मेरे मन का ख़याल

कितना ख़याल रखा है मैंने अपनी देह का सजती-सँवरती हूँ कहीं मोटी न हो जाऊँ खाती हूँ रूखी-सूखी कहीं कमज़ोर न हो जाऊँ पीती हूँ फलों का रस अपनी देह का ख़याल

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तब भी प्यार किया

मेरे बालों में रूसियाँ थीं तब भी उसने मुझे प्यार किया मेरी काँखों से आ रही थी पसीने की बू तब भी उसने मुझे प्यार किया मेरी साँसों में थी, बस, जीवन-गन्ध

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हमारी रीढ़ मुड़ चुकी है

हमारी रीढ़ मुड़ चुकी है “मैं” के बोझ से खड़े होने की कोशिश में औंधे मुंह गिर जाएंगे, खड़े होने की जगह पर खड़ा होना ही मनुष्य होना है। हमने मनुष्यता की परिभाषा चबाई

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घर पहुँचना

हम सब एक सीधी ट्रेन पकड़ कर अपने अपने घर पहुँचना चाहते हम सब ट्रेनें बदलने की झंझटों से बचना चाहते हम सब चाहते एक चरम यात्रा और एक परम धाम हम

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कोई पास आया सवेरे सवेरे

कोई पास आया सवेरे सवेरे मुझे आज़माया सवेरे सवेरे मेरी दास्ताँ को ज़रा सा बदल कर मुझे ही सुनाया सवेरे सवेरे जो कहता था कल शब सँभलना सँभलना वही लड़खड़ाया सवेरे सवेरे

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इतना सहज नहीं है विश्व

इतना सहज नहीं है विश्व कि झरने झरते रहें पहाड़ कभी झुकें ही नहीं नदी आए और कहे कि मैं हमेशा बहूँगी तुम्हारे साथ शहर के क़ानून तुम्हारे मुताबिक़ मानवीय हो जाएँ

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तय करो किस ओर हो तुम

तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो। आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो।। ख़ुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है ज़िन्दगी, रेंग कर मर-मर

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हार की जीत

नहीं, मुझे अपनी परवाह नहीं परवाह नहीं हारें कि जीतें हारते तो रहे ही हैं शुरू से लेकिन हार कर भी माथा उठ रहा और आत्मा रही जयी यवांकुर-सी हर बार सो,

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खोया हरा सुग्गा

जैसे हाथ से दमड़ी खो जाती है जैसे खेलते वक्त निशाना मारने पर कभी-कभी टन्ना खो जाता है जैसे अंगुलियों से रेंड़ी छूट जाती है जैसे देखते ही देखते हवा में उड़

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मेरे काम की नहीं

बहुत उम्मीद थी कि लौटते ही ढेर सारे बंद लिफाफे गेट पर लगे बक्से में बेतरतीब पड़े मिलेंगे। स्वीच ऑफ बताता फोन अपनी जद में पहुंचते ही मिसकॉल, अनरीड मेसेज की सूचनाएं

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