लिहाफ़

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जब मैं जाड़ों में लिहाफ़ ओढ़ती हूँ तो पास की दीवार पर उसकी परछाई हाथी की तरह झूमती हुई मालूम होती है। और एकदम से मेरा दिमाग बीती हुई दुनिया के पर्दों में दौड़ने-भागने लगता है। न जाने क्या कुछ याद आने लगता है।

माफ कीजियेगा, मैं आपको ख़ुद अपने लिहाफ़ का रूमानअंगेज ज़िक्र बताने नहीं जा रही हूँ, न लिहाफ़ से किसी किस्म का रूमान जोड़ा ही जा सकता है। मेरे ख़याल में कम्बल कम आरामदेह सही, मगर उसकी परछाई इतनी भयानक नहीं होती जितनी – जब लिहाफ क़ी परछाई दीवार पर डगमगा रही हो। यह जब का ज़िक्र है, जब मैं छोटी-सी थी और दिन-भर भाइयों और उनके दोस्तों के साथ मार-कुटाई में गुजार दिया करती थी। कभी-कभी मुझे ख़याल आता कि मैं कमबख्त इतनी लड़ाका क्यों थी? उस उम्र में जबकि मेरी और बहनें आशिक़ जमा कर रही थीं, मैं अपने-पराये हर लड़के और लड़की से जूतम-पैजार में मशगूल थी। यही वजह थी कि अम्माँ जब आगरा जाने लगीं तो हफ्ता-भर के लिए मुझे अपनी एक मुँहबोली बहन के पास छोड़ गयीं। उनके यहाँ, अम्माँ खूब जानती थी कि चूहे का बच्चा भी नहीं और मैं किसी से भी लड-भिड न सकूँगी। सजा तो खूब थी मेरी! हाँ, तो अम्माँ मुझे बेग़म जान के पास छोड़ गयीं। वही बेग़म जान जिनका लिहाफ़ अब तक मेरे जहन में गर्म लोहे के दाग़ की तरह महफूज़ है। ये वो बेग़म जान थीं जिनके गरीब माँ-बाप ने नवाब साहब को इसलिए दामाद बना लिया कि गो वह पकी उम्र के थे मगर निहायत नेक। कभी कोई रण्डी या बाजारी औरत उनके यहाँ नजर न आयी। ख़ुद हाज़ी थे और बहुतों को हज़ करा चुके थे।

मगर उन्हें एक निहायत अजीबो-गरीब शौक था। लोगों को कबूतर पालने का जुनून होता है, बटेरें लड़ाते हैं, मुर्गबाजी करते हैं – इस किस्म के वाहियात खेलों से नवाब साहब को नफ़रत थी। उनके यहाँ तो बस तालिब-ए-इल्म रहते थे। नौजवान, गोरे-गोरे, पतली कमरों के लड़के, जिनका ख़र्च वे ख़ुद बर्दाश्त करते थे।

मगर बेग़म जान से शादी करके तो वे उन्हें कुल साजो-सामान के साथ ही घर में रखकर भूल गये। और वह बेचारी दुबली-पतली नाजुक़-सी बेग़म तन्हाई के गम में घुलने लगीं। न जाने उनकी जिन्दगी कहाँ से शुरू होती है? वहाँ से जब वह पैदा होने की ग़लती कर चुकी थीं, या वहाँ से जब एक नवाब की बेग़म बनकर आयीं और छपरखट पर जिन्दगी गुजारने लगीं, या जब से नवाब साहब के यहाँ लड़कों का जोर बँधा। उनके लिए मुरग्गन हलवे और लजीज़ खाने जाने लगे और बेग़म जान दीवानखाने की दरारों में से उनकी लचकती कमरोंवाले लड़कों की चुस्त पिण्डलियाँ और मोअत्तर बारीक शबनम के कुर्ते देख-देखकर अंगारों पर लोटने लगीं।

या जब से वह मन्नतों-मुरादों से हार गयीं, चिल्ले बँधे और टोटके और रातों की वजीफ़ाख्वानी भी चित हो गयी। कहीं पत्थर में जोंक लगती है! नवाब साहब अपनी जगह से टस-से-मस न हुए। फिर बेग़म जान का दिल टूट गया और वह इल्म की तरफ मोतवज्जा हुई। लेकिन यहाँ भी उन्हें कुछ न मिला। इश्क़िया नावेल और जज्बाती अशआर पढ़कर और भी पस्ती छा गयी। रात की नींद भी हाथ से गयी और बेग़म जान जी-जान छोड़कर बिल्कुल ही यासो-हसरत की पोट बन गयीं।

चूल्हे में डाला था ऐसा कपड़ा-लत्ता। कपड़ा पहना जाता है किसी पर रोब गाँठने के लिए। अब न तो नवाब साहब को फ़ुर्सत कि शबनमी कुर्तों को छोडक़र जरा इधर तवज्जा करें और न वे उन्हें कहीं आने-जाने देते। जब से बेग़म जान ब्याहकर आयी थीं, रिश्तेदार आकर महीनों रहते और चले जाते, मगर वह बेचारी कैद की कैद रहतीं।

उन रिश्तेदारों को देखकर और भी उनका खून जलता था कि सबके सब मजे से माल उड़ाने, उम्दा घी निगलने, जाडे का साजो-सामान बनवाने आन मरते और वह बावजूद नई रूई के लिहाफ़ के, पड़ी सर्दी में अकड़ा करतीं। हर करवट पर लिहाफ नयी-नयी सूरतें बनाकर दीवार पर साया डालता। मगर कोई भी साया ऐसा न था जो उन्हें जिन्दा रखने लिए काफी हो। मगर क्यों जिये फिर कोई? जिन्दगी! बेग़म जान की जिन्दगी जो थी! जीना बदा था नसीबों में, वह फिर जीने लगीं और खूब जीं।

रब्बो ने उन्हें नीचे गिरते-गिरते सँभाल लिया। चटपट देखते-देखते उनका सूखा जिस्म भरना शुरू हुआ। गाल चमक उठे और हुस्न फूट निकला। एक अजीबो-गरीब तेल की मालिश से बेगम जान में जिन्दगी की झलक आयी। माफ क़ीजियेगा, उस तेल का नुस्खा आपको बेहतरीन-से-बेहतरीन रिसाले में भी न मिलेगा।

जब मैंने बेग़म जान को देखा तो वह चालीस-बयालीस की होंगी। ओफ्फोह! किस शान से वह मसनद पर नीमदराज़ थीं और रब्बो उनकी पीठ से लगी बैठी कमर दबा रही थी। एक ऊदे रंग का दुशाला उनके पैरों पर पड़ा था और वह महारानी की तरह शानदार मालूम हो रही थीं। मुझे उनकी शक्ल बेइन्तहा पसन्द थी। मेरा जी चाहता था, घण्टों बिल्कुल पास से उनकी सूरत देखा करूँ। उनकी रंगत बिल्कुल सफेद थी। नाम को सुर्खी का जिक़्र नहीं। और बाल स्याह और तेल में डूबे रहते थे। मैंने आज तक उनकी माँग ही बिगड़ी न देखी। क्या मजाल जो एक बाल इधर-उधर हो जाये। उनकी आँखें काली थीं और अबरू पर के जायद बाल अलहदा कर देने से कमानें-सीं खिंची होती थीं। आँखें जरा तनी हुई रहती थीं। भारी-भारी फूले हुए पपोटे, मोटी-मोटी पलकें। सबसे जियाद जो उनके चेहरे पर हैरतअंगेज ज़ाजिबे-नजर चीज थी, वह उनके होंठ थे। अमूमन वह सुर्खी से रंगे रहते थे। ऊपर के होंठ पर हल्की-हल्की मूंछे-सी थीं और कनपटियों पर लम्बे-लम्बे बाल। कभी-कभी उनका चेहरा देखते-देखते अजीब-सा लगने लगता था – कम उम्र लडक़ों जैसा।

उनके जिस्म की जिल्द भी सफेद और चिकनी थी। मालूम होता था किसी ने कसकर टाँके लगा दिये हों। अमूमन वह अपनी पिण्डलियाँ खुजाने के लिए किसोलतीं तो मैं चुपके-चुपके उनकी चमक देखा करती। उनका कद बहुत लम्बा था और फिर गोश्त होने की वजह से वह बहुत ही लम्बी-चौडी मालूम होतीं थीं। लेकिन बहुत मुतनासिब और ढला हुआ जिस्म था। बड़े-बड़े चिकने और सफेद हाथ और सुडौल कमर ..तो रब्बो उनकी पीठ खुजाया करती थी। यानी घण्टों उनकी पीठ खुजाती – पीठ खुजाना भी जिन्दगी की जरूरियात में से था, बल्कि शायद जरूरियाते-जिन्दगी से भी ज्यादा।

रब्बो को घर का और कोई काम न था। बस वह सारे वक्त उनके छपरखट पर चढी कभी पैर, कभी सिर और कभी जिस्म के और दूसरे हिस्से को दबाया करती थी। कभी तो मेरा दिल बोल उठता था, जब देखो रब्बो कुछ-न-कुछ दबा रही है या मालिश कर रही है।

कोई दूसरा होता तो न जाने क्या होता? मैं अपना कहती हूँ, कोई इतना करे तो मेरा जिस्म तो सड़-ग़ल के खत्म हो जाय। और फिर यह रोज-रोज क़ी मालिश काफी नहीं थीं। जिस रोज बेगम जान नहातीं, या अल्लाह! बस दो घण्टा पहले से तेल और खुशबुदार उबटनों की मालिश शुरू हो जाती। और इतनी होती कि मेरा तो तख़य्युल से ही दिल लोट जाता। कमरे के दरवाजे बन्द करके अँगीठियाँ सुलगती और चलता मालिश का दौर। अमूमन सिर्फ रब्बो ही रही। बाकी की नौकरानियाँ बड़बड़ाती दरवाजे पर से ही, जरूरियात की चीजें देती जातीं।

बात यह थी कि बेगम जान को खुज़ली का मर्ज़ था। बिचारी को ऐसी खुजली होती थी कि हजारों तेल और उबटने मले जाते थे, मगर ख़ुजली थी कि कायम। डाक्टर-हकीम कहते, ”कुछ भी नहीं, जिस्म साफ चट पडा है। हाँ, कोई जिल्द के अन्दर बीमारी हो तो खैर।” नहीं भी, ये डाक्टर तो मुये हैं पागल! कोई आपके दुश्मनों को मर्ज़ है? अल्लाह रखे, खून में गर्मी है! रब्बो मुस्कराकर कहती, महीन-महीन नजरों से बेगम जान को घूरती! ओह यह रब्बो! जितनी यह बेगम जान गोरी थीं उतनी ही यह काली। जितनी बेगम जान सफेद थीं, उतनी ही यह सुर्ख। बस जैसे तपाया हुआ लोहा। हल्के-हल्के चेचक के दाग। गठा हुआ ठोस जिस्म। फुर्तीले छोटे-छोटे हाथ। कसी हुई छोटी-सी तोंद। बडे-बडे फ़ूले हुए होंठ, जो हमेशा नमी में डूबे रहते और जिस्म में से अजीब घबरानेवाली बू के शरारे निकलते रहते थे। और ये नन्हें-नन्हें फूले हुए हाथ किस कदर फूर्तीले थे! अभी कमर पर, तो वह लीजिए फिसलकर गये कूल्हों पर! वहाँ से रपटे रानों पर और फिर दौड़े टख़नों की तरफ़! मैं तो जब कभी बेग़म जान के पास बैठती, यही देखती कि अब उसके हाथ कहाँ हैं और क्या कर रहें हैं?

गर्मी-जाड़े बेग़म जान हैदराबादी जाली कारगे के कुर्ते पहनतीं। गहरे रंग के पाजामे और सफेद झाग-से कुर्ते। और पंखा भी चलता हो, फिर भी वह हल्की दुलाई जरूर जिस्म पर ढके रहती थीं। उन्हें जाड़ा बहुत पसन्द था। जाड़े में मुझे उनके यहाँ अच्छा मालूम होता। वह हिलती-डुलती बहुत कम थीं। कालीन पर लेटी हैं, पीठ ख़ुजा रही हैं, खुश्क़ मेवे चबा रही हैं और बस! रब्बो से दूसरी सारी नौकरियाँ खार खाती थीं। चुड़ैल बेगम जान के साथ खाती, साथ उठती-बैठती और माशा अल्लाह! साथ ही सोती थी! रब्बो और बेगम जान आम जलसों और मजमूओं की दिलचस्प गुफ्तगू का मौज़ूं थीं। जहाँ उन दोनों का जिक़्र आया और कहकहे उठे। लोग न जाने क्या-क्या चुटकुले गरीब पर उड़ाते, मगर वह दुनिया में किसी से मिलती ही न थी। वहाँ तो बस वह थीं और उनकी ख़ुजली!

मैंने कहा कि उस वक्त मैं काफी छोटी थी और बेगम जान पर फिदा। वह भी मुझे बहुत प्यार करती थीं। इत्तेफाक से अम्माँ आगरे गयीं। उन्हें मालूम था कि अकेले घर में भाइयों से मार-कुटाई होगी, मारी-मारी फिरूँगी, इसलिए वह हफ्ता-भर के लिए बेग़म जान के पास छोड़ ग़यीं। मैं भी खुश और बेग़म जान भी खुश। आखिर को अम्माँ की भाभी बनी हुई थीं।

सवाल यह उठा कि मैं सोऊँ कहाँ? कुदरती तौर पर बेग़म जान के कमरे में। लिहाज़ा मेरे लिए भी उनके छपरखट से लगाकर छोटी-सी पलँगड़ी डाल दी गयी। दस-ग्यारह बजे तक तो बातें करते रहे। मैं और बेग़म जान चांस खेलते रहे और फिर मैं सोने के लिए अपने पलंग पर चली गयी। और जब मैं सोयी तो रब्बो वैसी ही बैठी उनकी पीठ ख़ुजा रही थी। भंगन कहीं की! मैंने सोचा। रात को मेरी एकदम से आँख खुली तो मुझे अजीब तरह का डर लगने लगा। कमरे में घुप अँधेरा। और उस अँधेरे में बेगम जान का लिहाफ़ ऐसे हिल रहा था, जैसे उसमें हाथी बन्द हो!

”बेग़म जान!” मैंने डरी हुई आवाज निकाली। हाथी हिलना बन्द हो गया। लिहाफ़ नीचे दब गया।

”क्या है? सो जाओ।”

बेग़म जान ने कहीं से आवाज दी।

”डर लग रहा है।”

मैंने चूहे की-सी आवाज से कहा।

”सो जाओ। डर की क्या बात है? आयतलकुर्सी पढ लो।”

”अच्छा।”

मैंने जल्दी-जल्दी आयतलकुर्सी पढ़ी। मगर यालमू मा बीन पर हर दफा आकर अटक गयी। हालाँकि मुझे वक्त पूरी आयत याद है।

”तुम्हारे पास आ जाऊँ बेग़म जान?”

”नहीं बेटी, सो रहो।” जरा सख्त़ी से कहा।

और फिर दो आदमियों के घुसुर-फुसुर करने की आवाज सुनायी देने लगी। हाय रे! यह दूसरा कौन? मैं और भी डरी।

”बेग़म जान, चोर-वोर तो नहीं?”

”सो जाओ बेटा, कैसा चोर?”

रब्बो की आवाज आयी। मैं जल्दी से लिहाफ़ में मुँह डालकर सो गयी।

सुबह मेरे जहन में रात के खौफ़नाक नज़ारे का ख़याल भी न रहा। मैं हमेशा की वहमी हूँ। रात को डरना, उठ-उठकर भागना और बडबडाना तो बचपन में रोज ही होता था। सब तो कहते थे, मुझ पर भूतों का साया हो गया है। लिहाज़ा मुझे ख़याल भी न रहा। सुबह को लिहाफ़ बिल्कुल मासूम नजर आ रहा था।

मगर दूसरी रात मेरी आँख खुली तो रब्बो और बेग़म जान में कुछ झगड़ा बड़ी ख़ामोशी से छपरखट पर ही तय हो रहा था। और मेरी खाक समझ में न आया कि क्या फैसला हुआ? रब्बो हिचकियाँ लेकर रोयी, फिर बिल्ली की तरह सपड़-सपड़ रकाबी चाटने-जैसी आवाजें आने लगीं, ऊँह! मैं तो घबराकर सो गयी।

आज रब्बो अपने बेटे से मिलने गयी हुई थी। वह बड़ा झगड़ालू था। बहुत कुछ बेगम जान ने किया – उसे दुकान करायी, गाँव में लगाया, मगर वह किसी तरह मानता ही नहीं था। नवाब साहब के यहाँ कुछ दिन रहा, खूब जोड़े-बागे भी बने, पर न जाने क्यों ऐसा भागा कि रब्बो से मिलने भी न आता। लिहाज़ा रब्बो ही अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ उससे मिलने गयी थीं। बेग़म जान न जाने देतीं, मगर रब्बो भी मज़बूर हो गयी। सारा दिन बेगम जान परेशान रहीं। उनका जोड़-जोड़ टूटता रहा। किसी का छूना भी उन्हें न भाता था। उन्होंने खाना भी न खाया और सारा दिन उदास पड़ी रहीं।

”मैं ख़ुजा दूँ बेगम जान?”

मैंने बड़े शौक से ताश के पत्ते बाँटते हुए कहा। बेग़म जान मुझे गौर से देखने लगीं।

”मैं ख़ुजा दूँ? सच कहती हूँ!”

मैंने ताश रख दिये।

मैं थोड़ी देर तक ख़ुजाती रही और बेग़म जान चुपकी लेटी रहीं। दूसरे दिन रब्बो को आना था, मगर वह आज भी गायब थी। बेग़म जान का मिजाज़ चिड़चिड़ा होता गया। चाय पी-पीकर उन्होंने सिर में दर्द कर लिया। मैं फिर ख़ुजाने लगी उनकी पीठ-चिकनी मेज क़ी तख्ती-जैसी पीठ। मैं हौले-हौले ख़ुजाती रही। उनका काम करके कैसी खुशी होती थी!

”जरा जोर से ख़ुजाओ। बन्द खोल दो।” बेगम जान बोलीं, ”इधर ..है, जरा शाने से नीचे ..हाँ …वाह भइ वाह! हा!हा!” वह सुरूर में ठण्डी-ठण्डी साँसें लेकर इत्मीनान जाहिर करने लगीं।

”और इधर …” हालाँकि बेगम जान का हाथ खूब जा सकता था, मगर वह मुझसे ही ख़ुजवा रही थीं और मुझे उल्टा फख्र हो रहा था। ”यहाँ ..ओई! तुम तो गुदगुदी करती हो ..वाह!” वह हँसी। मैं बातें भी कर रही थी और ख़ुजा भी रही थी।

”तुम्हें कल बाजार भेजूँगी। क्या लोगी? वही सोती-जागती गुड़िया?”

”नहीं बेग़म जान, मैं तो गुड़िया नहीं लेती। क्या बच्चा हूँ अब मैं?”

”बच्चा नहीं तो क्या बूढी हो गयी?” वह हँसी ”गुड़िया नहीं तो बनवा लेना कपड़े, पहनना ख़ुद। मैं दूँगी तुम्हें बहुत-से कपड़े। सुना?” उन्होंने करवट ली।

”अच्छा।” मैंने जवाब दिया।

”इधर ..” उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर जहाँ ख़ुजली हो रही थी, रख दिया। जहाँ उन्हें ख़ुजली मालूम होती, वहाँ मेरा हाथ रख देतीं। और मैं बेख़याली में, बबुए के ध्यान में डूबी मशीन की तरह खुजाती रही और वह मुतवातिर बातें करती रहीं।

”सुनो तो …तुम्हारी फ्राकें कम हो गयी हैं। कल दर्ज़ी को दे दूँगी, कि नई सी लाये। तुम्हारी अम्माँ कपड़ा दे गयी हैं।”

”वह लाल कपड़े की नहीं बनवाऊँगी। चमारों-जैसा है!” मैं बकवास कर रही थी और हाथ न जाने कहाँ-से-कहाँ पहुँचा। बातों-बातों में मुझे मालूम भी न हुआ।

बेग़म जान तो चुप लेटी थीं। ”अरे!” मैंने जल्दी से हाथ खींच लिया।

”ओई लड़की! देखकर नहीं खुजाती! मेरी पसलियाँ नोच डालती है!”

बेग़म जान शरारत से मुस्करायीं और मैं झेंप गयी।

”इधर आकर मेरे पास लेट जा।”

”उन्होंने मुझे बाजू पर सिर रखकर लिटा लिया।

”अब है, कितनी सूख रही है। पसलियाँ निकल रही हैं।” उन्होंने मेरी पसलियाँ गिनना शुरू कीं।

”ऊँ!” मैं भुनभुनायी।

”ओइ! तो क्या मैं खा जाऊँगी? कैसा तंग स्वेटर बना है! गरम बनियान भी नहीं पहना तुमने!”

मैं कुलबुलाने लगी।

”कितनी पसलियाँ होती हैं?” उन्होंने बात बदली।

”एक तरफ नौ और दूसरी तरफ दस।”

मैंने स्कूल में याद की हुई हाइजिन की मदद ली। वह भी ऊटपटाँग।

”हटाओ तो हाथ …हाँ, एक …दो ..तीन ..”

मेरा दिल चाहा किसी तरह भागूँ …और उन्होंने जोर से भींचा।

”ऊँ!” मैं मचल गयी।

बेगम जान जोर-जोर से हँसने लगीं।

अब भी जब कभी मैं उनका उस वक्त का चेहरा याद करती हूँ तो दिल घबराने लगता है। उनकी आँखों के पपोटे और वजनी हो गये। ऊपर के होंठ पर सियाही घिरी हुई थी। बावजूद सर्दी के, पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूँदें होंठों और नाक पर चमक रहीं थीं। उनके हाथ ठण्डे थे, मगर नरम-नरम जैसे उन पर की खाल उतर गयी हो। उन्होंने शाल उतार दी थी और कारगे के महीन कुर्तो में उनका जिस्म आटे की लोई की तरह चमक रहा था। भारी जड़ाऊ सोने के बटन ग़रेबान के एक तरफ झूल रहे थे। शाम हो गयी थी और कमरे में अँधेरा घुप हो रहा था। मुझे एक नामालूम डर से दहशत-सी होने लगी। बेगम जान की गहरी-गहरी आँखें!

मैं रोने लगी दिल में। वह मुझे एक मिट्टी के खिलौने की तरह भींच रही थीं। उनके गरम-गरम जिस्म से मेरा दिल बौलाने लगा। मगर उन पर तो जैसे कोई भूतना सवार था और मेरे दिमाग का यह हाल कि न चीखा जाये और न रो सकूँ।

थोडी देर के बाद वह पस्त होकर निढाल लेट गयीं। उनका चेहरा फीका और बदरौनक हो गया और लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगीं। मैं समझी कि अब मरीं यह। और वहाँ से उठकर सरपट भागी बाहर।

शुक्र है कि रब्बो रात को आ गयी और मैं डरी हुई जल्दी से लिहाफ़ ओढ सो गयी। मगर नींद कहाँ? चुप घण्टों पड़ी रही।

अम्माँ किसी तरह आ ही नहीं रही थीं। बेग़म जान से मुझे ऐसा डर लगता था कि मैं सारा दिन मामाओं के पास बैठी रहती। मगर उनके कमरे में कदम रखते दम निकलता था। और कहती किससे, और कहती ही क्या, कि बेग़म जान से डर लगता है? तो यह बेग़म जान मेरे ऊपर जान छिड़कती थीं …

आज रब्बो में और बेगम जान में फिर अनबन हो गयी। मेरी किस्मत की खराबी कहिए या कुछ और, मुझे उन दोनों की अनबन से डर लगा। क्योंकि फौरन ही बेगम जान को ख़याल आया कि मैं बाहर सर्दी में घूम रही हूँ और मरूँगी निमोनिया में!

”लड़की क्या मेरी सिर मुँडवायेगी? जो कुछ हो-हवा गया और आफ़त आयेगी।”

उन्होंने मुझे पास बिठा लिया। वह ख़ुद मुँह-हाथ सिलप्ची में धो रही थीं। चाय तिपाई पर रखी थी।

”चाय तो बनाओ। एक प्याली मुझे भी देना।” वह तौलिया से मुँह खुश्क़ करके बोली, ”मैं जरा कपड़े बदल लूँ।”

वह कपड़े बदलती रहीं और मैं चाय पीती रही। बेग़म जान नाइन से पीठ मलवाते वक्त अगर मुझे किसी काम से बुलाती तो मैं गर्दन मोड़े-मोड़े जाती और वापस भाग आती। अब जो उन्होंने कपड़े बदले तो मेरा दिल उलटने लगा। मुँह मोड़े मैं चाय पीती रही।

”हाय अम्माँ!” मेरे दिल ने बेकसी से पुकारा, ”आखिर ऐसा मैं भाइयों से क्या लड़ती हूँ जो तुम मेरी मुसीबत ..”

अम्माँ को हमेशा से मेरा लडक़ों के साथ खेलना नापसन्द है। कहो भला लडक़े क्या शेर-चीते हैं जो निगल जायेंगे उनकी लाडली को? और लड़के भी कौन, खुद भाई और दो-चार सड़े-सड़ाये जरा-जरा-से उनके दोस्त! मगर नहीं, वह तो औरत जात को सात तालों में रखने की कायल और यहाँ बेगम जान की वह दहशत, कि दुनिया-भर के गुण्डों से नहीं।

बस चलता तो उस वक्त सड़क पर भाग जाती, पर वहाँ न टिकती। मगर लाचार थी। मज़बूरन कलेजे पर पत्थर रखे बैठी रही।

कपड़े बदल, सोलह सिंगार हुए, और गरम-गरम खुशबुओं के अतर ने और भी उन्हें अंगार बना दिया। और वह चलीं मुझ पर लाड उतारने।

”घर जाऊँगी।”

मैं उनकी हर राय के जवाब में कहा और रोने लगी।

”मेरे पास तो आओ, मैं तुम्हें बाजार ले चलूँगी, सुनो तो।”

मगर मैं खली की तरह फैल गयी। सारे खिलौने, मिठाइयाँ एक तरफ और घर जाने की रट एक तरफ।

”वहाँ भैया मारेंगे चुड़ैल!” उन्होंने प्यार से मुझे थप्पड़ लगाया।

”पड़े मार भैया,” मैंने दिल में सोचा और रूठी, अकड़ी बैठी रही।

”कच्ची अमियाँ खट्टी होती हैं बेगम जान!”

जली-कटी रब्बों ने राय दी।

और फिर उसके बाद बेगम जान को दौरा पड़ ग़या। सोने का हार, जो वह थोडी देर पहले मुझे पहना रही थीं, टुकड़े-टुकड़े हो गया। महीन जाली का दुपट्टा तार-तार। और वह माँग, जो मैंने कभी बिगड़ी न देखी थी, झाड़-झंखाड़ हो गयी।

”ओह! ओह! ओह! ओह!” वह झटके ले-लेकर चिल्लाने लगीं। मैं रपटी बाहर।

बड़े ज़तनों से बेगम जान को होश आया। जब मैं सोने के लिए कमरे में दबे पैर जाकर झाँकी तो रब्बो उनकी कमर से लगी जिस्म दबा रही थी।

”जूती उतार दो।” उसने उनकी पसलियाँ खुजाते हुए कहा और मैं चुहिया की तरह लिहाफ में दुबक गयी।

सर सर फट खच!

बेगम जान का लिहाफ़ अँधेरे में फिर हाथी की तरह झूम रहा था।

”अल्लाह! आँ!” मैंने मरी हुई आवाज निकाली। लिहाफ में हाथी फुदका और बैठ गया। मैं भी चुप हो गयी। हाथी ने फिर लोट मचाई। मेरा रोआँ-रोआँ काँपा। आज मैंने दिल में ठान लिया कि जरूर हिम्मत करके सिरहाने का लगा हुआ बल्ब जला दूँ। हाथी फिर फडफडा रहा था और जैसे उकड़ू बैठने की कोशिश कर रहा था। चपड-चपड कुछ खाने की आवाजें आ रही थीं – जैसे कोई मजेदार चटनी चख रहा हो। अब मैं समझी! यह बेगम जान ने आज कुछ नहीं खाया।

और रब्बो मुई तो है सदा की चट्टू! जरूर यह तर माल उडा रही है। मैंने नथुने फुलाकर सूँ-सूँ हवा को सूँघा। मगर सिवाय अतर, सन्दल और हिना की गरम-गरम खुशबू के और कुछ न महसूस हुआ।

लिहाफ फ़िर उमँडना शुरू हुआ। मैंने बहुतेरा चाहा कि चुपकी पडी रहूँ, मगर उस लिहाफ ने तो ऐसी अजीब-अजीब शक्लें बनानी शुरू कीं कि मैं लरज गयी।

मालूम होता था, गों-गों करके कोई बडा-सा मेंढक फूल रहा है और अब उछलकर मेरे ऊपर आया!

”आ … न …अम्माँ!” मैं हिम्मत करके गुनगुनायी, मगर वहाँ कुछ सुनवाई न हुई और लिहाफ मेरे दिमाग में घुसकर फूलना शुरू हुआ। मैंने डरते-डरते पलंग के दूसरी तरफ पैर उतारे और टटोलकर बिजली का बटन दबाया। हाथी ने लिहाफ के नीचे एक कलाबाजी लगायी और पिचक गया। कलाबाजी लगाने मे लिहाफ का कोना फुट-भर उठा –

अल्लाह! मैं गडाप से अपने बिछौने में ! ! !

इस्मत चुग़ताई

इस्मत चुग़ताई (1915-1991) भारत से उर्दू की एक लेखिका थीं। उन्हें ‘इस्मत आपा’ के नाम से भी जाना जाता है। वे उर्दू साहित्य की सर्वाधिक विवादास्पद और सर्वप्रमुख लेखिका थीं, जिन्होंने महिलाओं के सवालों को नए सिरे से उठाया। उन्होंने निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम तबक़ें की दबी-कुचली सकुचाई और कुम्हलाई लेकिन जवान होती लड़कियों की मनोदशा को उर्दू कहानियों व उपन्यासों में पूरी सच्चाई से बयान किया है।

इस्मत चुग़ताई (1915-1991) भारत से उर्दू की एक लेखिका थीं। उन्हें ‘इस्मत आपा’ के नाम से भी जाना जाता है। वे उर्दू साहित्य की सर्वाधिक विवादास्पद और सर्वप्रमुख लेखिका थीं, जिन्होंने महिलाओं के सवालों को नए सिरे से उठाया। उन्होंने निम्न मध्यवर्गीय मुस्लिम तबक़ें की दबी-कुचली सकुचाई और कुम्हलाई लेकिन जवान होती लड़कियों की मनोदशा को उर्दू कहानियों व उपन्यासों में पूरी सच्चाई से बयान किया है।

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