अपनी अपनी दौलत

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पुराने ज़मींदार का पसीना छूट गया, यह सुनकर कि इनकम टैक्स विभाग का कोई अफ़सर आया है और उनके हिसाबकिताब के रजिस्टरऔर बहीखाते चेक करना चाहता है.

अब क्या होगा मुनीम जी? ज़मींदार ने घबरा कर कहाकुछ करो मुनीम जी

हुजूर! मैं तो ख़ुद घबरा गया हूं….मैंने इशारे से पेशकश भी कीचाहा कि बला टल जाए. एक लाख तक की बात की, लेकिन वह तो टससेमस नहीं हो रहा हैमुनीम बोला.

तो? हे भगवानमेरी तो सांस उखड़ रही है….
तब तक रमुआ पानी ले आया. ज़मींदार ने पानी पियापर घबराहट कम हुई.

हिन्दू है कि मुसलमान?

सिख है !

तो अभी लस्सीवस्सी पिलाओ. डिनर के लिए रोको. सोडापानी का इन्तज़ाम करो, फकीरे से बोल तीनचार मुर्गे कटवाओ और उनसे कहो, हम सारा हिसाब दिखा देंगे, पर आप शहर से इतनी दूर से आए हैंहमारे साथ डिनर करना तो मंजूर करें

मुनीम घबराया हुआ चला गया. पांच मिनट बाद ही मुनीम अफ़सर को लेकर ज़मींदार साहब के प्राइवेट कमरे में आया. ज़मींदार साहब ने घबराहट छुपा कर, लपकते हुए उसका स्वागत किया. उसे ख़ास चांदी वाली कुर्सी पर बैठाया.

आइए हुज़ूर! तशरीफ़ रखिएयहां गांव आने में तो आपको बड़ी तक़लीफ़ होगी….ज़मींदार साहब ने अदब से कहा.

अब क्या करें ज़मींदार साहब, हमें भी अपनी ड्यूटी करनी होती है. आना पड़ाअफ़सर बोला.

तब तक लस्सी के गिलास गए.

यह लीजिए हुज़ूर! ज़मींदार साहब बोलेशाम को हम और आप ज़रा आराम से बैठेंगेआप पहली बार तशरीफ़ लाए हैं

जी हां, जी हां….लेकिन मुनीम से कहिए, पिछले तीन सालों के हिसाबकिताब के काग़ज़ात तैयार रखेज़मींदार के फिर पसीना छूट गया. उसने ख़ुद को संभाला. पसीना पोंछ कर बोलाअरे हुज़ूर पहले शाम तो गुज़ारिए….फिर रात को आराम फ़रमाइएसुबह आप जैसा चाहेंगे, वैसा होगा….

तभी नौकर ने आकर मालिक को जानकारी दीमालिक! रात के लिए फकीरे के यहां से कटे मुर्गे गए हैंमालकिन पूछ रही हैं कि चारों शोरबे वाले बनेंगे या आधे भुने हुए और आधे शोरबे वाले?

बताइए हुजू़र; कैसा मुर्ग पसन्द करेंगे? शोरबे का या भुना हुआ, या दोनों! ज़मींदार साहब ने पूछा.

इनकम टैक्स अफ़सर एकदम कच्चा पड़ गया. कहने लगाज़मींदार साहब मैं चलता हूं

अरे क्यों? कहां? हमसे कोई ग़लती हो गई क्या?

नहीं, नहीं, लेकिन आपके साथ बैठकर मुर्ग खाने की मेरी औकात नहीं है. वैसे आपके मुनीम जी ने मुझे एक लाख देने की पेशकश की थी. लेकिन मैं अब आप से अपना इनाम लेकर जाना चाहता हूं!

ज़मींदार और सारे कारकुन चौंके कि आखिर यह माजरा क्या है?

ज़मींदार साहब भी चौंके.

लेकिन आप…?

हुज़ूर! मैं एक लाख रुपये की रिश्वत लेकर भी जा सकता था. पर नहीं, मुझे तो आपसे बस अपना इनाम चाहिए!

इनाम!

जी हुज़ूर! मैं इनकम टैक्‍स अफ़सर नहीं, मैं तो आपकी रियासत का बहुरूपिया किशनलाल हूं. सोचा, अपनी कला दिखाकर आपसे ही कुछ इनाम हासिल किया जाए….

ज़मींदार भड़क गयातो तू किशनू धानुक हैरामू धानुक का आवारा बेटा! अरे हरामजादे, तेरी वजह से मुझे हार्टअटैक भी हो सकता था….तेरा इनामविनाम तो गया भाड़चूल्हे में. अगर सदमे से मुझे कुछ हो जाता तो?…मैं हुक्म देता हूं, हमारी रियासत छोड़ कर कहीं भी चला जा. यहां दिखाई दिया तो मैं तेरे हाथपैर तुड़वा दूंगा!

बहुरूपिये कलाकार किशनलाल को इनाम तो नहीं ही मिला, डर के मारे उसे वह क़स्बा भी छोड़ना पड़ा.

फिर कई बरस बाद ज़मींदार के उसी गांव में एक बूढ़ा साधु आया. वह एक पीपल के पेड़ के नीचे धूनी रमा के बैठ गया. वह किसी से कुछ मांगता नहीं था. उसके प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ने लगा. वह थोड़ा प्रवचन भी देने लगा. लोगों ने उसकी कुटिया बनवाने की बात की तो उसने मना कर दिया. वह जाड़े, गर्मी, बरसात में वहीं पीपल के नीचे बैठा ध्यान, भजन, प्रवचन में खोया रहता. उसकी कीर्ति फैलने लगी. दूरदूर क्षेत्रों से लोग उसके दर्शन करने आने लगे.

एक दिन ज़मींदारिन भी उसके दर्शन करने आईं. उन्होंने श्रद्धा से दक्षिणा दी. साधु ने वह धन ग्राम पंचायत को दान में दे दिया. प्रवचन देते समय उसने कहा यह धन मेरा अर्जित धन नहीं था. मैंने इसे अपने श्रम से नहीं कमाया थायह समाज का धन है, उसी तरह समाज के पास लौट जाना चाहिए जैसे वर्षा का जल सागर में लौट जाता है……

श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ने लगी. ज़मींदारिन रोज उसके दर्शन करने आने लगीं. एक दिन उन्होंने ज़मींदार साहब से कहा क्यों हम साधु जी को हवेली में ले आएं. वे जाड़े, गर्मी, बरसात में वहीं पीपल के नीचे बैठे रहते हैं, बारिश के दिनों में वहां बहुत कीचड़ हो जाती है. भक्तों को बड़ी असुविधा होती है.

ज़मींदार साहब ने हां कर दी, बड़ी धूमधाम से ज़मींदारिन साधु महाराज को हवेली में ले आईं. भक्त वहीं आने लगे.

ज़मींदारिन ने भक्तों के लिए भण्डारा शुरू करवा दिया. प्रवचन देते समय साधु महाराज ने कहापेट तो पशु भी भर लेता हैपर मनुष्य के पास एक और पेट होता है, वह है विद्या और ज्ञान का खाली पेट! यदि वह नहीं भरता तो भण्डारे का भोजन व्यर्थ चला जाता है.

ज़मींदारज़मींदारिन ने साधु की बात को समझा. उन्होंने ग्राम पंचायत को धन दे कर गांव में एक पाठशाला खुलवा दी. पर एक समस्या सामने आई. उसमें पढ़ने के लिए बच्चे आते ही नहीं थे. तब साधु ने एक दिन प्रवचन में कहा –   जो भक्त मेरे दर्शनों के लिए आते हैं, यदि वे अपने बच्चों को पाठशाला में नहीं भेजते तो उनसे मेरा निवेदन है कि वे मेरे दर्शन के लिए आएं!

साधु महाराज की बात का असर हुआ. पाठशाला में बच्चे पहुंचने लगे. भक्तों की भीड़ भी और बढ़ने लगी.

ज़मींदार और ज़मींदारिन ने दुनिया का दूसरा चेहरा देखा. और एक रात, जब सारे भक्त जा चुके थे, उन्होंने अपनी सारी धनसम्पदा लाकर साधु महाराज के चरणों में रख दीमहाराज! आप जैसे चाहें, हमारी इस अकूत सम्पदा और सम्पत्ति का उपयोग करें.

दूसरे दिन सुबह भक्त आने लगे पर साधु का कहीं पता नहीं था. ज़मींदार और ज़मींदारिन सकते में गए. पूरी हवेली की तलाशी ली गई. उस साधु की परछाईं तक वहां नहीं थी. वह साधु सारी धनसम्पदा लेकर चम्पत हो चुका था. ज़मींदार और ज़मींदारिन के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ था. तभी भक्तों की उत्तेजित और नाराज भीड़ में वही पुराना बहुरूपिया किशनलाल दिखाई दिया. ज़मींदार का गुस्सा तो सातवें आसमान पर था ही. वे भड़क उठे

इतने बरसों बाद किशनू तू यहां! मैंने तो तुझे देश निकाला दिया था. तू यहां क्या करने आया है?

हुज़ूर! मैं अपना इनाम लेने आया हूं! (किशनलाल ने अदब से कहा.)

कौन सा इनाम? किस बात का इनाम?

हुजूर! पिछला इनाम भी, जो आपने नहीं दिया था और इस बार का इनाम भी!

इस बार का इनाम! (लोग भौंचक्के थे.)

जी हुज़ूर! वो साधु मैं ही तो था, जिसे कल रात आपने सारा ख़ज़ाना सौंप दिया था!

लोगों को विश्वास नहीं हुआ. ताज्जुब से ज़मींदार ने पूछातू ही वह साधु था?

जी हुज़ूर!

तो वो सारी धनदौलत कहां है जो मैंने तेरे हवाले की थी.

हुज़ूर! वो सारी दौलत हवेली की पिछवाड़े वाली कोठरी में सहीसलामत रखी है!

नौकरचाकर दौड़ पड़े. वे ख़ज़ानेवाली गठरी उठा के ले आए. वह उसी की साधुवाली धोती में बंधी थी. गठरी खोल के देखी गई. सारी दौलत के साथ ही उस में उसकी दाढ़ीमूंछ भी रखी थी. उसका गेरुआ कुर्ता और रुद्राक्ष की माला और अन्य मालाएं भी, जो वह साधु के रूप में पहनता था.

भक्तों की पूरी भीड़ ने राहत की सांस ली. ज़मींदारज़मींदारिन उसे ताज्जुब से देख रहे थे.

अरे पागल! तब तू इनाम क्‍यों मांग रहा था? तू तो यह सारी दौलत लेकर भाग भी सकता था.

भाग तो मैं ज़रूर सकता था हुज़ूरलेकिन तब साधुओं पर से लोगों का विश्वास उठ जाता हुज़ूर

लोगों ने उसे आंखें फाड़फाड़ कर आश्चर्य से देखा. ज़मींदार और ज़मींदारिन ने भी. सबकी आंखों में अचरज था. कितना बेवकूफ़ आदमी है यहअपनी सच्चाई बताता और सारा ख़ज़ाना लेकर भाग जाता तो ज़मींदार भी क्‍या कर लेता

किशनू बहुरूपिया अपने इनाम के इन्तज़ार में चुपचाप खड़ा था.

तभी ज़मींदार साहब ने कहाकिशनू! यह जो तेरे साधु के कपड़े, मालाएं वगैरह पड़ी हैं, इन्हें तो उठा ले!

वो तो मैं उठा लूंगा….पर मेरा इनाम? वह तो दे दीजिए!

सचमुच हमें तेरी अकल पर बड़ा तरस रहा है किशनू…. ज़मींदार साहब बोलेतू सचमुच मूरख है.

हुजूर! आख़िर मैं कलाकार हूं हम मूरखों से ही यह दुनिया चलती है…. मुझे तो सिर्फ़ अपना इनाम चाहिए! आपकी धनदौलत नहीं

कमलेश्वर

कमलेश्वर (६ जनवरी१९३२-२७ जनवरी २००७) हिन्दी लेखक कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं।कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि उनके लेखन के कई तरह के रंग देखने को मिलते हैं। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा जाता रहा है।

कमलेश्वर (६ जनवरी१९३२-२७ जनवरी २००७) हिन्दी लेखक कमलेश्वर बीसवीं शती के सबसे सशक्त लेखकों में से एक समझे जाते हैं।कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि उनके लेखन के कई तरह के रंग देखने को मिलते हैं। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा जाता रहा है।

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