नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने
मैं बुलाता तो हूँ उस को मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल
उस पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने
खेल समझा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए
काश यूँ भी हो कि बिन मेरे सताए न बने
ग़ैर फिरता है लिए यूँ तिरे ख़त को कि अगर
कोई पूछे कि ये क्या है तो छुपाए न बने
इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या
हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने
कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है
पर्दा छोड़ा है वो उस ने कि उठाए न बने
मौत की राह न देखूँ कि बिन आए न रहे
तुम को चाहूँ कि न आओ तो बुलाए न बने
बोझ वो सर से गिरा है कि उठाए न उठे
काम वो आन पड़ा है कि बनाए न बने
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने

मिर्ज़ा ग़ालिब
मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” (1796 – 1869) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। इनको उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना जाता है और फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी इनको दिया जाता है।