भारत में राजद्रोह कानून की ज़रूरत; कितनी सही-कितनी ग़लत?

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1949 में जब भारत ने अपना संविधान अपनाया और 1950 में इसे लागू किया गया, तब यह किसी अनजाने भरोसे की तरह था। हैरानी की बात है कि 70 सालों से ज़्यादा

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नेताजी हिंदुत्व के समर्थक नहीं; विरोधी थे!

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आरएसएस और बीजेपी का स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं की तरफ़ झुकाव, उनके सिद्धांतों —  मसलन साम्राज्यवाद का विरोध, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की वज़ह से नहीं है। उनका यह लगाव इसलिए है क्योंकि

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एकालाप और संलाप

कुछ लोग दुनिया से बहस करते हैं तो कुछ सिर्फ अपने से, किन्तु कुछ थोड़े से लोग ऐसे भी होते हैं जो दुनिया से बहस करने की प्रक्रिया में अपने-आप से भी

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पर्दे पर शब्द मुझे वैसे ही लगते हैं जैसे नीले आसमान में तारे

शुरू में कविता बोली जाती थी। सुनी जाती थी। मुँहा-मुँही फैलती थी। कंठस्थ होती थी। इस क्रम में कुछ हेर-फेर भी होता होगा। जितने मुँह और जितने कंठों से कोई शब्द कोई

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भारतीय परम्परा में अनुवाद

जैसा कि हम सब जानते है कि भाषा एक माध्यम है, हमारे अभिव्यक्ति का, इसके द्वारा हम अपने विचारों एवं भावनाओं को एक दूसरे के साथ साझा करते हैं। भाषा का विकास

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कविता में अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण

यह निबन्ध ‘अदबी दुनिया’ लाहौर के 1939 के वार्षिक अंक में प्रकाशित करते हुए इस प्रतिष्ठित पत्रिका के सम्पादक और उर्दू के बुजर्ग साहित्यकार मौलाना सलाहुद्दीन अहमद ने लिखा थाः “प्रोफेसर फैज़

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कविता एक पेशा है

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नेरुदा के लिए कविता कोई शौक की चीज नहीं थी कि गाहे-बगाहे, स्वांतः सुखाय, जब मन में आया लिख लिया और जब इच्छा नहीं हुई, महीनों उसकी ओर झाँका भी नहीं। कविता

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जनता का साहित्य किसे कहते हैं?

जिंदगी के दौरान जो तजुर्बे हासिल होते हैं, उनसे नसीहतें लेने का सबक तो हमारे यहाँ सैकड़ों बार पढ़ाया गया है। होशियार और बेवकूफ में फर्क बताते हुए, एक बहुत बड़े विचारक

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मैं फ़िलॉसफ़र नहीं हूँ

मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि मैं लिख नहीं सकता, क्योंकि दिमाग में ख़यालात इतने बारीक आते हैं कि जिनको जाहिर करने के लिए मुझे भाषा नहीं मिलती। आप खुद

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मैं क्यों लिखता हूँ

मैं क्यों लिखता हूँ? यह एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूँ… मैं क्यों पीता हूँ… लेकिन इस दृष्टि से मुख़तलिफ है कि खाने और पीने पर मुझे रुपए खर्च

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