ननद-भौजाई

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पदुमा बहुत दुखी और अत्यन्त चिन्तित-सी आँगन में आई। आँखों में अपराध और पश्चात्ताप की सलज्ज रेखा थी। अपनी भौजी से बिना कुछ बोले ही, पूरब की कोठरी में घुस गई। रसोईघर से भौजी ने पूछा, “लाल दाई हैं क्या?”

बिना कोई उत्तर दिए, पदुमा आईना-कंघी लेकर घर से बाहर आई और आँगन में रखी चटाई पर बैठ गई, अत्यन्त उदास-सी।

पसीने से भीगे मुँह को आँचल से पोछती हुई रामगंजवाली, रसोईघर से बाहर हुई और ननद के उदास नेत्र, शिथिल चेष्टा और झुके मस्तक को देखकर सन्न हो गई -“रुपये-आठ आने भी नहीं मिले क्या?”

नजदीक आकर, बड़े स्नेह से पदुमा के मस्तक पर हाथ फेरती, रामगंजवाली बोली, “क्यों भई? इस तरह मन क्यों दुखी है? बंगट बाबू से भेंट नहीं हुई क्या?”

“नहीं, भौजी, ऐसी बात नहीं है! बंगट से तो भेंट हुई थी, दो रुपये भी दिए हैं, लेकिन एक विचित्र बात हो गई। ओह अनर्थ हो गया, भौजी! मैं आपसे क्या कहूँ।” – सूखे होंठों को जीभ से चाटती हुई पदुमा बोली।

आँचल में बँधे एक रुपये के दो नोट निकालकर पदुमा ने भौजी के हाथ में रख दिए। भौजी की चिन्ता समाप्त हुई – अब कुछ भी हो। हाथ में दो रुपये हैं तब कौन चिन्ता, किस बात की चिन्ता?

पदुमा और पदुमा की भौजी दोनों विधवा हैं। पदुमा की उम्र तेईस-चौबीस, रामगंज-वाली की बत्तीस तैंतीस। और दोनों निस्सन्तान, दोनों स्वाधीन प्रकृति की।

पदुमा का गाँव, वनग्राम बहुत विशाल गाँव है। गाँव में हाईस्कूल, थाना, पोस्ट ऑफिस, अस्पताल और हाट-बाज़ार । इसीलिए इन दो विधवा ब्राह्मणियों का जीवन-निर्वाह कोई बड़ी बात नहीं है। दो हज़ार घर की इस बस्ती में दो सौ बंगट अवश्य ही हैं।

लेकिन फिर भी आज रात पदुमा बहुत दुखिता थी। भौजी ने फिर पूछा, “लाल दाई! आप बहुत बच्चों की तरह करती हैं। इस तरह काम नहीं चलेगा। मुझे बताइए, क्या हुआ है। कहीं रास्ते में थानावालों ने तो नहीं पकड़ लिया? आजकल रात-भर सिपाही लोग गाछियों में ही भटकते रहते हैं।”

“किसी सिपाही की मजाल है कि मुझे पकड़ेगा। मुझे क्या दरोगा साहब नहीं पहचानते हैं? मैं आपको कैसे कहूँ कि क्या हुआ है, भौजी! यही समझिए कि मैं जीवित नहीं मर गई हूँ।”

भौजी हँसी, “यह तो समझी कि आप मर गईं! लेकिन यह कहिए कि किसने मारा, कैसे मरीं।”

तब, पदुमा ने अपनी रात्रि-कथा प्रारम्भ की –

“मन्दिर के पास ही बंगट मिल गया। मन्दिर के पिछवाड़े में ले जाकर मैंने कहा, ‘ओए बंगट, पाँच रुपये चाहिए।’ वह बोला, ‘तुम भुतही गाछी की ओर चलो, मैं रुपये लेकर आता हूँ।’ मन्दिर में और करने का साहस नहीं हुआ उसे। मैं भुतही गाछी में पाकड़ के पेड़ के नीचे खड़ी-खड़ी उसका रास्ता देखती रही। बहुत देर बाद बंगट आया। मेरे ब्लाउज़ में दो रुपये खोंस दिया और हाथ पकड़ते हुए बोला, ‘अभी दो ही रुपये हुए। बाकी तीन अलस्सुबह आकर दे दूँगा।’ और फिर काफ़ी देर तक चुम्मा-चाटी लेता रहा। मैं हड़बड़ाई हुई थी कि अधिक देर हो जाएगी तो भौजी बिगड़ेंगी, लेकिन वह छोड़ता ही नहीं था। कभी बाँहों में भर ले, कभी और ही कुछ करे। तब मेरा मन भी अपने काबू में नहीं रहा, लगा जैसे समूची गाछी झूला बन गई हो और मैं बंगट के साथ आकाश में उड़ी जा रही हूँ।”

अकस्मात् पदुमा को बाँहों में भरकर ज़ोर से दबाती हुई रामगंजवाली बोली, “लाल दाई, बात को इतना मत छितराइए। यह कहिए कि फिर क्या हुआ?”

पदुमा कहती रही, “तब बंगट ने मुझे निर्वस्त्र कर दिया। मुझे तो समझ लीजिए कोई होश नहीं था। लेकिन इतने में ज़ोर-ज़ोर से गीत गाता एक सिपाही गाछी में घुसा। सिपाही को देखते ही बंगट उसी अवस्था में मुझे छोड़कर भागा। मुझसे रहा नहीं गया। कैसा भीरु था वह। मैं भी बंगट के पीछे-पीछे दौड़ी। लेकिन वह तो अँधेरी गाछी में अदृश्य हो गया। लाख खोजूँ, मिले ही नहीं। एक-दो बार नाम लेकर भी चिल्लाई, कोई पता नहीं। वह सिपाहिया तो अपना रास्ता पकड़े चला गया था और मैं गाछी-गाछी ही भटकती रही।

बहुत देर बाद कहीं से बंगट चिल्लाया, ‘पदुमा! अरी ओ पदुमा! दौड़ो री।’ जिधर से बंगट के शब्द आए थे, उधर ही दौड़ी। देखती हूँ, एक गाछ के नीच बंगट नंगा पड़ा है छटपटा रहा है, चिचिया रहा है। लेकिन भौजी मैं तो जैसे भाँग खाई मस्त थी। चाँदनी रात में बंगट की समूची देह, सारे अंग एकबारगी देखकर रहा नहीं गया। रत्ती-भर भी होश नहीं रहा कि कहाँ हूँ, क्या कर रही हूँ, क्यों कर रही हूँ। इससे अधिक क्या कहूँ, भौजी, इसके बाद क्या हुआ वह अभी भी याद नहीं आता है। लेकिन जब होश आया तो देखती हूँ कि बंगट नहीं है, मात्र उसका शरीर ही है।”

“बाप रे!”- रामगंजवाली चिल्लाई। पदुमा भी चिल्लाई, “भौजी, बंगट को साँप ने काट लिया था, इसीलिए वह मेरा नाम लेकर चिल्लाया था। भौजी, मैं मरे हुए व्यक्ति के साथ सोई, अब कैसे बचूँगी।”

पदुमा रोने लगी। बहुत देर तक रोती रही।

तब भौजी ने कहा, “लाल दाई, जाइए, तालाब से नहा आइए और देह पर गंगाजल छींट लीजिए। और कर ही क्या सकती हैं। जब जीवित पुरुष के साथ सोने में कोई लाज ही नहीं तो मृत पुरुष से क्या लाज?”

पदुमा उठकर नहाने हेतु विदा हो गई।

राजकमल चौधरी

राजकमल चौधरी (1929 - 1967) हिंदी और मैथिली के प्रसिद्ध कवि एवं कहानीकार थे। मैथिली में स्वरगंधा, कविता राजकमलक आदि कविता संग्रह, एकटा चंपाकली एकटा विषधर (कहानी संग्रह) तथा आदिकथा, फूल पत्थर एवं आंदोलन उनके चर्चित उपन्यास हैं।

राजकमल चौधरी (1929 - 1967) हिंदी और मैथिली के प्रसिद्ध कवि एवं कहानीकार थे। मैथिली में स्वरगंधा, कविता राजकमलक आदि कविता संग्रह, एकटा चंपाकली एकटा विषधर (कहानी संग्रह) तथा आदिकथा, फूल पत्थर एवं आंदोलन उनके चर्चित उपन्यास हैं।

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