उस शाम के मुहाने पे
उस शब के सिरहाने से
वादियों के ख़ामोशी में
पेड़ों के सरसराहट से
सरकती हुई तुम्हारी मुस्कुराहट
बोलों के बीच तुम्हारी
मीठी सी सांस की आवाज़
जावेदां करती हुई
मेरे बोसीदा अल्फ़ाज़ों को
जो जी-मेल के इनबॉक्स में
एरियल ब्लैक हो गयी थी
मैं तो कॉमिक सैन्स हुआ करता था
पर ये रोज़मर्रा की कारगुज़ारी
क्या से क्या होता गया
बेख़बर
पर तुम यूँ ही अचानक एक दिन
मोनोटाइप करसिवा बनकर
बुनकरों की तरह क्या बीनने लगी हो मुझमें
तुम्हे मालुम नहीं होगा
मेरे पिछले कुछ सालों में
मेरी दावात की स्याही को
खून से बदल दिया है
कुछ ख़ुदा के फ़रमाबर्दारों ने
मैं लिखना चाहता था प्रेम कविताएँ
पर प्रेम के अभाव में
नफरतों के बीच
ये संभव न था।
पर उस शाम के मुहाने पे
तुम कबूतर सी हँसी हँसते
मुझे किसी नदी सा होने को
प्रेरित करती हो,
कोई गीत गा रही हो
इस गीत की शक्ल
बकरी दूहती उस औरत सी है
जिसे मैंने जोगाबाई एक्सटेंशन में
जमुना किनारे देखा था
इसकी धुन किसी लोरी सी है
जिसमे एक बेफ़िक्री भरा रूमान है।
मेरे ज़िंदग़ी के इस चौक पर
तुम नए शहर की लिबास में
किसी पुराने गाँव की पगडंडिया बनाने लगी हो।
सोचता हूँ, तुम्हारे तसव्वुरात की
एक कोलाज बना कर
ख़ुद से सिंक्रोनाईज़ कर लूँ
क्या कहती हो ??

शारिक़ असीर
शारिक़ असीर मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार से हैं। आप अपने समय के उभरते हुए समर्थ शायरों में से एक हैं। आपसे shariqueasir@gmail.com पे बात की जा सकती है।