मीनाक्षी मिश्र की कविताएँ

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मीनाक्षी मिश्र की कविताएँ

1. रियायत

जीवन में मिली
इतनी रियायतों के बावजूद

न जुगनुओं से
की दोस्ती

न रूमानियत के पाठ पढ़े

जाग्रत न कर पाई खुद में
कोई उदात्त भाव ही

वंचित रही मैं
इस बार भी
बीते अनेक वर्षों की भांति

नहीं समझ पाई
ठीक ठीक अर्थ क्या है आखिर
उत्कर्ष का

नहीं खोज सकी मैं वह इत्र
जिससे सदैव
सुवासित रहें स्मृति विथियाँ

न ही ऐसा कोई सोपान
कि प्रहर्ष पर रहे
मेरा प्रेम सदा

न इतनी होशियारी ही
कि भावुक होने पर भी
विवेकी दिखूँ

ऐसे शब्दकोष का भी
न कर पाई जुटान
कि कवितामयी बना रहे जीवन
अंतर्लय न टूटे इसकी

कभी कभी
जीवन के अन्तरंग क्षणों में
निराशाओं का पाठ करते रहने से
पुनर्जन्म होता है
अभिप्रेरणाओं का

2. मुझे आश्चर्य है!

जैसे सीप,
नरम और कुरकुरे चाक को
सख्त और कीमती मोती में
बदलने की गुप्त कला जानता है

और बारिश,
जादुई संगीत उत्पन्न करने की

जैसे ऋतुओं के बदलने की आहट पहचान लेते हैं
प्रवासी पक्षी
और एक माँ देना जानती है आसक्ति
शिशु की अनमनी नींद को

ठीक वैसे ही
चित्रकार जानते हैं
जीवन से निर्वासित किए जा चुके रंगों को
शामिल करने की गुप्त कला

संगीतज्ञ श्रुत्यांतरों में
भरना जानते हैं आलाप

नायक जानते हैं कैसे दी जाए
बेसुध, औंधी पड़ी सभ्यताओं को दिशा

कवि करना जानते हैं तरल कविताएँ
यथार्थ और कल्पना के बीच की
झीनी सतह पर

मुझे आश्चर्य है!
तुमने कहाँ से सीखी?
मेरी अंतर्सम्वेदनाओं का
सटीक भावानुवाद कर लेने की गुप्त कला

3. नवाचार

जब जब दस्तक दी है कालांतर में
संक्रमण ने
सबसे पहले संक्रमित हुए हैं
रोग, भय, और ईर्ष्या
मलिनताएं होती हैं संक्रमित अतिशीघ्र
और अशुद्धियाँ भी
आडम्बर और कुटिलता तो
चरम पर रहती हैं अपने

कितनी वाचाल होती हैं
ये सूचनाएं और जनश्रुतियाँ

फैलती है
जंगल में आग की तरह विपन्नता
दुःख और वेदना

मुझे उत्सुकता है इस बात की,
फूल जो खिलते हैं शिलाओं पर
क्यों संक्रमित नहीं कर पाते
अपनी कोमलता
अनुराग और आत्मीयता
क्यों नहीं होते संक्रामक
संक्रमित क्यों नहीं होता संतोष

समानूभूति से संक्रमित क्यों नहीं हो पाते
सत्ता में बैठे गणमान्य
सदय और सहृदय क्यों नहीं हो पाते

क्यों नहीं हो पाता है
सामूहिक उद्धार

मेरे दिल में
किसी श्रमिक की भांति जलती है
आस की एक कंदील
ऐसी कोई युक्ति सुझाएं जिस से
मनुष्यता और विवेक का हो जाए संक्रमण
मुस्कान और प्रेम की तरह
और एक दिन पूर्णतः संपन्न
हो जाए ये धरती

4. प्रेम का अनुवाद त्रुटिपूर्ण हुआ है हर बार

अपने भाषाशास्त्र पर गर्व करते अधिकतर अनुवादक अनुभवहीन थे
उन्होंने प्रेम को यातना समझा और प्रेमियों को विक्षिप्त

प्रेम जैसे सघन शब्द को बरत पाने की योग्यता
उनमें नहीं थी

वे नहीं जान पाए प्रेम में शिखर का नहीं ,
उत्स का होता है महत्व
थिरता के बजाय स्पन्दन होता है प्रेम में

समीकरणों की उलझनें नहीं,
हल ढूँढ लेने की होती है सलाहियत
दर्शन और निरंकुशता में संतुलन होता है प्रेम में

द्वन्द्व वर्जित होता है
सम्वाद और मौन समावेशी होते हैं प्रेम में

शुभ्र नहीं पारदर्शी,
गर्वोन्नत नहीं विनम्र होता है मनुष्य प्रेम में

प्रेम में अवसर नहीं
गुंजाइशों की होती है तलाश
तिरस्कार नहीं समभाव होता है प्रेम में

प्रेम में शब्द की नहीं ,अर्थ की होती है व्यापकता

प्रेम क्लिष्ट नहीं, सरल होता है
सामान्य होते हुए भी विरल होता है

प्रेम का नहीं होता कोई आरंभ या अंत
प्रेम में होना दरअसल
एक अनंत यात्रा में होना है

पर हम प्रेम को नहीं
प्रेम से उपजी पीड़ाओं को सहेजते रहे आजीवन

प्रेम की भाषा में यूँ कभी नहीं रहा कोई दोष
यद्यपि इसके अनुवाद में
स्पष्ट दिखती रही है अनुशासनहीनता!

5. जो बातें मुझे बेचैन करती हैं

मुझे बेचैन करते हैं उदास गीत
जबरन हुआ विस्थापन
और कृत्रिम एकान्त

मुझे बेचैन करती हैं
मंच के सुभीते के लिए लिखी गई कविताएँ,
उनका नीरस पाठ
और किसी प्रलोभन के चलते की गईं उनकी प्रशंसाएं

पैरों तले रौंद दिये गये फूलों को देखती हूँ तो
गृहस्थी में निचुड़ चुकी एक स्त्री देह की स्मृति
बेचैन कर जाती है

बेचैन करते हैं मुझे
अति महत्वकांक्षी स्वप्न,
नाबालिगों के कण्ठ में भरता आक्रोश

घृणित नहीं
घृणा बेचैन करती है

बेचैन करती हैं
मौत की ख़बरें
और किसी का चले जाने के बाद भी
उतना ही बचे रह जाना

बेचैन करती है एक शिशु की अकुलाहट
और उसके आस पास सख्त होतीं हथेलियाँ

पृथ्वी पर निरंतर क्षतिग्रस्त होती मनुष्यता बेचैन करती है

जब लोगों को कहते सुनती हूँ
इन तुच्छ बातों के लिए इतना सोचना निरर्थक है
तब शीर्ष पर होती है ये बेचैनी !

मीनाक्षी मिश्र

मीनाक्षी मिश्र अलमोड़ा, उत्तराखंड से हैं। आप इन दिनों दिल्ली में अध्यापिका के रूप में सेवारत हैं। आपकी रचनाएँ  समय-समय पे देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे meenakshi.misra84@gmail.com पे बात की जा सकती है।

मीनाक्षी मिश्र अलमोड़ा, उत्तराखंड से हैं। आप इन दिनों दिल्ली में अध्यापिका के रूप में सेवारत हैं। आपकी रचनाएँ  समय-समय पे देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे meenakshi.misra84@gmail.com पे बात की जा सकती है।

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