वह रानी, कि चन्द्रमा जिसका मुकुट है, आकाश जिसका आसन है, जो जमशेद जैसी प्रतापी है, फरीदून जैसी तेजस्वी और काऊस जैसा स्थान रखने वाली है, उसके पास संजर जैसा दबदबा है और सिकन्दर जैसी महानता। वह ऐसी रानी है, कि रोम का राजा उसे धन्यवाद देता है, कि उसने उसके राजपाट की गरिमा को बचा लिया। रूस के शासक उसके सैन्यबल से काँपते हैं। सूर्य इस बात से थर-थर काँपता है कि यह संसार का झुलसना उसके क्रोध के कारण है और वह पूर्ण चन्द्रमा को तथा संसार को अपने प्रकाश से प्रज्वलित करता है। वह भी उसकी बराबरी पर आने से डरता है। उसका हर रात घट जाना इस बात का प्रतीक है।
वह शस्त्र कला एवं अन्य विद्याओं की ज्ञानी है। वह एक ऐसी शासक है जो दूसरों को शासक बनाती है और शासन प्रदान करती है। वह ज्ञान का भंडार, उभरता सूर्य एवं भले आचरण वाली है। वह न्याय के क्षेत्र के नौशेरवाँ से भी उच्च है। जमशीद अपने ज्ञान को इसीलिए सँभालकर रखता था ताकि वह नामधारी महारानी को प्रस्तुत कर सके। ख़ुसरो की ओर से हीरे-मोतियों का ख़ज़ाना बिना किसी कष्ट के रानी को उपहारस्वरूप मिला।
वह सिंहासन जिसे वायु अपने कन्धों पर उठाए रखती थी, अज्ञात आकाशदूत ने उसे भी उपहारस्वरूप रानी को भेंट किया। तुभ नहीं देखते कि पहाड़ों में, पत्थरों के हृदय से रंग-बिरंगे मोती निकलते हैं। सूर्य को तो उसके मुकुट या ख़याल रहता है, वरना उसे मोतियों से क्या काम? यदि वह (महारानी विक्टोरिया) मोती लुटाने की चेष्टा करे और लुटा दे तो इतने अनगिनत मोती बिखर जाएँगे कि अगर उन्हें कोई गिनना चाहेगा तो उसकी उँगलियाँ घिस जाएँगी। उसकी सेना, जो लड़ाई के समय दरियाओं और पहाड़ों को भी तहस-नहस कर देती है यदि ऐसा हो तो पहाड़ों में छिपे नाग और दरियाओं में छिपे मगरमच्छ सिर पटककर मर जाएँगे। उसकी साज-सज्जा का हाल यह है कि महान से महान राजा उसके भिखारी हैं। उसके प्रकाश और उसकी प्रज्वलता के कारण ही आकाश में सूर्य चमक रहा है तथा बादलों में बरसने की क्षमता विद्यमान है।
वह अपने व्यक्तिगत दान-दक्षिणा से ज्ञानियों की झोली भर देती है, साथ ही अन्य लोग, जो इन ज्ञानियों से शिक्षा पाते हैं, वे भी बुद्धिमत्ता से परिपूर्ण हो जाते हैं।
उसके व्यक्तित्व में जो दान प्रदान करने की भावना है उसे देखकर आश्चर्य होता है। इस महारानी का नाम विक्टोरिया है।
यदि मैंने महारानी के हाथ से कुछ दान प्राप्त कर लिया, तो मेरा इस संसार में रहना व्यर्थ न होगा।
जब बात यहाँ तक आ पहुँची तो मैंने मौन धारण कर लिया क्योंकि मैं कहानी कहना नहीं चाहता।
इस किताब के पूरे हो जाने के बाद इसका नाम ‘दस्तंबू’ रखा गया। यह किताब लोगों को बाँटी गई और इधर-उधर भेजी गई ताकि पढ़-लिखकर लोगों के मन को सन्तुष्टि मिले और लेखक इसकी लेखन-शैली पर मुग्ध हो सकें।
आशा है कि ज्ञान का यह ख़ज़ाना न्यायप्रिय लोगों के हाथों में महकता-चमकता हुआ पुष्पहार सिद्ध होगा तथा यही अमानुषों की आँखों में आग का गोला बनेगी। आमीन!
हमारे विचार
जो सदैव हर्ष एवं उल्लास से पूर्ण रहते हैं
उसका कारण केवल यह है
कि हम आसमान के भेदों का श्रोत हैं
यह पुस्तक भी ईरान की धार्मिक पुस्तकों का ही एक भाग है
इस रचना के आधार पर हम अपने आपको
सासानी वंश का छंग शासक कह सकते हैं।
[स्रोत : दस्तंबू , मिर्ज़ा ग़ालिब की डायरी, 1857 ;
मूल फ़ारसी से अनुवाद : डॉ. सैयद ऐनुल हसन ]

मिर्ज़ा ग़ालिब
मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” (1796 – 1869) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। इनको उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है।