पुराने ख़ुदा

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कहानी : पुराने ख़ुदा कृष्ण चंदर कहानी

मथुरा के एक तरफ़ जमुना है और तीन तरफ़ मंदिर, इस हुदूदअर्बआ में नाई, हलवाई, पांडे, पुजारी और होटल वाले बस्ते हैं. जमुना अपना रुख़ बदलती रहती है. नएनए आलीशान मंदिर भी तामीर होते रहते हैं. लेकिन मथुरा का हुदूदअर्बआ वही रहता है, उसकी आबादी की तशकील और तनासुब में कोई कमी बेशी नहीं हो पाती. सिवाए उन दिनों के जब अष्टमी का मेला मालूम होता है, कृष्ण जीके भगत अपने भगवान का जन्म मनाने के लिए हिन्दोस्तान के चारों कोनों से खिंचे चले आते हैं. उन दिनों कृष्ण जी के भगत मथुरा परयलग़ार बोल देते हैं, और मद्रास से, कराची से, रंगून से, पिशावर से, हर सम्त से रेल गाड़ियां आती हैं और मथुरा के स्टेशन पर हज़ारों जातरी उगल देती हैं, जातरी समुंदर की लहरों की तरह बढ़े चले आते हैं और मंदिरों घाटों, होटलों और धर्मशालाओं में समा जाते हैं. मथुरा में कृष्ण भगतों के इस्तक़बाल के लिए पंद्रहबीस रोज़ पहले ही तैयारियां शुरू हो जाती हैं. मंदिरों में सफ़ाई शुरू होती है. फ़र्श धुलाए जाते हैं. कलसों पर धात पालिश चढ़ाया जाता है, ज़रकार पंगोड़े और झूले सजाये जाते हैं, दीवारों पर क़लई और रंग होता है. दरवाज़ों पर गुलबूटे बनाए जाते हैं. दुकानें राधाकृष्ण जी की मूर्तियों से सजाई जाती हैं. हलवाई पूरीकचौरी के लिए बनास्पती घी के टीन इकट्ठे करते हैं. होटलों के किराए दुगने बल्कि सहगुने हो जाते हैं. धर्म शालाएं चूंकि ख़ैराती होती हैं इसलिए उनके मैनेजर एक कमरे के लिए सिर्फ़ एक रुपया किराया वसूल करते हैं. किसान लोग जवान ख़ैराती धर्मशालाओं में ठहरने की तौफ़ीक़ नहीं रखते. उमूमन जमुना केकिसी घाट पर ही सो रहते हैं, घाट चूंकि पुख़्ता ईंटों के बने होते हैं, उस के लिए घाट मुंतज़िम सोने वाले जात्रियों से एक आना फी वसूलकर लेते हैं और असल घाट पर सोने के लिए एक आने का तावान बहुत कम है. कनार जमुना, सर पर कदम की परछाईयां, जमुना की लहरों की मीठीमीठी लोरियां, ठंडी ठंडी हवा. तारों भरा आसमान और मंदिरों के चमकते हुए कलस. जब जी चाहा सो रहे, जब जी चाहा उठ कर जमुना में डुबकियां लगाने लगे. एक आने में दो मज़े, इस पर भी बहुत से किसान लोग घाट के ग़रीब मुंतज़िमों को एक आना किराया भी अदा करना नहीं चाहते और घाट पर सोने और जमुना पर नहाने के मज़े मुफ़्त में लूटना चाहते हैं. इन्सान की फ़ित्री कमीनगी..!

जन्म अष्टमी से दो रोज़ पहले मैं मथुरा में पहुंचा, मथुरा के बाज़ार गलियां और मंदिर जात्रियों से खचाखच भरे हुए थे और जात्रियों के रेवड़ों को मुख़्तलिफ़ मंदिरों में दाख़िल कर रहे थे, उन जात्रियों की शक्लें देखकर मुझे एहसास हुआ कि मथुरा में हिन्दोस्तान भर की बूढ़ी औरतें जमा हो गई हैं, बूढ़ी औरतें माला फेरती हुईं और लाठी टेक कर चलते हुए मर्दखांसती हुई, घटिया की मारी हुई रअशा बरअनदाम मख़लूक़ जो यहां अपने गुनाह बख्शवाने की उम्मीद में आई थी. जितनी बदसूरती यहां मैंने एक घंटे के अर्से में देख ली, उतनी शायद मैं अपनी सारी उम्र में भी देख सकता. मथुरा का यह एहसान मैं क़ियामत तक नहीं भूल सकता.

मथुरा पहुंचते ही सबसे पहले मैंने अपने रहने के लिए जगह तलाश की, होटल वालों ने बालकोनियां तक किराये पर दे रखी थीं और उनकी खिड़कियां, दरवाज़ों और बालकोनियों पर जा बजा जात्रियों की गीली धोतियां हिल्लोलें लहराती दिखाई देती थीं. धर्म शालाएं जात्रियों से भड़के छतों की तरह भरी हुई थीं. कोई मंदिर बंगालियों के लिए वक़्फ़ था तो कोई मद्रासियों के लिए, किसी धर्मशाला में सिर्फ़ नंबूदरी ब्रह्मणों के लिए जगह थी तो किसी में सिर्फ़ कायस्थ ठहर सकते थे. इस सराय में अग्रवालों को तर्जीह दी जाती थी, तो दूसरी सराय में सिर्फ़ अमृतसर के अरडरे ठहर सकते थे. एक धर्मशाला में एक कमरा ख़ाली था. मैंने हाथ जोड़कर पांडे जी से कहा, ‘मैं हिंदू हूं, ये देखिए हाथ पर मेरा नाम खुदा हुआ है. अगर आप अंग्रेज़ी नहीं पढ़ सकते तो चलिए बाज़ार में किसी से पढ़वा लीजिए. ग़रीब जातरी हूं, अपनी धर्मशाला में जगह दे दीजिए, आपका बड़ा एहसान होगा.’ पांडे जी की आंखें ग़लाफ़ी थीं और भंग से सुर्ख़, जनेऊ का मुक़द्दस तागा नंगे पेट पर लहरा रहा था. कमर में रामनाम की धोती थी. चंद लम्हों तक चुपचाप खड़े मुझे घूरते रहे, फिर घिगयाई हुई आवाज़ में जिसमें पान के चूने और कत्थे के बुलबले से उठते हुए मालूम होते थे, बोले, ‘आप कौन गोत हो?’

मैंने झल्लाकर कहा, ‘मैं इन्सान हूं, हिंदू हूं, काला शाह काको से आया हूं.’

नां, नां!’ पांडे जी ने अपना बायां हाथ गौतम बुद्ध की तरह ऊपर उठाते हुए कहा, ‘हम पुछत हैं, आप कौन गौत हो?’

गौत?’ मैंने रुक कर कहा,’मुझे अपनी गौत तो याद नहीं. बहरहाल कोई कोई गौत ज़रुर होगी. आप मुझे फ़िलहाल अपनी धर्मशाला, इस ख़ैराती धर्मशाला में रहने के लिए जगह दे दें, मैं घर पर तार दे कर अपनी गौत मंगवाए लेता हूं.’ ‘नां,नां!’ पांडे जी ने पान की पीक ज़ोर से फ़र्श पर फेंके हुए कहा, ‘हम एसो मानुस कैसो राखें? ना गौत ना जात!’

मैं मथुरा के बाज़ारों में घूम रहा था. फ़िज़ा में कचौरियों की कड़वी बू जमुना के महीन कीचड़ की सडांद और बनास्पती घी की गंदी बॉसचारों तरफ़ फैली हुई थी. मथुरा की ख़ाक जातरियों के क़दमों में थी, उनके कपड़े में थी, उनके सर के बालों में, नाक के नथनों में, हलक़में, मेरा दम घुटा जाता था और जातरी श्रीकृष्ण महाराज की जय के नारे लगा रहे थे. मेरा सर घूम रहा था. मुझे रहने के लिए अभी तककहीं जगह मिली थी. एक पनवाड़ी की दुकान पर मैंने एक ख़ुशपोश ख़ुशरू नौजवान को देखा कि सरतापा बर्राक खद्दर में मलबूस, पान कल्ले में दबाए खड़ा है, आंखों से और चेहरे से ज़हानत के आसार नुमायां हैं. मैंने उसे बाज़ू से पकड़ लिया, ‘मिस्टर?’ मैंने उसे निहायत तल्ख़ लहजे में मुख़ातिब हो कर कहा, ‘क्या आप मुझे जेलख़ाने के सिवा यहां कोई और ऐसी जगह बता सकते हैं जहां एक ऐसा इन्सान जो हिंदू हो, पंजाबी हो, काला शाह काको से आया हुआ और जिसे अपनी गौत का इल्म हो, मेले के दिनों अपना सर छुपा सके?’

नौजवान ने चंद लम्हों के लिए तवक़्क़ुफ़ किया, चंद लम्हों के लिए मुझे घूरता रहा. फिर मुस्कुरा कर कहने लगा, ‘आप पंजाबी हैं ना! इसीलिए आप ये तकलीफ़ महसूस कर रहे हैंदरअसल बात ये है किमाफ़ कीजिएगापंजाबी बड़े बदमाश होते हैं. यहां से लड़कियां अग़वा कर ले जाते हैं…’

और उन लड़कियों के मुताल्लिक़ आपकी क्या राय है जो इस तरह अग़वा हो जाती हैं’, मैंने पूछा. एक दुबलापतला आदमी जिस काक़द बांस की तरह लंबा था और मुंह छछूंदर का सा खद्दर पोश नौजवान की ताईद करते हुए बोला, ‘बाबू साहिब, आप मथुरा की बात क्यों करते हैं. मथुरा तो पवित्र नगरी है. मैं तो बंबई तक घूम आया हूं , वहां भी पंजाबियों को शरीफ़ महलों में कोई घुसने नहीं देता.’

दोचार लोग हमारे इर्दगिर्द इकट्ठे हो गए. मैंने आस्तीन चढ़ाते हुए कहा, ‘क्या आप ने तारीख़ का मुताला किया है?’

जी हां!’ ख़ुशरु नौजवान ने पान चबाते हुए जवाब दिया.

तो आप को मालूम होगा कि पंजाब सबसे आख़िर में अंग्रेज़ों की अमलदारी में आया और छोटी बच्चियों को जान से मार डालने की रस्म जो हिन्दोस्तान के सूबों में राइज थी, पंजाब में सबसे आख़िर में ख़िलाफ़क़ानून क़रार दी गई. अंग्रेज़ों के आने से पहले शरीफ़ लोग अक्सर अपनी लड़कियों को पैदा होते ही मार डालते थे.’

इस से क्या हुआ?’

हुआ ये कि पंजाब में मर्दों और औरतों का तनासुब एक और पांच का हो गया. पांच मर्द और एक औरत, अब बताईए बाक़ी चार मर्द कहां जाएं, मज़हब इस बात की इजाज़त नहीं देता कि हर औरत एक दम चारपांच ख़ाविंद कर सके, जैसा कि तिब्बत में होता है, क्या आप इस बात की इजाज़त देते हैं.’ नौजवान हंसने लगा.

मैंने कहा, ‘पंजाब में लड़कियां कम हैं. पंजाबियों ने दूसरे सूबों पर हाथ साफ़ करना शुरू किया, बंगाल में लड़कियां ज़्यादा हैं. वहां लोग एक बीवी रखते हैं और एक दाश्ता जो उमूमन विधवा होती है, सिंधी और गुजराती मर्द समुंदर पार तिजारत के लिए जाते हैं और अक्सर घरों से कई साल ग़ायब रहते हैं. इसीलिए सिंध में अदम मंडलियां बनती हैं और गुजरात में बकरी के दूध और ब्रह्मचर्य का प्रचार होता है. मर्ज़ एक है, नौईयत वही है, अब आप ही बताईए कि शरीफ़ कौन है और बदमाश कौन? जो हक़ीक़त है आप उसका सामना करना नहीं चाहते. उलट पंजाबियों को कोसते हैं.’ नौजवान बेइख़्तियार क़हक़हा मार कर हंसा, पान गलेसने मोरी में जा गिरा, वो मेरे बाज़ू में बाज़ू डाल कर कहने लगा,’आईए साहिब, मैं आपको अपने घर लिए चलता हूं.’

थोड़े ही अर्से में हम एक दूसरे के बेतकल्लुफ़ दोस्त बन गए, वो एक नौजवान वक़ील था एक क़ामयाब वक़ील, उसका ज़हीन चेहरा, फ़राख़ माथा और मज़बूत ठोढ़ी उसके अज़्मरासिख़ की दलील थे. वो मद्रासी ब्रहमन था. मथुरा में सबसे पहले उसका दादा आया था, कहते हैं कि उसके दादा के किसी रिश्तेदार ने जो मद्रास में एक मंदिर का पुजारी था, किसी आदमी को क़त्ल कर दिया, ठाकुर जी को एक पुजारी के गुनाह के बार से बचाने के लिए मेरे दोस्त के दादा ने एक रात को मंदिर से ठाकुर जी की मूर्ती को उठा लिया और एक घोड़ेपर सवार हो कर मद्रास चल दिया. सफ़र करते करते वो मथुरा आन पहुंचा. यहां पहुंच कर उसकी आत्मा को सुकून नसीब हुआ और उसने ठाकुर जी को एक मंदिर में स्थापित कर दिया. आज उसी दादा का पोता मेरे सामने मंदिर की दहलीज़ पर खड़ा था और मैं उसके गठे हुए जिस्म और चेहरे के तीखे नुक़ूश में उस बूढ़े ब्रहमन के अज़्म और एतिक़ाद की झलक देख रहा था जिसकी तस्वीर उसकी बैठक में आवेज़ां थी. नहाधोकर और खाने से फ़ारिग़ हो कर हम मेले की सैर को निकले, जो गली बाज़ार से विश्राम घाट की तरफ़ जाती है उसमें सैंकड़ों नाई बैठे उस्तरों से जात्रियों के सर मूंड रहे थे. गोल गोल चमकते हुए मुंढे हुए सर उन सफ़ेद छतरियों की तरह दिखाई देते थे जो बरसात के दिनों में ख़ुद बख़ुद ज़मीन पर उग आती हैं, जी चाहता था कि उन सफ़ेद सफ़ेद छतरियों पर निहायत शफ़क़त से हाथ फेरा जाये! इतने में एक नाई ने मेरी आंखों के सामने एक चमकदार उस्तरा घुमाया और मुस्कुरा कर बोला, ‘बाबूजी सर मुंडा लो, बड़ा पुन्न होगा’, मैंने अपने दोस्त से पूछा, ‘ये जातरी लोग सर क्यों मुंडाते हैं’, कहने लगा, ‘दानपुन करने की ख़ातिर. ये लोग अपने मरे हुए अज़ीज़ों की रूहों के लिए दानपुन करना चाहते हैं और इसके लिए सर मुंडाना बहुत ज़रूरी है और यहां ऐसा कौन शख़्स है जिस का अबतक कोई अज़ीज़ या रिश्तेदार मरा हो’, मैंने जवाब दिया, ‘मेरी चंदिया पर पहले ही थोड़े से बाल हैं. मैं इन्हें हज्जाम की दस्त बुर्द से महफ़ूज़ रखना चाहता हूं क्योंकि मैं समझता हूं कि एक बाल जो चंदिया पर है उन बालों से कहीं बेहतर है जो हज्जाम की मुट्ठी में हों’, हमलोग जल्दी जल्दी क़दम उठाते हुए विश्राम घाट पहुंच गए. घाट पर बहुत सी कश्तियां खड़ी थीं और लोग उन पर बैठ कर जमुना जी की सैर के लिए जा रहे थे, हमने भी एक कश्ती ली और तीन घंटे तक जमुना में घूमते रहे. जिनके किनारे पुख़्ता घाट बने हुए थे. कहीं कहीं मंदिरों और धर्मशालाओं की चौ बुर्जियां और कदम के दरख़्त नज़र आ जाते. एक जगह दरिया के के किनारे एक पुराने शिकस्ता महल के बुलंद कंगुरे नज़र आए. इस्तिफ़सार पर मेरे दोस्त ने बताया कि उसे कंस महल कहते हैं. मैंने कहा, ‘तीन चारसौ साल से ज़्यादा पुराना मालूम नहीं होता,’ कहने लगा, ‘हां उसे किसी मरहटा सरदार ने बनवाया था. अब ज़ूद उलएतक़ाद लोगों को ख़ुश करने के लिए ये कह दिया जाता है कि ये उसी कंस का महल है जिसके ज़ुल्मों का ख़ातमा करने के लिए भगवान ने जन्म लिया था.’

मैंने पूछा, ‘किस ज़माने में ज़ुल्म नहीं होते?’ वो हंस कर बोला, ‘अगर यही पूछना था तो मथुरा क्यों आएवो देखो रेल का पुल?… मथुरामें सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत शैय यही रेल का पुल है, मज़बूत जैयद बुलंद’, रेलगाड़ी निहायत पुरसकून अंदाज़ में जमुना के सीने के ऊपर दनदताती हुई चली जा रही थी, कहते हैं कि कृष्ण जी के जन्मदिन को जमुना फर्तमुहब्बत से उमड़ी चली आती थी और जब तक उसने कृष्ण जी के क़दम छू लिए उसकी लहरों का तूफ़ान ख़त्म हुआ. जमुना में अब भी तूफ़ान आते हैं लेकिन इसकी लहरों की है जानी इस रेलगाड़ी के क़दमों को भी नहीं छू सकती जो उसकी छाती पर दनदनाती हुई चली जा रही है. जमुना की सरबुलंदी हमेशा के लिए ख़त्म हो चुकी है.

जब हम वापिस आए तो सूरज ग़ुरूब हो रहा था और विश्राम घाट पर आरती उतारी जा रही थी. औरतें राधे श्याम, राधे श्याम गाती हुई जमुना में नहा रही थीं शंख और घड़ियाल ज़ोर ज़ोर से बज रहे थे, जातरी चढ़ावा चढ़ा रहे थे, और जमुना में फल और फूल फेंक रहे थे. पांडे दक्षिणा संभालते जाते थे और साथ साथ आरती उतारते जाते थे. एक पांडे ने एक ग़रीब किसान को गर्दन से पकड़ कर घाट से बाहर निकाल दिया क्योंकि किसान के पास दक्षिणा के पैसे थे. शायद किसान समझता था कि भगवान की आरती पैसों के बग़ैर भी हो सकती है. विश्राम घाट की निचली सीढ़ियों तक जमुना बहती थी, लेकिन यहां पानी कम था और कीचड़ ज़्यादा था और कीचड़ में सैंकड़ों छोटेमोटे कछवे कुलबुला रहे थे और मिठाईयां और फल खा रहे थे. उनके मुलायम मटियाले जिस्म उन जात्रियों की नंगी खोपरियों की तरह नज़र आते थे जिनके बाल नाइयों ने मूंड कर साफ़ कर दिए थे. राधेकृष्णराधेकृष्ण, जातरी चिल्ला रहे थे. नौबियाहता जोड़े कश्तीयों में बैठे हुए मिट्टी के दिये रोशन कर के उन्हें जमुना के सीने पर बहा रहे थे. जिनके सीने पर इस क़िस्म के सैंकड़ों दीये रोशन हो उठे थे और नौबियाहता जोड़े मसर्रत भरी निगाहों से एक दूसरे की तरफ़ तक रहे थे, हमारे बिल्कुल क़रीब ही एक ज़र्दरु नौजवान लड़की ने मिट्टी के दो दीये रोशन किए और उन्हें जमुना के हवाले कर दिया. देर तक वो वहां खड़ी अपने हाथ अपने से लगाए उन दीयों की तरफ़ देखती रही और हम उसकी आंखों में चमकने वाले आंसूओं की तरफ़ देखते रहे. उस लड़की के साथ उसका ख़ाविंद था, वो ब्याहता मालूम होती थी, फिर इन झिलमिलाते हुए दीयों की लौ को क्यों उसने अपने सीने से चिमटा लिया था, ये लरज़ती हुई शममोहब्बतलड़की ने यकायक मेरे दोस्त की तरफ़ देखा और फिर सर झुका कर आहिस्ताआहिस्ता घाट की सीढ़ियां चढ़ते हुए चली गई. मेरे दोस्त के लब भिंचे हुए थे, रुख़्सारों पर ज़र्दी खूंडी हुई थी, क्या जमुना में इतनी ताक़त थी कि मुहब्बत के दो कांपते हुए शोलों को हमआग़ोश हो जाने दे. ये दीवारें, ये पानी की दीवारें, पैसे की दीवारें, समाज, ज़ात पात और गौत की दीवारें..! मेरा दिल ग़ैर मामूली तौर पर उदास हो गया और मैंने सोचा कि मैं कल मथुरा से ज़रूर कहीं बाहर चला जाऊंगा. बृंदाबन में या शायद गोकुल में, जहां की सादा और पाक साफ़ फ़िज़ा में मेरे दिल को इत्मिनान नसीब होगा. बृंदाबन में बन कम और पक्की गलियां और खुली सड़कें ज़्यादा थीं, बृंदाबन के आलीशान मंदिरों की वुसअत और अज़मत पर महलों का धोका होता था. राजा मान सिंह का मंदिर, मीरा का मंदिर बाहर इमारत में कृष्णजी की मूर्ती मौजूद थी, हर जगह पांडे मौजूद थे, अंग्रेज़ी बोलने वाले पढ़े लिखे गाइड, पहले लोग मंदिरों में बेखटके चले जाया करते थे, अब भगवान ने गाइड रख लिए थे, ख़ुदा वही पुराने थे. लेकिन जदीद मज़हब के सारे लवाज़मात से बहरावर, आख़िर ये नई तहज़ीब भी तो उन्हें की बनाई हुई थी.

बृंदाबन के एक मंदिर में मैंने देखा कि एक बहुत बड़ा हाल है जिसमें सात आठ सौ साधू हाथ में खड़तालें लिए एक साथ गा रहे थे, राधेश्याम , राधे श्यामलेफ़्ट राइट, लेफ़्ट राइटबाक़ायदगी तंज़ीम, अंधापन तहज़ीब और ताक़त के हज़ारों राज़ उस रिक़्क़त अंगेज़ नज़्ज़ारे में मस्तूर थे, हररोज़ सैंकड़ों बल्कि हज़ारों जातरी इस मंदिर में आते थे और बेशुमार चढ़ावा चढ़ता था, सुना है कि इन अंधे साधुओं को सुबह शाम दोनों वक़्त खाना मिल जाता था और एक पैसा दक्षिणा का, बाक़ी जो मुनाफ़ा होता, वो एक लहीम शहीम पांडेकी तिजोरी में चला जाता, एक और मंदिर में भी मैंने ऐसा ही नज़ारा देखा, फ़र्क़ ये था कि यहां अंधे साधुओं की बजाय बेकस और नादार औरतें कृष्ण भगवान की स्तुति कर रही थीं. दिनभर स्तुति करने के बाद उन्हें भी वही राशन मिलता था जो अंधे साधुओं के हिस्से में आता था. यानी दो वक़्त का खाना और एक पैसा दक्षिणा का. उन अंधे साधुओं और औरतों के सर मुड़े हुए थे. जिन्हें देखकर मुझे विश्राम घाटके जातरी और जमुना के कीचड़ में कुलबुलाते हुए कछवे याद आ गए. मज़हब ने मंदिरों में फ़ैक्ट्रियां खोल रखी थीं और भगवान को लोहे से भी ज़्यादा मज़बूत सलाख़ों के अंदर बंद कर दिया था, हर मंदिर में हर एक जातरी को ज़रूर कुछ कुछ देना पड़ता था, बाज़ दफ़ा तो एक ही मंदिर में मुख़्तलिफ़ जगहों पर दक्षिणा रेट मुख़्तलिफ़ था. सीढ़ियों को छू ने के लिए एक आना, मंदिर की चौखट तक आने के लिएचार आने. मंदिर का किवाड़ अकसर बंद रहता था और एक रुपया देकर जातरी मंदिर के किवाड़ खोल कर भगवान के दर्शन कर सकता, कई एक मंदिर ऐसे थे जो साल में सिर्फ़ एकबार खुलते थे और कोई बड़ा सेठ ही उनकी बोहनी कर सकता था और बहुत सा रुपया अदा करके मंदिर के किवाड़ खोल सकता था. तवाइफ़ीयत हमारे समाज का कितना ज़रूरी जुज़ु है. इस बात का एहसास मुझे ऐसे मंदिरों हीको देखकर हुआ. गोकुल में जमुना के किनारे तीन औरतें रेत पर बैठी रो रही थीं, मारवाड़ से कृष्ण भगवान के दर्शन करने को आई थीं, ज़ेवरों में लदीफंदी एक साधू महात्मा ने उन्हें अपनी चिकनी चुपड़ी बातों में फंसा लिया और ज्ञानध्यान की बातें करते करते उन्हें मुख़्तलिफ़ मंदिरों में लिए फिरे, और जब ये मारवाड़ी औरतें गोकुल में माखन चोर कन्हैया का घर देखने आईं तो ये महात्मा भी उनके हमराह हो लिए, औरतें जमुना में स्नान कर रही थीं और साधू किनारे पर उनके ज़ेवरों और कपड़ों की रखवाली कर रहा था. जब औरतें नहाधो कर घाट से बाहर निकलीं तो महात्मा जी ग़ायब थे, औरतें सर पीटने लगीं, कृष्ण जी अगर माखन चुराते थे तो साधूमहात्मा ने अगर चंद ज़ेवर चुरा लिए तो कौन सा बुरा काम किया. लेकिन महात्मा की ये तकल्लुफ़ उन बेवक़ूफ़ औरतों की समझ में आती थी और वो जमुना की गीली रेत पर बैठी महात्मा जी को गालियां दे रही थीं. बहुत से लोग उनके आसपास खड़े थे और वो तरह तरह की बातें कर रहे थे, ‘जी बड़ा ज़ुल्म हुआ है इन ग़रीब औरतों के साथ…’

भला ये घर से ज़ेवर लेकर ही क्यों आईं? ‘अपनी इमारत दिखाना चाहती थीं. अब रोना किस बात काअजी साहिब शुक्र कीजिए उनकी जान बच गई. अब कल ही मथुरा में एक पांडे ने अपने जजमान और उसकी बीवी को अपने घर ले जाकर क़त्ल कर दिया. जजमान का नयानया ब्याह हुआ था. बीवी के पास साठसत्तर हज़ार का ज़ेवर थाकिसी मद्रासी जागीरदार का लड़का था जी, इकलौता लड़का थाउसके बाप को पुलिस ने तार दिया है, ख़्याल तो कीजिए कैसा अंधेर मच रहा है इस पवित्र नगरी में.’

मथुरा में लोक से न्यारी! बहुत रात गए मैं और मेरा दोस्त जमुना के उस पार खेतों में घूमते रहे. जन्म अष्टमी रात थी, फूंस के झोंपड़ियों में जिनमें ग़रीब मज़दूर और किसान रहते थे, मिट्टी के दिये रोशन थे और जमुना के दूसरे किनारे घाटों पर बिजली के क़ुमक़ुमे और ब्रह्मणोंके क़हक़हों की आवाज़ें फ़िज़ा में गूंज रही थीं. फूंस के झोंपड़ों के बाहर मरियल सी फ़ाक़ाज़दा गायें बंधी थीं और नीम ब्रहना लड़के ख़ाक में खेल रहे थे. कुवें की जगत पर एक बूढ़ी औरत आहिस्ताआहिस्ता डोल खींच रही थी. दो बड़ी बड़ी गागरें उसके पास पड़ी थीं. कुवें से आगे आम के दरख़्तों की क़तार थी जो बहुत दूर तक फैलती हुई चली गई थी. आम के दरख़्त और आंवले के पेड़ और खिरनी के मुदव्वर छतनारे, यहां गहरा सन्नाटा छाया हुआ था. हवा में एक हल्की उदास सी ख़ुशबू थी और सितारों की रोशनी ऐसी जिसमें सपेदी के बजाय स्याही ज़्यादा घुली हुई थी जैसे ये रोशनी खुल कर हंसना चाहती है, लेकिन शाम की उदासी को देख कर रुक जाती है. मेरे दोस्त ने आहिस्ते से कहा, ‘मैं और वो कई बार इन खिरनी के मुदव्वर सायों में एक दूसरे के हाथ के हाथ में दिए घूमते रहे हैंकितनी ही जन्मअष्टमियां इस तरह गुज़र गईंऔर आज…!’ मैं ख़ामोश रहा, ‘चंद दिन हुएमेरा दोस्त कह रहा था, ‘मुझे क़त्ल के एक मुक़द्दमे में पेश होना पड़ा. क़ातिल को मक़तूल की बीवी से मुहब्बत थीऔर जब उसे फांसी का हुक्म सुनाया गया तो क़ातिल किसान ने जिन हसरत भरी निगाहों से अपनी महबूबा की तरफ़ देखा, उन निगाहों की वारफ़्तगी और गुरस्नगी अभी तक मेरे दिल में तीर की तरह चुभी जाती है. वो दोनों बचपन से एक दूसरे को चाहते थे.

सालहा साल एक दूसरे से प्यार करते रहे. फिर लड़की के मांबाप ने उसकी शादी किसी दूसरी जगह कर दीये जमुना पर लोग मुहब्बतके दिये किस लिए जलाते हैं? बड़े हो कर अपने ही बेटों और बेटियों के गले पर किस तरह छुरी चलाते हैंवो किसान औरत अब पागलखाने में है?’

मैंने कहा, ‘मुहब्बत भी अक्सर बेवफ़ा होती है. राधा को कृष्ण से इश्क़ था लेकिन राधा और कृष्ण के दरमियान बादशाहत की दीवार गई.’

उसने कहा, ‘शायद तुम्हें राधा और कृष्ण की मुहब्बत का अंजाम मालूम नहीं.’

नहीं…’ वो चंद लम्हों तक ख़ामोश रहा, फिर आहिस्ता से कहने लगा… ‘कृष्ण जी ने बृंदाबन की गोपियों से वादा किया था कि वो एकबार फिर बृंदाबन में आएंगे और हर एक गोपी के घर का दरवाज़ा तीन बार खटखटाएंगे, जिस घर में रोशनी होगी और जो गोपी दरवाज़ा खटखटाने पर उनका खैरमक़दम करेगी, वो उसी इश्क़ को सच्चा जानेंगेइस बात को कई बरस गुज़र गए. एक अंधयारी तूफ़ानी रात में जब बिजली कड़क रही थी और बारिश मूसलाधार बरस रही थी किसी ने बृंदाबन के दरवाज़े खटखटाने शुरू किए स्याह लिबादे में लिपटा हुआ अजनबी हर एक मकान पर तीन बार दस्तक देता, और फिर आगे बढ़ जाता….लेकिन सब मकानों में अंधेरा था. सब लोग सोए पड़े थे. किसी ने उठ कर दरवाज़ा खोला. अजनबी नाउम्मीद हो कर वापस जाने वाला था कि उसने देखा कि दूर एक झोंपड़े में मिट्टी का दिया झिलमिला रहा है. वो उस झोंपड़ी की तरफ़ तेज़तेज़ क़दमों से बढ़ा. लेकिन उसे दरवाज़ा खटखटाने की ज़रूरत भी न महसूस हुई क्योंकि दरवाज़ा खुला था. झोंपड़े के अंदर दिये की रोशनी के सामने राधा बैठी थी. अपने महबूब के इंतिज़ार में, राधा के सर के बाल सफ़ेद हो चुके थे, चेहरे पर ला तादाद झुर्रियां. कृष्ण जी ने गुलूगीर आवाज़ में कहा, राधा मैं गया हूं. लेकिन राधा ख़ामोश बैठी रही. दिये की लौ की तरफ़ तकती हुई. राधा मैं गया हूं, कृष्ण जी ने चिल्ला कर कहा.

लेकिन राधा ने कुछ देखा, सुना. अपने महबूब की राह तकते तकते उसकी आंखें अंधी हो चुकी थीं और कान बहरे. ज़िंदगी से परे, मौत से परे इन्साफ़ से परे…’

मेरी आंखों में आंसू गए, मेरा दोस्त अपनी बाहों में सर छुपा कर सिसकियां लेने लगा जैसे किसी ने उसकी गर्दन में फांसी का फंदाडाल दिया हो जैसे पागल औरत मुहब्बत करने के जुर्म में लोहे की सलाख़ों के पीछे बंद कर दी गई हो. ज़र्दरू लड़की विश्राम घाट पर हसरत भरी निगाहों से मिट्टी के दियों की लौ की तरफ़ तक रही थी, उसकी हैरान पुतलियां मेरी आंखों के आगे नाचने लगीं. अंधे साधू सर मुंडाए हुए क़तार दर क़तार खड़े थे और खड़तालें बजाते हुए गा रहे थे. राधे श्याम, राधे श्याम, राधे श्यामलेफ़ राइटलेफ़ राइट, लेफ़राइट. पुराने ख़ुदा अभी तक मंदिरों, बैंकों फ़ैक्ट्रियों और खेतों पर क़ब्ज़ा किए बैठे थे, वो अपने बही खाते खोले. आलतीपालती मारे बैठे थे. उनकी नंगी तोंदों पर जनेऊ लहरा रहे थे और वो निहायत दिलजमई से उन लाखों आवाज़ों को सुन रहे थे, जो फ़िज़ा में चारों तरफ़ शहद की मक्खियों की तरह भिनभिना रही थींराधे श्यामराधे श्याम

कृष्ण चंदर
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कृश्न चन्दर (1914 – 1977) हिंदी और उर्दू के कहानीकार थे। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1969 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। उन्होंने मुख्यतः उर्दू में लिखा किन्तु भारत की स्वतंत्रता के बाद मुख्यतः हिन्दी में लिखा।

कृश्न चन्दर (1914 – 1977) हिंदी और उर्दू के कहानीकार थे। उन्हें साहित्य एवं शिक्षा क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1969 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। उन्होंने मुख्यतः उर्दू में लिखा किन्तु भारत की स्वतंत्रता के बाद मुख्यतः हिन्दी में लिखा।

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