ओ समय!
किस घाट पर खड़े हो अन्यमनस्क
किस प्रतीक्षा की देहरी पर टिके हो ध्यानापन्न
कहाँ ले जाओगे इतना बड़ा न्यायशास्त्र ढोकर अपनी रीढ़ पर
चल रहे हो या क्लांत पड़े हो मृत्युशैय्या पर सज्ज
कितनी कुटिलता से भयमुक्त निरपराध
करते रहे हो जिरह आबादियों से
प्रलय से पहले और प्रलय के बाद
कितनी जीव-संततियों का दुराग्रह ठुकराया है तुमने
कितना कठोर है हृदय तुम्हारा
कोठरियों में विराजमान पंचधातु की मूर्तियों से भी अधिक क्या
ओ समय!
कितनी अपरूप काया होगी तुम्हारी
और कितना तामस मन
प्रेत बनकर बैठे हो किसी कल्पवृक्ष पर
निर्मम अट्टहास गूंजते हैं तुम्हारे
अंतरिक्ष के दूसरी छोर तक
अपने रहस्यों पर ग्लानि नहीं होती तुम्हें?
इतने ढले-ढाले ज़रख़ेज़ों पर अकाल की तरह बरसे हो
इतने अंतर्युद्धों में गिरे हुए शव उठाए हैं तुमने
इसे कैसे अपनी जीत मान बैठे हो
कुंडली मारकर अपनी ही मेरु-मज्जा चबाते हुए
ओ समय!
यह प्रेतकल्प नहीं जाने देगा तुम्हें मुक्ति की ओर
दिशाहीन जैसे चलते चले आ रहे हो चिरंतर
अपने अंत की बाट जोहते
वैसे ही भोगते रहोगे अपने गात पर उगता हुआ कोढ़
तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठे हुए लोगों ने
अविश्वास में अपनी जानें गँवायीं हैं
यह कभी न भूलना!
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आदर्श भूषण
आदर्श भूषण (जन्म - 25 फ़रवरी, 1996) मूलतः सीतामढ़ी, बिहार से हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पे देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे adarshbhushan@yahoo.com पे बात की जा सकती है।