ईश्वर अगर फूल और वृक्ष है

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 (रानीखेत; जुलाई, 1975)

कहते हैं, आदमी को पूरी निर्ममता से अपने अतीत में किये कार्यों की चीर-फाड़ करनी चाहिए, ताकि वह इतना साहस जुटा सके कि हर दिन थोड़ा-सा जी सके। लेकिन जब वह अपने अतीत को देखता है, तो एक अँधेरी सुरंग में चला जाता है, हर कदम किसी पाप, और फिर उससे भी बड़े पाप की ओर बढ़ता हुआ। प्रलोभन और अभिमान (लोभ और अहंकार) का पाप, जीवन से अधिक और जीने की वासना का पाप, सैकड़ों वासनाएँ आग की लपट पर मँडराती हुई, एक-एक पतिंगे की तरह जलती हुई।

लेकिन सब नहीं – कुछ वासनाएँ लौ के ऊपर अपने एकान्त में झुलसती रहती हैं जबकि वह उनके मरने की प्रतीक्षा और प्रार्थना करता रहता है। उनके मरण की प्रतीक्षा करता हुआ लेकिन उनकी राख में स्वयं को मिटाने की प्रार्थना करता हुआ, ताकि यह उसमें से अपनी खोई हुई पवित्रता को प्राप्त कर सके…यह कैसा अन्तर्विरोध है, वह अपनी पवित्रता को उन्हीं वासनाओं की राख से पुनर्जीवित करना चाहता है, जिन्हें वह छोड़ना नहीं चाहता या शायद चाहता है लेकिन छोड़ नहीं पाता।

रानीखेत में चीड़ के पेड़ हर जगह दिखाई देते हैं, लेकिन मैं उनके प्रति आकर्षित नहीं हो पाता, न ही उनसे कोई आत्मीय रिश्ता जोड़ पाता हूँ लेकिन ज्यों ही मेरी नज़र किसी देवदार पर पड़ती है, मेरे भीतर बरबस कुछ उमगने लगता है – क्या है यह? क्या कोई बचपन की स्मृति मुझे इनकी तरफ खींचती है? शिमला में कितने देवदार दिखाई देते थे।

रिल्के की ये पंक्तियाँ कहीं पिछले वर्षों की मेरी मनोदशा को प्रकट करती है-
मेरा आन्तरिक जीवन पिछले महीनों में अव्यवस्थित हो गया है,
और मेरा मौजूदा अकेलापन एक तरह से मेरे मन पर बंधी प्लास्टर पट्टी है,
जिसके भीतर कुछ धीरे-धीरे तिरोहित हो रहा है।
इसके आगे वह लिखते हैं :
मैंने जो व्यवसाय चुना है, उससे ज्यादा ईर्ष्यालु शायद कोई और चीज़ नहीं। यह जानते हुए भी कि मेरी कोई भिक्षुक की ज़िन्दगी नहीं है, जो मोनेस्ट्री की कोठरी में सारी दुनिया से अलग-थलग रहता है, मुझे धीरे-धीरे अपने इर्द-गिर्द एक मोनेस्ट्री बनानी चाहिए ताकि मैं दीवारों से घिरा हुआ दुनिया के सामने खड़ा हो सकूँ,सिर्फ़ ईश्वर और सन्त मेरे भीतर हों, बहुत सुन्दर औजारों और प्रतिमाओं के साथ …
 

स्तान्ढाल की पुस्तक ब्रूनार्ड की ज़िन्दगी  पढ़ते हुए मुझे एक बहुत सजीव अनुभूति हुई मानो मैं एक पहाड़ी झरने का साफ, शीतल जल पी रहा हूँ। शायद सब सरल और गहरे सत्य यही अनुभूति देते हैं और यह पुस्तक इन सत्यों का प्रत्यक्षीकरण, ‘क्रिस्टलनहै।

शाम को जब हवा का वेग बढ़ता है और चीड़ की टहनियाँ पागलों-सी डोलती हैं-मैं अपने से नितान्त निस्संग हो जाता हूँ और अपने को बाहर की शक्तियों के प्रति समर्पित कर देता हूँ – हिलते हए वृक्ष, तारे, भुतैली-सी चाँदनी चीड़ों पर चमकती हुई और तब किसी विराट बोध के समक्ष मेरा दिल सिहरने लगता है, जो आख़िरी क्षण मेरे हाथों से फिसल जाता है, जैसे ही मुझे लगता है कि मैंने उसे पा लिया है। मैंने कभी ईश्वर में विश्वास नहीं किया, किन्तु इन दिनों, ख़ासकर रात के समय, जब चाँद निकलता है, मैं अपने को उसके बहुत निकट पाता हूँ, ईश्वर के नहीं बल्कि उस रहस्यके जो उसके नाम के चारों ओर फैला है, जिसके साथ मेरा हर रोज़ साक्षात्कार होता है, सूरज और बादलों में, पेड़ और चाँद जो बादलों के कुशन पर थिर रहते हैं और बादल तारों के बीच तिरते जाते हैं, उस पपड़ी को धो डालते हैं, जो मेरी आत्मा पर जम गयी थी और एक बार धुलने के बाद वह अपने में लपेट लेता है मुझे नहीं, मेरे दिल और भावनाओं को नहीं, लेकिन उसे जो मुझे आवृत्त किये रहता है – मेरे नंगे नैसर्गिक जीवत्व को।

जब मैं अपने चारों ओर देखता हूँ, तो मुझे अपनी नज़रकी विपन्नता महसूस होती है। मुझे लगता है कि मैंने ठीक से उसका उपयोग नहीं किया, जो विधाता ने मुझे चमत्कार की तरह दिया था, जो देखने की क्षमता में सन्निहित है। मुझे अपनेइम्प्रेशन्सको पकड़ने के लिए शब्दों को टटोलना, खोजना, बनाना बंद कर देना चाहिए। आँखें टूरिस्टनहीं हैं, जो इम्प्रेशन्स जमा करती हैं, वे चिरन्तन फक्कड़ भटकने वाली यात्री हैं, जो लुटाने में ही बचत करती जाती हैं, और सब कुछ लुटाने के बाद जो बचा रहता है, वही असली बचत है जो हमारे अस्तित्व के मूल में रहता है और चाहे उस क्षण हमें कोई शब्द न मिले, जो हम देखते हैं, उसकी सघन विस्मयाकुलता और हमारा समर्पण, उफान में जबरदस्ती अपने कगारों के परे बह जाना, किसी दूसरी दुनिया में चले जाना— अन्ततः यह बचा रहता है, हमारी स्मृतियों में नहीं, बल्कि हमारी आत्मा के अन्तरतम तलों में।

कुछ दिन पहले मैं अचानक अर्द्धरात्रि में जाग गया
, बाहर बरामदे में आया, जोएटिकसे जुड़ा है, जहाँ मैं पहले सोया करता था। वहाँ खड़े होकर मैं चीड़ को देखने लगा, जिनकी कटी-छँटी रूपरेखा अँधेरे में एक चित्र-सी खिंची थी। गहरी निस्तब्धता। मैं अपनी साँसें सुन सकता था। हवा नहीं थी, चाँद भी नहीं। सिर्फ तारे और निस्तब्धता-और पेड़ निश्चल खड़े थे, एक-दूसरे से सटे हुए, उनकी फुनगियाँ तारों को छूती हुई। सबसे विस्मयकारी बात यह थी कि जब वे अपने में लिपटे, स्थिर थे, शान्त और आत्म-अन्तनिष्ट, मैंने अपने को उनके बीच अनामन्त्रित नहीं पाया, कोई बाहर का दर्शक नहीं, बल्कि हमेशा उनके साथ रहने वाला जीव, उतना ही अलग-थलग और अकेला जितना वे थे, किन्तु अपने अकेलेपन में उनसे अलग नहीं। उनके सान्निध्य में ही मैंने सीखा था कि अपने एकांत में रहकर भी पीड़ा मुक्त रहा जा सकता है। मैंने देखा, अपनी शान्त निश्चलता में वे कितने भव्य, ग्रेसफल और शक्तिमान दिखाई देते हैं, शायद इसलिए कि वे अपनेग्रहपथसे इतनी गहराई से जुड़े हैं, आकाश के नक्षत्र, धरती में धंसे वृक्ष। उनकी यह बद्धमूलता ही है जो इनके और हमारे अकेलेपन को इतनी गरिमा देती है।
किन्तु ईश्वर अगर फूल और वृक्ष है।
पहाड़ियाँ, सूरज और चाँदनी,
तब मैं उसमें विश्वास करता हूँ।
तब मैं हर घड़ी उसमें विश्वास करता हूँ
तब मेरा समूचा जीवन एक प्रार्थना और यज्ञ है
आँखों और कानों में रचता एक समागम।
                                      –पेसोआ
जब सुबह उठा, बारिश गिरती दिखाई दी। घर के चारों ओरपानी के काले, गहरे चहबच्चे, छोटे-छोटे तालाब। क्या ऐसी सुबह कुछ भी स्थिर, शान्त भाव से लिखा सकता है? उन आधे वाक्यों को कैसे पूरा किया जाए, जो कल इस पन्ने पर जन्मे थे? बारिश समय की नीरव, समरस गति को तोड़ जाती है – कुछ भी नहीं होता, सिवाय खाली आँखों से गिरती हुई बारिश को देखने के…
वह जंगल का सन्नाटा है, जिसमें अनेक तरह की आवाज़ें धुन्ध की तरह उठती हैं, लेकिन उसके मौन को भंग करने के बजाय और गहरा करती हैं – कुत्ते का वीरान भौंकना, छत पर गिरती हुई टप-टप, झींगुरों की अनवरत तान जिन्हें अगर बराबर सुनते रहो तो वे आवाजें नहीं, रात की निस्तब्धता के उड़ते हुए अणु जान पड़ते हैं। बाहर अँधेरे के गोपनीय कोटरों से मच्छरों और पतिंगों के आत्मघाती झुंड आते हैं और बरामदे की रोशनी पर सिर धुनते हुए भस्म हो जाते हैं।
मैं रिल्के के पत्र पढ़ता हूँ। वे इन दिनों मेरा एकमात्र सम्बल, सहारा हैं। मैं उन्हें पाठकी तरह हर दिन पढ़ता हैं, जैसे कोई रोगी समय के अनुसार औषध लेता है, अपनी पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए नहीं बल्कि उसे साफ-सुथरा बनाने के लिए, जैसे हम किसी जंगल की झोंपड़ी बुहारते हैं, कुछ दिन वहाँ रहने के लिए, वहाँ से दुनिया को देखने, सहने के लिए।

ये पत्र कहीं परोक्ष रूप से लिखने के साथ भी जुड़े हैं … इन दिनों मैंने अपने बारे में यह परम सत्य पाया है, कि मेरा अकेलापन वह यथार्थ है, जो ‘फैन्टेसीको रूपायित करेगा, सिर्फ़ उसे फॉर्म नहीं देगा, बल्कि उसकी त्वचा नीचे अर्थ को खोजेगा, जो सिर्फ़ मेरा है और जिसे मैं यज्ञाहुतिकी तरह उस पर चढ़ा सकूँगा, जो मैंने सृजित किया है, अर्थ जो चढ़ाया हुआ भोग भी है बचा हुआ प्रसाद भी।

मुझे ईश्वर में विश्वास नहीं है, फिर भी न जाने कैसे एक विचित्र स्नेहिल-सी कोमलता मेरे अस्तित्व के गहनतम तल में भाप-सी उठने लगती है जब मैं अपने लेखन में कभी ईश्वरका नाम लिखता हूँ।

अगर कोई मुझे एक इच्छा पूरी करने का वरदान दे, तो मैं बार-बार एक ही दान माँगूँगा – जो मेरे जीवन और लेखन के बीच की खाई पाट सके। मेरे लिए उससे बड़ा सुख कोई नहीं, इससे गहरी कामना कोई नहीं।
 
पहली बार में वह लिख रहा हूँ जो महसूस करता हूँ, वह नहीं जो मुझे महसुस करना चाहिए। शायद यह एक कदम हैं-छोटा कदम-अपनी तरफ बढ़ने का, अपने साथ ही और जीने का…

(धुन्ध से उठती धुन – निर्मल वर्मा की पुस्तक से) 
निर्मल वर्मा
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निर्मल वर्मा (03/04/1929 – 25/10/2005) हिंदी के मूर्धन्य कथाकार और पत्रकार रहे. उन्हें ‘नयी कहानी साहित्यिक आन्दोलन’ के लिए भी श्रेय दिया जाता है. उन्हें 1985 में साहित्य अकादमी, 1999 में ज्ञानपीठ और 2002 में पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया. उन्हें ‘परिंदे’ और ‘अंतिम अरण्य’ जैसी कृतियों के लिए याद किया जाता है.

निर्मल वर्मा (03/04/1929 – 25/10/2005) हिंदी के मूर्धन्य कथाकार और पत्रकार रहे. उन्हें ‘नयी कहानी साहित्यिक आन्दोलन’ के लिए भी श्रेय दिया जाता है. उन्हें 1985 में साहित्य अकादमी, 1999 में ज्ञानपीठ और 2002 में पद्म भूषण से भी सम्मानित किया गया. उन्हें ‘परिंदे’ और ‘अंतिम अरण्य’ जैसी कृतियों के लिए याद किया जाता है.

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