1. झूठ-मूठ
हरेक झूठ की एक मूठ होती है
जिसे मजबूती से पकड़े रहता है झूठ
जिधर भी जाता साथ लिए चलता है
जैसे हत्यारा हर वक्त साथ रखता है
अपना प्रिय हथियार
बड़े ही जतन से झूठ
नक्काशीदार बनाकर रखता है मूठ को
बताता फिरता है इसकी अपरिहार्यता
मूठ में भरता है सौंदर्य का सम्मोहन
मूठ थामने से पहले
झूठ उतार देता है अपना पुराना सफ़ेद लिबास
धारण कर लेता है रंग-बिरंगा चमचम चोला
जिसमें बड़ा भव्य और दिव्य दीखता है झूठ
अकड़ते हुए अत्याधुनिक तानाशाह की तरह
झकाझक दिन के घुप अँधेरे में
थामे हुए मूठ निकलता है झूठ
सरेआम द्विखंडित कर देता है सचमुच को ;
सच और मुच अलग-अलग छटपटाते हैं
और हम आँख मूंदे ,बाजू से गुजर जाते हैं
2. चोरी हो गयी कविता के बारे में
देखिये , उधर देखिये
वही है चोरी हो गयी मेरी कविता
देखिये, चोर ने कैसे चिपका दिया है अपना नाम
आधिपत्य जमाये कैसा मुस्कुरा रहा वह शातिर
कैसा मज़ा ले रहा बधाइयों की बरसात का
चोर कहीं का!
किससे कहूँ , कैसे कहूँ , पेशोपेश में हूँ
इतना चिलप्पों मचाना भी ठीक नहीं
लोग कहेंगे मुझे ही सावित करने के लिए
शिकायत में इधर-उधर हुआ तो उल्टा मुझ ही पर करेंगे शक
टाल भी सकते हैं,चलो आपकी कविता का उपयोग तो हो रहा है!
अजीब उलझन है
क्या मेरी कविता सचमुच उस चोर की हो गयी है!
देखिये , उधर देखिये
कैसे मेरे शब्द मेरी ओर याचनापूर्वक टुकटुक ताक रहें हैं
जैसे अपहृत बस की खिड़कियों से झांकते होंगे दहशतज़दा लोग
देखिये , कैसे मेरी पंक्तियाँ अपनी बाहें फैला रहीं हैं मेरी ओर
दो पंक्तियों के बीच की भावनाएं मार रहीं जोर
मेरे ज़ज्बात से लिपट कर रोने के लिए
और शीर्षक तो जैसे चीख-चीख कर पुकार रहा हो मुझे!
अजीब ढीठ चोर है
मेरी ओर तकता तक नहीं ,जैसे मुझे जानता भी नहीं ,
उफ्फ ! किस थाने जाऊं, रपट लिखाऊं!
पता नहीं कैसा सलूक करेगा वह शातिर मेरी मासूम कविता के साथ
जबकि मेरी आत्मा रो रही है इधर
चोरी हो चुके नवजात शिशु की माँ की तरह!
3. तलाश रहा मैं कुछ शब्द ऐसे ….
कहाँ से शुरु करुँ कि नहीं मिल रहे शब्द
उन चंचल वाचाल ऑंखों से शुरु करुँ
जो बह रही थीं निः…शब्द
और बॉधने के लिए नहीं थे मेरे पास शब्द
या शुरु करुँ उन आदरणीय दिवंगत से
जिनको अर्पित करने थे श्रद्धा के दो शब्द-सुमन
पर देर तक अवरुद्ध रहा मेरा गला
शब्दहीनता की एक स्थिति वह भी रही
जब अर्से बाद मिला था मेरा दोस्त जिगरी
और हर्षातिरेक में मैं रहा बावला
मेरे शब्द प्रबल हैं या मेरी कोमल भावनाएं
शब्दों को लेकर मुझमें इतने अंतर्द्वंद
और उधर शब्दों का इतना वितंडा
उधर… उस तरफ शब्द
पत्थरों की तरह फेंके जा रहे
तीलियों की तरह घिसे फेंके जा रहे
तीर तलवारों की तरह चलाये जा रहे
और इस वीभत्स मारा-मारी आपाधापी में
लहूलुहान शब्द चीख पुकारते रहे शब्द.. शब्द
कहीं शब्दों को शाक-सब्जियों की तरह तोले जा रहे
कहीं माल-मवेशियों की तरह हंकाये जा रहे
तो कहीं मछलियों की तरह फांसने शब्दों को ही
बडी साफगोई से बुने जा रहे शब्द-जाल
कहीं शब्द हैं तो अर्थ नहीं
अर्थ हैं तो भावनाएँ नहीं
भावनाएँ हैं तो संभावनाएँ नहीं
हैरत हुई उन प्रकाण्ड शब्द-विदों पर
जिन्होने बहा दी शब्दों की तिलस्मी गंगा
और प्यासे जन चिल्लाते रहे.. शब्द.. शब्द
आखिर कहाँ हैं वे शब्द
जो डूबते के लिए बन सके तिनके
न शब्दों की तिज़ारत करने
न ही करने शब्दों की बाज़ीगरी
तलाश रहा मैं कुछ शब्द ऐसे
जिनसे शुरु कर सकूँ मैं वह व्यथा अनकही…

कुमार विजय गुप्त
कुमार विजय गुप्त देश के प्रतिष्ठित रचनाकारों में से एक हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पे देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे bijaygupta4u@gmail.com पे बात की जा सकती है।