स्त्री के अंदर अगर झाँक सको
तो देखना
वहाँ असंख्य कविताएँ
आज भी दम तोड़ रही हैं
चूल्हे की भट्टी
परिवार की जिम्मेदारी
बच्चों के प्रति ख़ुद का समर्पण
इन सबों की जगह
हो सकती थी कविता
चूल्हे की भट्टी ने
कितनी ही कविताएँ जलाकर राख कर दी
परिवार और बच्चों के प्रति ख़ुद का समर्पण
उस जमा पूंजी की तरह है
जहाँ ब्याज की दरों के बदले
कविताओं की अस्थियाँ प्रवाहित होती हैं
जहाँ एक तरफ कवि
कविता लिखने की जद्दोजहद में लगा है
वहीं स्त्री ने कविताओं का त्याग कर
कविता लिखने से बेहतर
उसे जीना चुना
ऐसा हम सोच सकते हैं
कह नहीं सकते
क्योंकि उसे समझना कठिन है
त्याग करना उसके दैनिक जीवन का एक हिस्सा है
जिसे कई बार उसे उसका शौक समझ लिया जाता है
कई बार कविताएँ
घर की दहलीज़ पार करना भी चाहती हैं
किंतु रूढ़िवादी समाज और हमारी संस्कृति
लठ लिए दरवाजे पर खड़ी होती है
तब वो ख़ुद का मूल बचाने की उहापोह में
ख़ुद को कहीं भूल बैठती है
या यूँ कहूँ
अस्तित्व विहीन हो जाती है
और हम अपनी आँखों के सामने
उनकी मृत्यु पर हास्य विनोद कर
अपनी ताकत की नुमाइश करते हैं
यह भूलकर कि उनके हत्यारे हम स्वयं हैं
जो कविताएँ स्त्री विमर्श पर लिखी जाती है
दरअसल
वो कविताएँ नहीं
दुख, वेदना और अवसाद की भट्टी से
तप कर निकला हुआ वह इस्पात है
जिसे हम सब अपने-अपने तरीके से
औजार बनाने में इस्तेमाल करते हैं।

आदित्य रहबर
आदित्य रहबर मूलतः गंगापुर (मुज़फ़्फ़रपुर), बिहार से हैं। आपकी रचनाएँ ही आपकी पहचान हैं। आपसे adityakumarsoldier@gmail पे बात की जा सकती है।