में दूर दराज़ के अफसर थे वो इसके ख़ास कद्रदान थे. अपनी इस कला में वह चारों प्रकार की सुपारी का प्रयोग करने लगे. मोरा सुपारी आकार में सबसे बड़ी, मंगरोली सुपारी मोरा से छोटी, पूजावाली सुपारी मंगरोली से छोटी, बम्बइया सुपारी आकार में सबसे छोटी होती. छुटपन में जब दोस्त खेलने पुकारते, मैं अपने बाबा के छोटे से कमरे में देखता, सुपारी को कैसे लेंथ मशीन से लगे सांचे में फिट करके हांथों से घुमा घुमा कर तराशा जाता, लच्छेदार बुरादा गिरता और सुपारी मनचाहा आकार लेने लगती, कान बनता , मुकुट बनता, पंख बनता और कितना बारीक और आंख गडा कर काम करना होता. यही मेरा खेल होता.

प्लम्बर आ गया था. उसने अपने औजार निकाले और नल को स्पेंडल लगा कर दुरस्त किया. लगातार बूँद बूँद रिसता पानी बंद हो गया था. बातो ही बातों में मैंने उससे उसकी कमाई के बारे में जानना चाहा. मुंबई में बांद्रा जैसी जगह में यह प्लम्बर आसानी से सत्तर से अस्सी हज़ार महीना कमा लेता था. उसे पैसे दे कर विदा किया. निरुपयोगी डिग्री की बजाए हुनर से लैस यह युवा मुझे भला लगा ऐसा मैंने रेनू से कहा. वह बिना सुने ही चली गयी.

रेनू थोड़ी देर ठहरे तो उससे कह दूं पर घर के कामों ने उसे जकड रखा है. कैसे कहूँ कल जब लोग मुझे ऑफिस में प्रमोशन की बधाइयाँ दे रहे थे मैं मन ही मन सोच रहा था यह जिंदगी लॉजिकल नहीं लगती.

मैंने अपने पिता और बाबा में हमेशा अबोलापन महसूस किया था, पिता की असमय मृत्यु होने तक. मैं रात को जब अपने बाबा से कहानी सुनाने की जिद करता तो एक ही कहानी सुनाते, लकडहारे वाली….’एक लकडहारा था जो कंधे पर कुल्हाड़ी लिए घर से दूर लकड़ी काटने जाता था. उसे बेचकर जो थोड़े बहुत पैसे मिलते उसी से उसकी रोजीरोटी के साधन जुटते. एक दिन उसकी कुल्हाड़ी हाथ से छूटकर तालाब में जा गिरी. तालाब गहरा था बेचारा रोने लगा . भगवान को उस पर तरस आया और सोने की कुल्हाड़ी दिखाई और लेने का आग्रह किया पर उसने अपनी लोहे की कुल्हाड़ी ही चाही’

इस कहानी को याद कर एयर कंडीशन रूम में भी मेरे पसीने छूट गए. मैं भी तो सोने–चांदी के लालच में मुंबई चला आया.
बाबा की एक एक कलाकृति आँखों के सामने झिलमिलाने लगी. मंदिर का परिसर जिसमें पशु – पक्षी निडर होकर विचरण कर रहे हैं. मृग के कान खड़े है तो चिड़िया की फुनगी सजीली है. मैंने पूछा था ‘‘ इसमें चिड़िया और हिरन एक साथ जुड़े क्यों है ?’’ बाबा ने सवाल का जवाब नहीं दिया था. मैं उनकी सीमित में असीमित की कल्पना का भी गवाह रहा हूँ. वो ताजमहल का प्रतिरूप जिसमे संगमरमर में की गयी नक्काशी का आभास सुपारी के रेशे से लगता हैं. बाबा बड़े गर्व से मुझे बताते “जैसे एक आदमी का चेहरा दूसरे से नहीं मिलता वैसे ही एक कलाकृति की दूसरी कलाकृति नहीं बन सकती. हर सुपारी की बनावट एक दूसरे से अलग होती है. सुपारी का हर रेशा अपने में विशिष्ट होता है .”
मैंने अपने आप से कहा मुझे अपने जीवन की मीनिंग चाहिए थी, मिल गयी.

मैं सारी दुनिया को बतला देना चाहता हूँ.

मैंने रेनू को पुकारा,

रेनू sss

क्या है ? उसने कहा.

कुछ नहीं. मैंने कहा – वो पलट कर जाती, उसके पहले उसे मैंने अपने सीने में भींच लिया.

श्रद्धा श्रीवास्तव

श्रद्धा श्रीवास्तव भोपाल से हैं। आपकी रचनाएँ समय समय पे देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। इन दिनों आप भोपाल में अध्यापन कर रही हैं। आपसे shraddha.kvs@gmail.com पे बात की जा सकती है।

श्रद्धा श्रीवास्तव भोपाल से हैं। आपकी रचनाएँ समय समय पे देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। इन दिनों आप भोपाल में अध्यापन कर रही हैं। आपसे shraddha.kvs@gmail.com पे बात की जा सकती है।

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