आभा श्रीवास्तव

डा. कंचन का फोन आया था, “आज हमारे कारावास में कान्हा ने जन्म लिया है, सुमि।’’ उस समय मैं अपने घर में जन्माष्टमी की झाँकी सजा रही थी। डा. कंचन इस शहर में मेरी प्रिय सखियों में से एक थी। जिला जेल की यह डॉक्टर अनायास ही मेरे सम्पर्क में आ गई थी। उस दिन पोस्ट ऑफिस से लौटते समय सचिवालय के सामने कुछ प्रदर्शनकारियों ने उपद्रव कर दिया था। पुलिस लाठीचार्ज करने लगी। सड़क के किनारे हैरान, परेशान सी मैं बस की प्रतीक्षा कर रही थी कि अनायास ही एक भद्र महिला ने अपनी कार ठीक मेरे बगल में रोक दी, “कहाँ जाना है आपको ? आइये, मैं छोड़ देती हूँ। यह बवाल तो अभी दो घंटे तक थमने वाला नहीं है।’’ उसने बैठे बैठे ही अपनी कार का दरवाज़ा मेरे लिए खोल दिया। मैं कुछ झिझक रही थी।

“क्या हुआ, डर रही हैं क्या ?’’ वह हँस पड़ी, “घबराइए मत, मैं यहीं जिला जेल में डॉक्टर हूँ, डा .कंचन। सरकारी नौकरी वाली हूँ। धोखा नहीं दूँगी आपको।’’

 उस महिला की स्निग्ध हंसी देख कर मेरी सारी झिझक, सारा डर जाता रहा और मैं आराम से उसकी कार में जाकर बैठ गई।

“पता नहीं क्यों, आपको देखकर मुझे लगा कि मैं आपको पहले से जानती हूँ। हालाँकि ऐसा नहीं है, लेकिन कुछ चेहरे बेहद परिचित लगते हैं। इतने लोगों की भीड़ में आपसे बात करने का, आपकी मदद करने का मन चाहा, तो कुछ बुरा तो नहीं किया मैंने’’, वह पुनः हँसी, तो मेरा रहा सहा संकोच भी जाता रहा। पास ही में घर था मेरा। अपने घर का पता बता कर मैं आराम से बातें कर रही थी डा. कंचन से। सही कह रही थी वह। थोड़ी ही देर में ऐसा लगा कि कि हम दोनों जाने कबसे एक दूसरे को जानते हैं। प्रदर्शनकारियों का वह बवाल तो हम दोनों को मिलाने का एक बहाना मात्र था। 

धीरे धीरे हम लोगो का यह परिचय अटूट मित्रता की डोर से बंध गया। डा. कंचन के पति नहीं थे। कम उम्र की इस डॉक्टर ने नियति के इस विधान को बेहद धैर्य के साथ स्वीकार कर लिया था। बड़ों की सहमति से हुए उसके ब्याह में पति भले चंगे, सुदर्शन और अच्छी नौकरी वाले थे, किन्तु उनके तन के भीतर का रोग कोई ना देख सका था। उनके दिल का एक वाल्व कुछ गड़बड़ था। इलाज बराबर चल रहा था। धोखे से ब्याह हुआ था कंचन का। यह बात पति और ससुराल वाले दोनों ही छिपा ले गए। कंचन जब तक कुछ समझ पाती तब तक ब्याह के कुछ महीने बाद ही नयी ब्याहता पत्नी, माँ बाप, परिवार को छोड़ कर उसके पति चल बसे। सास ने सोचा था कि ब्याह कर देने से पत्नी के भाग्य से शायद उनके बेटे की आयु बढ़ जाये या शायद बहू की कोख में खानदान का वंशबीज ही पनप जाये, किन्यु इन दोनों ही आशाओं को कंचन पूरा नहीं कर सकी सो पढ़ी लिखी डा. कंचन ससुराल से खोते सिक्के की तरह फेर दी गई। कंचन ने दोबारा ब्याह नहीं किया। अपने जीवन से वह असंतुष्ट भी ना थी।

“सुमि, हर तरह के लोग मिलते हैं इस पेशे में। मेरा प्रयास यही रहता है कि मैं इन बंदिनियों के शारीरिक ही नहीं, मानसिक कष्ट भी दूर कर सकूं। अचानक किसी आवेश में किये गए पाप का प्रतिफल तो ये लोग पल पल भुगत ही रहीं हैं। इनका मानसिक कष्ट तो रातदिन ईश्वर भजन से भी दूर नहीं हो पाता,’’ कंचन अक्सर कहती।

आज तो जेल में सुन्दर झांकी सजी होगी, मैं सोच रही थी कि रात में देखने जाऊँगी। इसी बीच डा. कंचन का फोन आ गया। जिस समय जेल के द्वार पर मैं पहुंची, तो संभवतः सिपहियों को मेरे आने की सूचना पहले ही मिल चुकी थी। कार का नंबर पहचान कर उन दोनों वर्दीधारियों ने लोहे का मोटा द्वार मेरे लिए खोल दिया। अन्दर जाते हुए मैं उस बंदीगृह का वातावरण देख रही थी। जेल में आने का मेरा यह प्रथम अनुभव था। थोड़ी ही दूर पर डा. कंचन दिख गई और मैं कार को किनारे रुकवा कर उतर ली। 

“सुमि, झाँकी देखने का मन है या आज ही अवतरित हुए कान्हा को देखोगी,’’ कंचन अपनी चिरपरिचित हंसी के साथ बोली, “बेहद प्यारा बच्चा है। इसे तो राजमहल में जन्म लेना चाहिए था, लेकिन इसके भाग्य में काल कोठरी बदी थी।’’

सच में कंचन ने मेरे मन की बात जान ली थी। उसी ने मुझे बताया कि बच्चे की माँ हत्या की सजा भुगत रही है। झाँकी देखने का विचार तो कब का मन से निकल चुका था। उसकी जगह मेरा जिज्ञासु मन लगातार इस बंदीगृह की बंदिनियों के विषय में सोच रहा था। मैं सोच रही थी कि क्या कोमल हृदया नारी भी समय पड़ने पर हत्या जैसा जघन्य अपराध कर सकती है? चोरी, डकैती, ठगी तो एक तरफ, हत्या करते समय भी क्या उसका मन नहीं कांपता?

झाँकी तो फिर कभी देख लूँगी कंचन, अभी तो देवकी से मिलवा दो।’’

“देवकी!’’ कंचन चौंकी।

“क्यों, कान्हा की माँ का नाम देवकी ही तो था,’’ मैं बोली तो जेल के सन्नाटेदार वातावरण में हम दोनों की सम्मिलित हंसी गूँज उठी।

कंचन मुझे जेल के तथाकथित सौरीग्रह में ले गई। मोटी दीवारों से घिरा जेल का वह कमरा बेहद शांत था कि सहसा नन्हें बच्चे का रुदन गूँज गया, “उहाँ उहाँ।’’

मैंने देखा कि करवट लेकर वह बन्दिनी बच्चे को चिपका कर दूध पिलाने लगी। उस बन्दिनी के इर्द गिर्द 2, 3 महिला कैदी और भी खड़ी थीं। हमें देख कर वे किनारे सरक लीं। वे भावहीन, रूखे चेहरे जीवन की व्यथा झेल झेल कर इतने निरर्थक हो गये थे अथवा जेल की चहारदीवारी के भीतर उनका रस सूख गया था, पता नहीं। किन्तु उन रस माधुर्य रहित चेहरों पर भी उस समय क्षण भर को आयी मातृत्व की मीठी हिलोर मैंने देख ली थी।

“इसका प्रसव समय पूर्व हो गया। अचानक और बिना किसी कॉम्प्लिकेशन के’’ कंचन ने बताया, “मैं तो बस फॉरमेलिटी के लिए आ गई थी।’’

“अमिता, देखो तुमसे मिलने कौन आया है’’ , कंचन ने पुकारा। जैसे ही वह बन्दिनी मेरी तरफ घूमी तो मैं भीतर तक काठ हो गई, ‘अमिता, अमिता, तुम्हें इतने बरस बाद देखूँगी और वह भी इस रूप में, मैंने सोचा भी ना था।’ मन में जैसे आंधियाँ चल रही थीं। हमारी आँखें मिलीं और आंसुओं की गंगा-जमुना से धुलकर 2 जोड़ी आँखें मानो एकरस हो गयीं। हमारे पास बोलने को शब्द ना थे। हम एक-दूसरे से लिपट कर निशब्द रो रहे थे कि सहसा अमिता बेहोश हो गयी। कंचन ने अहिस्ता से हमें अलग किया और अमिता का चेकअप करने लगी। 

अभी प्रसव के बाद की कमजोरी है थोड़ी, सिस्टर, इनका ध्यान रखना, कहते हुए कंचन मेरा हाथ पकड़ कर बाहर आ गयी। 

तुझे कुछ कन्फ्यूज़न तो नहीं हुआ है, सुमि। एनी वे, इस लेडी ने अभी-अभी हिंदी साहित्य में डाक्टरेट की उपाधि ली है। कोई अनपढ़, गंवार होती, तो शायद मैं तुम्हें यहाँ लाती भी नहीं।लेकिन अमिता जैसी सौम्य महिला को इस स्थिति में देखना मुझे भी अच्छा नहीं लगा। इस हादसे के बाद से यह बिलकुल चुप सी हो गयी है, “कंचन बता रही थी और मेरी सिसकियाँ थम ही नही रहीं थीं। कंचन मुझे अपने कमरे में ले आयी।

पानी पी कर मैं थोड़ी संतुलित हुई, “नहीं कंचन, कोई कन्फ्यूज़ननहीं हुआ है मुझे। कभी मैं और अमिता एक ही थे। घर, बाहर, स्कूल एक-एक पल हमारे साझे का था। इस चेहरे को मैं कैसे भूल सकती हूँ, मैंने भर्राए कंठ से कहा “मुझे नहीं पता कि अमिता आज इस कालकोठरी में कैसे आ पहुंची, लेकिन उसका अतीत  उतना ही अल्ल्हड़, मासूम और बचकाना है जितना किसी आम लड़की का हुआ करता है।

कंचन मेरी असमान्यता देखकर स्तब्ध थी। वह संवेदनशील महिला थी। मेरे आंसू देखकर उसकी भी आँखें नम थीं।

“अच्छा किया सुमि, जो तुम यहाँ आयी, अमिता से मिलीं। उसके मन की गुत्थी जो कोई न खुलवा सका, उसे खुलवाने के लिए शायद विधाता ने तुम्हे यहाँ भेजा है। फांसी की सजा हुई थी इसे। अपने रिसर्च गाइड की पत्नी का मर्डर किया है इसने। सजा कम्यूट कर दी गयी इसकी फुल टाइम प्रेगनेंसी देख कर। बचाव पक्ष का वकील भी क्या करता जब इसने अपना अपराध स्वयं ही स्वीकार कर लिया।”

सहसा मैं चौंकी, “लेकिन अमिता का तो पढने-लिखने में जरा भी मन नहीं लगता था। उसकी पढाई तो 12वीं के बाद रोक दी गयी थी। उसका ब्याह तय हो गया था”, कहते-कहते मैं रुक सी गयी, “कई बरस बीत गए कंचन, वे स्कूल के दिन, घर-आँगन के खेल और गर्मी की छुट्टियाँ। कुछ भी तो नहीं भूलता। उस अल्ह्हड़ उम्र में भी अमिता हिंदी साहित्य की बेहद दीवानी थी। शिवानी, बच्चन, गुलज़ार, शरतचन्द्र ये सभी उसके प्रिय लेखक थे। ‘गुनाहों का देवता’ उसने कितनी ही बार पढ़ी। इम्तहानों के भय के कारण जब हम कोर्स रट रहे होते, उस समय अमिता किसी उपन्यास में डूबी होती। हिंदी उसका प्रिय विषय हुआ करता था। बाकी विषयों में पता नहीं कैसे पास होती थी। दिवास्वप्नों  में खोई रहने वाली, फिल्मों और उपन्यासों के नायकों को असल जिन्दगी में ढूंढने वाली, ऐसी थी अमिता। स्वयं को कभी शिवानी की अहल्या समझती तो कभी चंदर की सुधा। देवानन्द, राजेश खन्ना, धर्मेन्द्र उसके प्रिय नायक थे।

स्कूल के वार्षिकोत्सव पर हमने एक नाटक खेला था ‘तेरा मेरा प्यार अमर’। उस नाटक की हीरो मैं थी और नायिका थी अमिता। नाटक का एक दृश्य था, जिसमें नायक नायिका को आलिंगन में लेकर उसका माथा चूमता है। रिहर्सल के समय वह कुछ न कुछ गड़बड़ कर देती और कहती, “लेट अस रिपीट।” मैं तंग आ गयी थी उसकी इस हरकत से।लेकिन अमिता कहती, “आई लव दिस सीन।” कितना रोमांटिक होता है न यह सब। हमारे घरों में तो किसी लड़के का आना भी पाप समझा जाता है। सोचा नाटक के रिहर्सल तक तो तुझसे ही काम चला लूं”, वह दुष्टता से हंसती।

“उसके घर में वाकई कड़ा अनुशासन था। माँ किसी स्कूल की प्रिंसिपल थीं। पिता कई बरस पहले स्वर्ग सिधार चुके थे। उसकी माँ के कठोर अनुशासन की धाक थी। हम लोग तो स्कूल की छुट्टी के बाद स्वतन्त्र हो जाते थे किन्तु अमिता तो दोबारा घर की जेल में बंद हो जाती थी। वह तो उसकी माँ को मुझ पर भरोसा था और मेरे घर आ जाने पर उसे अपने घर पर बिना बताये पिक्चर देखने की स्वतंत्रता मिल जाती थी। 

“अमिता स्वछन्द उड़ना चाहती थी। माँ के घर से दूर खुली हवा में साँस लेना चाहती थी। हमारे नाटक की रिहर्सल कई दिनों तक चली। उस समय वार्षिकोत्सव के लिए फोटोग्राफर का इंतजाम करना था। हमारे कालेज से कुछ ही दूर पर माधव स्टूडियो था।  हम लोग बोर्ड परीक्षाओं की फोटो वहीँ पर खिंचवाने जाते थे। अमिता ने फोटोग्राफर का जिम्मा स्वयं लिया था। हमारा नाटक बेहद सफल रहा। मुझे और अमिता को उच्च कोटि के अभिनय के लिए पुरस्कार भी मिला। दूसरे ही दिन तस्वीरें भी आ गयीं। अमिता हर तस्वीर में सुंदर और मोहक लग रही थी। फिर उस दिन के बाद से अमिता अक्सर पोस्टकार्ड साइज़ की नयी-नयी तस्वीरें खिंचवाती। हर बार फैशनेबल नयी और फैंसी ड्रेस में। उसके घर में फैशन करने पर पाबन्दी थी। मैंने एक बार मजाक में पूछा था, “ये नयी-नयी पोशाकें पहन कर कहाँ जाती हो, अमिता? वैसे तो सीधी-सादी रहती हो। 

“मैं केवल फैशनेबल ड्रेसेस पहनने का अपना शौक पूरा करती हूँ, सुमि। यह उम्र लौट कर आने वाली नहीं। इन्हें पहन कर मैं बस फोटो खिचवाती हूँ, “उसने तस्वीरें लिफाफे में डालते हुए कहा था।

“अच्छा, कौन खींचता है ये तस्वीरें?”

“यही माधव स्टूडियो वाला राकेश, वह शैतानी से कहती, “मेरे जैसी फिगर और चेहरा है किसी के पास?”

“अमिता, तू ब्याह कर ले, वर्ना पागल हो जाएगी, “मेरे इतना कहने पर वह ढीठता से बोली, “मैं तो राकेश से ही ब्याह कर लेती सुमि, पर वह शादीशुदा है।

कालेज के फेयरवेल के दिन वो बेहद सुंदर लग रही थी। पूरा दिन हल्लागुल्ला करते ही बीता। कार्यक्रम बीत जाने पर अपने ब्याह की सूचना देकर अमिता ने मुझे हैरान कर दिया। लेकिन वह उदास थी, “पैसा तो बहुत है वहां सुमि, लेकिन जितना पैसा उतनी बड़ी तोंद। मुझे उस मोटे, बदसूरत लड़के से ब्याह नहीं करना। मुझे तो राजेश खन्ना या धर्मेन्द्र जैसा पति चाहिए, “वह शून्य में ताकते हुए बोली थी। इसी तरह सुख-दुख बांटते, हँसते-खेलते, लिखते-पढ़ते 12वीं की परीक्षाएं निपट गयीं।

“फिर एक दिन घर आकर अमिता अपने ब्याह का कार्ड दे गयी। पापा का ट्रान्सफर आर्डर आ गया था। हम लोग पैकिंग में व्यस्त थे कि एक दिन शाम के धुंधलके में अमिता की गाड़ी हमारे दरवाज़े पर आकर रुकी। मैं भागी-भागी गेट खोलने गयी तो देखा कि गाड़ी में सिर्फ ड्राईवर था, “बेबी आज सुबह आपके घर आयीं थीं क्या? यहीं छोड़ गया था मैं तो। वापस नहीं लौटीं। घर पर मैडम जी परेशान हैं।”

“मेरे घर तो अमिता आयी ही नहीं, “मैं चकरा गयी थी। कई जगह फ़ोन किया। अमिता नहीं मिली। सहसा मस्तिष्क में बिजली सी कौंधी। कहीं राकेश के साथ भाग तो नहीं गयी अमिता ? मैं कांप गयी। वही हुआ, जिसका भय था। अमिता की प्रिंसिपल माँ ने अपने विश्वस्त सूत्रों से बिना किसी को कानोंकान खबर किये चटपट सब पता कर लिया। इसके बाद की कहानी केवल यंत्रणा की ही कहानी थी। भयंकर अनुशासन की डोर छुड़ाकर अमिता जिस व्यक्ति के साथ भागी थी वह कायर था। अमिता, नासमझ किशोरी, उसे ही अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य समझ बैठी थी। कितने ही दिवास्वप्न दिखाता हुआ 2 बच्चों का पिता राकेश, उसे भोग कर चंद घंटे के भीतर ही उसी के घर के दरवाज़े पर आधी रात को छोड़ कर चला गया। पैसे और रुतबे के जोर पर बात वहीँ दब गयी।

हम लोग शहर छोड़ने वाले थे।जाने से पहले मैं अमिता से मिलने गयी थी। सदा चहकने वाली अमिता बेहद उदास और चुप थी। चलने लगी, तो उसकी आँखें भर आयीं। उसके ब्याह में आने का झूठा वादा करके मैंने उससे विदा ली। समय के साथ अमिता की स्मृति धुंधली पड़ती गयी। मैंने सोचा भी न था कंचन कि अमिता को इस रूप में देखूंगी, “मैं अमिता की कहानी कहते-कहते थक गयी थी।

अगले दिन कंचन ने मेरे और अमिता के मिलने का इन्तजाम अपने कमरे में किया था। वह बेहद समझदारी से हमें अकेला छोड़कर इंस्पेक्शन पर निकल गयी। कमरे में एक सन्नाटा पसरा था। वैसे तो डॉ. कंचन ने अमिता के विषय मे काफी कुछ बताया था किन्तु अमिता के जीवन के इस अस्वाभाविक मोड़ की कहानी मैं उसी के मुंह से सुनना चाहती थी। उसने बताया कि ब्याह के लिए देखे गए उसके सारे स्वप्न पहली ही रात में ध्वस्त हो गए जब नशे में धुत पति ने डगमगाते हुए कमरे में प्रवेश किया। प्रथम रात्रि का प्रणय उपहार पहनाते पहनाते ही वे लुढ़क कर सो गए। किशोरी अमिता भय से सहमी सारी रात किनारे बैठी रही। प्रथम रात्रि की सारी कल्पनाएँ ध्वस्त हो चुकी थीं। स्वप्न टूटते हैं  किन्तु ऐसे, यह तो अमिता ने सोचा भी न था।

सुबह सुबह तैयार हो कर वह बाहर आई, तो पति काम पर जा चुके थे।बड़ी ननद रसोई में व्यस्त थीं कि सहसा उसे वही परिचित चेहरा दिखा जो ब्याह से पूर्व उसे पसंद कर गया था।

“अम्मा, मैं कॉलेज जा रहा हूँ। टिफ़िन तैयार है मेरा’’ कहते हुए उस युवक ने अमिता को प्रणाम किया, “भाभी, मैं विकास, भांजा लगता हूँ आपका।’’ अमिता सकुचा गई। उसी का हमउम्र भांजा।

इतने में बड़ी ननद रसोई से बाहर आ गईं, “बहू, भैया को तो रात दिन काम ही दिखे है। तुम्हें कुछ खरीदना, मंगाना हो या कहीं आना जाना हो, तो विकास से ही कहना। हम दोनों तो अब इसी घर के प्राणी हैं’’, वे हंसीं। उनकी निष्पाप हंसी देख कर अमिता का सारा डर जाता रहा।

लेकिन अमिता ऊबने लगी थी। पति से, घर से, एकरसता से। वह स्वयं जितनी रसप्रिया थी, पति उतने ही नीरस। उन्हें अपने बहीखातों में ही दुनिया जहान का साहित्य दिखाई देता और सुरा सुन्दरी में जीवन का रस। अमिता अपनी परीकथाओं के नायकों को खोजते-खोजते पगला जाती।

एक दिन साहस करके उसने घर में आगे पढ़ने की इच्छा व्यक्त की। थोड़ी ना नुकर के बाद उसे विकास के साथ कॉलेज जाने की अनुमति मिल गई। मानो बंद पिंजरे की चिड़िया को एक खुला आकाश मिल गया था। विकास, अमिता का बेहद आदर करता था। दोनों ने हिंदी में साथ ही एम.. पूरा किया। दोनों ही कुशाग्र बुद्धि थे सो डा. चंद्रा के निर्देशन में शोध कार्य आरम्भ किया। अमिता इतने बरसों में पति की आदतें नहीं सुधार सकी थी। पति के भटकते क़दमों की आहट उसने सुन ली थी, किन्तु वह पति को बाँधती भी तो किस डोर से ? ब्याह के इतने बरस बीत जाने पर भी उसकी कोख सूनी थी। उसकी ममतामयी बड़ी ननद गोलोकवासिनी हो चुकी थीं। ऐसे में अमिता घर में अकेले बैठे पागल ही हो जाती।

पी एच डी करते करते अमिता कब और कैसे डॉ. चंद्रा की तरफ आकर्षित हो गई, पता ही ना चला। उसे लगता कि वह पात्र जो अब तक उसे किताबों में मिला करता था, आज सजीव हो कर डॉ. चंद्रा के रूप में उसके सम्मुख है। उनके मुख से झरते काव्य, सूक्तियां, आलेख सभी अमिता के लिए ग्रंथों के समान पूज्य थे। वे बोलते, तो अमिता एक भक्त के समान उनके वचनामृत ग्रहण करती। किसी एकांत क्षण में कभी डॉ. चंद्रा ने उससे कहा होगा कि पत्नी अब उनके लिए पहले जैसी नहीं रह गई है। घर गृहस्थी ने उसके जीवन का सारा माधुर्य सोख लिया है। नून, तेल, लकड़ी में उलझी पत्नी उनकी मानसिक क्षुधा शांत नहीं कर सकती। वे अमिता से एक प्लेटोनिक लव की आशा रखते हैं।मूर्खा, अमिता इन मीठी बातों को सुन कर सातवें आसमान पर तैरने लगी।

उस दिन डॉ. चंद्रा के घर पर पार्टी थी। अमिता, उसके पति, विकास और अन्य सभी बहुमंजिला इमारत की छत पर पार्टी का आनंद उठा रहे थे। अमिता पर उस दिन शायद कोई उन्माद सवार था। किसी भी सूरत मे डा. चंद्रा को पाना ही है और उनकी पत्नी के जीवित रहते ऐसा संभव न था। मीठी बातों से बहला-फुसला कर वह मिसेज चंद्रा को छत की मुंडेर तक ले आयी थी। एक ही धक्के में मिसेज चंद्रा नीचे जा गिरीं। मगरमच्छी आंसू बहाती अमिता जैसे ही पलटी, पीछे विकास खड़ा था। सिर से पाँव तक काँप गयी थी वह। जिन आँखों में सदैव उसके लिए आदर था, वहां आज घृणा का सागर लहरा रहा था।

शायद अमिता बच भी जाती, अगर विकास गवाही न देता। जिस डॉ. चंद्रा को वह देवपुरुष समझ रही थी, पत्नी की मृत्यु पर बिलखता वह व्यक्ति उसे बेहद तुच्छ और साधारण लगा। पुलिस आयी, मुकदमा चला और उसी दौरान अमिता को अपने गर्भवती होने का पता चला। पति ने यह कहकर उसे अपनाने से इंकार कर दिया कि ऐसी चरित्रहीन औरत के गर्भ में पल रहा बच्चा उनका नहीं हो सकता। अमिता चुप, एकदम चुप होती चली गयी। फिर कुछ दिन बाद डॉ. कंचन ने बताया कि अचानक ही अमिता को ब्रेन टयूमर डायग़नोज़ हुआ है। उसे सिरदर्द और चक्कर आने की समस्या तो थी ही। यह उसी का ही परिणाम था। ऑपरेशन होना था।

ओ.टी. में जाने से पूर्व अमिता शायद मुझसे कुछ कहना चाहती थी। डॉ. कंचन ने हमें एकांत में थोडा समय दिया।

“मुझे कुछ हो जाये तो मेरे बेटे का ध्यान रखना, सुमि। ईश्वर करे वह मेरे जैसा न हो। उसे एक संतुलित मस्तिष्क मिले और वह एक सामान्य जीवन जिए”, कहकर अमिता एकदम चुप हो गयी। 

मुझे लगा एकाएक वह कितनी परिपक्व हो गयी थी। उसकी पलकों की कोर से दो बूँद आंसू टपक पड़े। मैंने उसे गले लगाकर जोर से भींच लिया। उसके सिर के सारे बाल हटा दिए गए थे। लेकिन फिर भी वह कितनी सुंदर लग रही थी। क्या यह बुझने वाले दिये की अंतिम लौ थी? उसका समय शायद इस संसार में पूरा हो चुका था। ऑपरेशन के दौरान ही उसकी नब्ज़ डूबने लगी थी। लाख प्रयासों के बाद भी अमिता नहीं बची। उस बन्दिनी ने शरीर का ही पिंजरा छोड़ दिया था।

मैं अमिता के बेटे को गोद लेना चाह रही थी कि डॉ. कंचन ने अपनी बाहें पसार कर उस दुधमुंहे को अपने आँचल में समेट लिया। बोली, “तेरा आँचल तो पहले से ही भरा हुआ है। इस बच्चे को अपना लेने से शायद मेरे जीवन का खालीपन भर जायेगा।”

और इस तरह कान्हा, अपनी जन्म की परिभाषा को सार्थक करता हुआ अपनी यशोदा मैय्या के आँचल की छत्र-छाया में पलने चला गया

आभा श्रीवास्तव
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आभा श्रीवास्तव लख़नऊ, उत्तर प्रदेश से हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पे देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे abhasrivastava0303@gmail.com पे बात की जा सकती है।

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