1.
किसने तय किया
किसी कविता का कविता होना
ताल लय छंद से परे
किसी के रोने में सौन्दर्य
किसी के हंसने में संगीत
किसने तय किया
ये पहाड़ है, ये नदी और वो ,समंदर
वो आकाश ,
वो धरती है
औैर धरती डोलती है
सूरज के आगे
मौसम विभाग के पूर्वानुमान के बाद भी
बहुतेरे मौसमों का
यूँ ही बेरोक टोक आना जाना
क्यूँ नहीं बंध सका
किसी भी नियम में
किसने तय किया
कि जुगनू सारे जंगल के हैं
और तितलियाँ सारी रंगों की
जंगलों में भटकते हुए रंग
औैर रंगो में गुम जंगल
इक जंगल जहाँ
भटकता हुआ मन
और एक दिन
किसने तय कर दिया –
तुम्हारे होठों पर मौन सजे
और मेरी आँखों में नमक
2.
मेरी आत्मा की परतें
इच्छुक हैं
तुम्हारे संगीत की
मगर
सहानुभूति की
कड़वी कश
मेरे हाथों में
खिल उठती हैं हर बार
कि अब मेरा हर तन्तु
एक जलहीन नदी है
वह इच्छुक है कि
निर्बाध वृष्टि हो
बाँध टूटें
वह हो सराबोर…
मगर बादलों को
मेरे आंगन से
उड़ा ले जाती हैं कोई पछुआ हवा
मेरी आत्मा
एक अकाट्य
उदासी की उपासक है
जहाँ ईश्वर
सिर्फ़ करुणा की गोलियाँ बाँटता फिरता है
प्रेम की विवशता को
भूलने के लिए …..
3.
बीड़ी बुझा
ख़ुद को चादर से लपेटते हुए
चांद ने उदास नज़रों से देखा
आसमान को
सूरज जिसपर उधार रहा
बीते कुछ वक़्त से
अधूरी सी रातों का
थक चुके
अपने घोड़ों से उतर
वह चल पड़ा
धीरे धीरे
खेतों ने बस्तियों से
मांगना चाहा था
बराबरी का दर्जा
वह जो सिकोड़ कर देह अपनी
उतार लाता है
नींद की गठरी
चाहता है मांग लेना
जमीन का इक टुकड़ा
राशन कार्ड की जगह
वह इंकार कर देता है
शिक्षा के लिए
लोन लेने से
और हम साफ़ कपड़ों पर
दाग़ लगाकर
दाग़ मिटाने का खेल देखते हैं
फिर कुछ लोग
न्याय की आस पर
बेच आते हैं बची खुची सम्पत्ति
ख़बरों से ज्यादा
छपने लगे हैं इश्तेहार
सुना है कुछ नई योजनाएँ
लागू की जाएँगी
बोझ से झुका
थका हुआ चांद
धीरे से सुलगता है
फिर अपनी बीड़ी….
4.
अब हर दीवार पर
लिखी जानी चाहिए कहानी भूख की
नीले देह की
मिट्टी में गथे हुए
हाथ और पैरों की
हम नहीं जानते की
कहाँ और कैसे ?
मगर कहना पड़ेगा कि अब बस
तुम्हारी आवाज़ को
रोकेंगी दीवारें
भय की
जकड़ेंगी तुम्हारे कदमों को
नई परिभाषाएँ
धर्म की
तौलेंगे वो इक इक शब्द को
उनकी अकुलाहट
जबाब देती है
तुम्हारे डर से कहीं ज्यादा है
भय उनके सीनो में
इक मौसम से दूसरे मौसम तक की अस्थिरता
को उतारना होगा सीने में
हल की मूठ से
ख़ाली पेट तक
बाजारवाद की हर इक चोट पर
हमारे दो झुके कंधे और
इक धड़कता सीना….
5.
सिलन और बदबू को
लोगों की नाक से दूर करने को
खोदी गई सड़कें
गवाही देंगी आने वाले दिनों में
कोई विस्मय नहीं हुआ
सुनकर कि
वह जो
रोटी को फ़ूल की तरह हमारे थालियों में
रखता है
देशद्रोही की कतार में खड़ा है
हम खिड़कियों से
चिपके
पोस्टर और बैनर की तरह
बस देख रहे हैं
ख़ुद को बचाते हुए
इक और देशद्रोही की श्रेणी में जाने से
और हर बात जो
कर सकती थी हमें विचलित
इन बेहद सर्द हवाओं में
हमने उन्हें भी
बिना किसी वजह से
अपना बना लिया है
जन और गण टूटे हुए हैं
कोई दूर बैठा
मन की बात गा रहा है …
6.
कुछ लकीरें खींच गई हैं
उसके माथे पर
और थोड़ी चांदनी झलकती है
उसके केशों से
आईने में देख कर खुद को
सोचती है
‘बड़भागिनी’ होने का
असली मतलब
याद आता है
नानी का चेहरा
जो उसे चलना सिखाने के साथ
कहती रहती थी अक्सर
‘बड़भागिनी’
सास ने कहा था हँसकर
‘बड़भागिनी’
जब सिंदूर गिर पड़ा था
नाक पर
फिर उसने जाना भाषाएँ
असमर्थ हैं कहने में या
संकोच के दायरे में
सिमटी हुई हैं
जहाँ
कुछ ना कुछ
हमेशा छूट ही जाता है…

गुँजन उपाध्याय पाठक
गुँजन उपाध्याय पाठक हिंदी कविता में नयी मगर समर्थ व् सशक्त कवियित्रियों में से एक हैं। आप इन दिनों पटना में रहती हैं। आपसे gunji.sophie@gmail.com पे बात की जा सकती है।