मूँद लो आँखें

मूँद लो आँखें शाम के मानिंद ज़िन्दगी की चार तरफ़ें मिट गई हैं बंद कर दो साज़ के पर्दे चाँद क्यों निकला, उभरकर…? घरों में चूल्हे पड़े हैं ठंडे क्यों उठा यह

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कविताएँ : गुंजन उपाध्याय पाठक

1. वह कांसे की नर्तकी जो मोहनजोदड़ो के छिन्न-भिन्न हो चुके सभ्यता के बरसों बाद कहीं मिट्टी की अनंत परतों में अपने अंतर्मन की अनेकानेक यात्राएं समेटे मिली थी उसके हृदय में

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क्या तुम रोई हो?

तुम देख लेते हो उसे वहाँ से निकल कर आते हुए अपने भीतर जहाँ जाकर सिसकती है अक्सर तुम पूछते हो : क्या हुआ? वह कहती है : कुछ नहीं तुम फिर पूछते

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एक ठहरा हुआ चाकू

अजीब बात थी, ख़ुद कमरे में होते हुए भी बाशी को कमरा ख़ाली लग रहा था। उसे काफी देर हो गई थी कमरे में आए–या शायद उतनी देर नहीं हुई थी जितनी

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भाग्य रेखा

कनाट सरकस के बाग में जहाँ नई दिल्ली की सब सड़कें मिलती हैं, जहाँ शाम को रसिक और दोपहर को बेरोजगार आ बैठते हैं, तीन आदमी, खड़ी धूप से बचने के लिए,

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गुलकी बन्नो

‘‘ऐ मर कलमुँहे !’ अकस्मात् घेघा बुआ ने कूड़ा फेंकने के लिए दरवाजा खोला और चौतरे पर बैठे मिरवा को गाते हुए देखकर कहा, ‘‘तोरे पेट में फोनोगिराफ उलियान बा का, जौन

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तस्वीर, इश्क़ की खुटियाँ और जनेऊ

वे तीन वेश्याएँ थीं। वे अपना नाम और शिनाख्त़ छुपाना नहीं चाहती थीं। वैसे भी उनके पास छुपाने को कुछ था नहीं। वे वेश्याएँ लगती भी नहीं थीं। उनके उठने-बैठने और बात

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हो काल गति से परे चिरंतन

हो काल गति से परे चिरंतन, अभी यहाँ थे अभी यही हो। कभी धरा पर कभी गगन में, कभी कहाँ थे कभी कहीं हो। तुम्हारी राधा को भान है तुम, सकल चराचर

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