आज पानी गिर रहा है, बहुत पानी गिर रहा है, रात भर गिरता रहा है, प्राण मन घिरता रहा है, अब सवेरा हो गया है, कब सवेरा हो गया है, ठीक से मैंने न जाना, बहुत सोकर सिर्फ माना, क्योंकि बादल की अँधेरी, है अभी तक भी घनेरी, अभी तक चुपचाप है सब, रातवाली छाप है सब, गिर रहा पानी झरा-झर, हिल रहे पत्ते हरा-हर, बह रही है हवा सर-सर, काँपते हैं प्राण थर-थर, बहुत पानी गिर रहा है, घर नजर में तिर रहा है, घर कि मुझसे दूर है जो, घर खुशी का पूर है जो, घर कि घर में चार भाई, मायके में बहिन आई, बहिन आई बाप के घर, हाय रे परिताप के घर, आज का दिन दिन नहीं है, क्योंकि इसका छिन नहीं है, एक छिन सौ बरस है रे, हाय कैसा तरस है रे, घर कि घर में सब जुड़े है, सब कि इतने कब जुड़े हैं, चार भाई चार बहिनें, भुजा भाई प्यार बहिनें, और माँ बिन-पढ़ी मेरी, दुःख में वह गढ़ी मेरी माँ कि जिसकी गोद में सिर, रख लिया तो दुख नहीं फिर, माँ कि जिसकी स्नेह-धारा, का यहाँ तक भी पसारा, उसे लिखना नहीं आता, जो कि उसका पत्र पाता, और पानी गिर रहा है, घर चतुर्दिक घिर रहा है, पिताजी भोले बहादुर, वज्र-भुज नवनीत-सा उर, पिताजी जिनको बुढ़ापा, एक क्षण भी नहीं व्यापा, जो अभी भी दौड़ जाएँ, जो अभी भी खिल-खिलाएँ, मौत के आगे न हिचकें, शेर के आगे न बिचकें, बोल में बादल गरजता, काम में झंझा लरजता, आज गीता पाठ करके, दंड दो सौ साठ करके, खूब मुगदर हिला लेकर, मूठ उनकी मिला लेकर, जब कि नीचे आए होंगे, नैन जल से छाए होंगे, हाय, पानी गिर रहा है, घर नजर में तिर रहा है, चार भाई चार बहिनें, भुजा भाई प्यार बहिनें, खेलते या खड़े होंगे, नजर उनको पड़े होंगे, पिताजी जिनको बुढ़ापा, एक क्षण भी नहीं व्यापा, रो पड़े होंगे बराबर, पाँचवे का नाम लेकर, पाँचवाँ हूँ मैं अभागा, जिसे सोने पर सुहागा, पिता जी कहते रहें है, प्यार में बहते रहे हैं, आज उनके स्वर्ण बेटे, लगे होंगे उन्हें हेटे, क्योंकि मैं उन पर सुहागा बँधा बैठा हूँ अभागा, और माँ ने कहा होगा, दुःख कितना बहा होगा, आँख में किस लिए पानी, वहाँ अच्छा है भवानी, वह तुम्हारा मन समझ कर, और अपनापन समझ कर, गया है सो ठीक ही है, यह तुम्हारी लीक ही है, पाँव जो पीछे हटाता, कोख को मेरी लजाता, इस तरह होओ न कच्चे, रो पड़ेंगे और बच्चे, पिताजी ने कहा होगा, हाय, कितना सहा होगा, कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ, धीर मैं खोता, कहाँ हूँ, गिर रहा है आज पानी, याद आता है भवानी, उसे थी बरसात प्यारी, रात-दिन की झड़ी झारी, खुले सिर नंगे बदन वह, घूमता-फिरता मगन वह, बड़े बाड़े में कि जाता, बीज लौकी का लगाता, तुझे बतलाता कि बेला ने फलानी फूल झेला, तू कि उसके साथ जाती, आज इससे याद आती, मैं न रोऊँगा,कहा होगा, और फिर पानी बहा होगा, दृश्य उसके बद का रे, पाँचवें की याद का रे, भाई पागल, बहिन पागल, और अम्मा ठीक बादल, और भौजी और सरला, सहज पानी, सहज तरला, शर्म से रो भी न पाएँ, खूब भीतर छटपटाएँ, आज ऐसा कुछ हुआ होगा, आज सबका मन चुआ होगा अभी पानी थम गया है, मन निहायत नम गया है, एक से बादल जमे हैं, गगन-भर फैले रमे हैं, ढेर है उनका, न फाँकें, जो कि किरणें झुकें-झाँकें, लग रहे हैं वे मुझे यों, माँ कि आँगन लीप दे ज्यों, गगन-आँगन की लुनाई, दिशा के मन में समाई, दश-दिशा चुपचाप है रे, स्वस्थ की छाप है रे, झाड़ आँखें बंद करके, साँस सुस्थिर मंद करके, हिले बिन चुपके खड़े हैं, क्षितिज पर जैसे जड़े हैं, एक पंछी बोलता है, घाव उर के खोलता है, आदमी के उर बिचारे, किस लिए इतनी तृषा रे, तू जरा-सा दुःख कितना, सह सकेगा क्या कि इतना, और इस पर बस नहीं है, बस बिना कुछ रस नहीं है, हवा आई उड़ चला तू, लहर आई मुड़ चला तू, लगा झटका टूट बैठा, गिरा नीचे फूट बैठा, तू कि प्रिय से दूर होकर, बह चला रे पूर होकर, दुःख भर क्या पास तेरे, अश्रु सिंचित हास तेरे, पिताजी का वेश मुझको, दे रहा है क्लेश मुझको, देह एक पहाड़ जैसे, मन की बाड़ का झाड़ जैसे, एक पत्ता टूट जाए, बस कि धारा फूट जाए, एक हल्की चोट लग ले, दूध की नद्दी उमग ले, एक टहनी कम न होले, कम कहाँ कि खम न होले, ध्यान कितना फिक्र कितनी, डाल जितनी जड़ें उतनी, इस तरह क हाल उनका, इस तरह का खयाल उनका, हवा उनको धीर देना, यह नहीं जी चीर देना, हे सजीले हरे सावन, हे कि मेरे पुण्य पावन, तुम बरस लो वे न बरसें, पाँचवे को वे न तरसें, मैं मजे में हूँ सही है, घर नहीं हूँ बस यही है, किंतु यह बस बड़ा बस है, इसी बस से सब विरस है, किंतु उनसे यह न कहना, उन्हें देते धीर रहना, उन्हें कहना लिख रहा हूँ, उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ, काम करता हूँ कि कहना, नाम करता हूँ कि कहना, चाहते है लोग, कहना, मत करो कुछ शोक कहना, और कहना मस्त हूँ मैं, कातने में व्यस्त हूँ मैं, वजन सत्तर सेर मेरा, और भोजन ढेर मेरा, कूदता हूँ, खेलता हूँ, दुख डट कर झेलता हूँ, और कहना मस्त हूँ मैं, यों न कहना अस्त हूँ मैं, हाय रे, ऐसा न कहना, है कि जो वैसा न कहना, कह न देना जागता हूँ, आदमी से भागता हूँ, कह न देना मौन हूँ मैं, खुद न समझूँ कौन हूँ मैं, देखना कुछ बक न देना, उन्हें कोई शक न देना, हे सजीले हरे सावन, हे कि मेरे पुण्य पावन, तुम बरस लो वे न बरसे, पाँचवें को वे न तरसें।

भवानी प्रसाद मिश्र
भवानी प्रसाद मिश्र (1914 - 1985) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि तथा गांधीवादी विचारक थे। वह 'दूसरा सप्तक' के प्रथम कवि हैं। उनको 1972 में उनकी कृति 'बुनी हुई रस्सी' पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला ; 1981 - 82 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का साहित्यकार सम्मान दिया गया तथा 1983 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन के शिखर सम्मान से अलंकृत किया गया।