एक खिलखिलाता चेहरा हमेशा के लिए खो गया

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रवींद्र कालिया से मेरी पहली भेंट सन 1963 में इलाहाबाद में हुई थी। परिमल के लोगों ने एक कहानी गोष्ठी की थी। उसमें कालिया और गंगा प्रसाद विमल दोनों आए थे। तब मैं करैलाबाग के एक कमरे वाले किराए के मकान में अकेले ही रहता था। दोनों मेरे घर पर ही रुके। हम लोगों ने एक-एक, दो-दो कहानियाँ तब लिखी थीं। हममें से किसी का भी कोई कहानी संग्रह तब तक नहीं छपा था।

सन 1965 में कालिया से दूसरी भेंट मॉडल टाउन में ममता से उसके विवाह के अवसर पर हुई। मेरी गोद में मेरा पहला बच्चा था। ममता और कालिया दूल्हे-दुल्हन के रूप में सजे-बजे साथ-साथ बैठे थे। मेज और कुर्सियों की एक लंबी कतार थी जिस पर दिल्ली के और दूसरी जगहों से आए हुए लेखक बैठे हुए थे। बधाई देने के लिए मोहन राकेश मुझे बाँह से पकड़कर कालिया के पास ले गए। तब तक नई कहानियाँ के माध्यम से हमारी पीढ़ी हड़कंप मचा चुकी थी।

‘नौ साल छोटी पत्नी’ और ‘डरी हुई औरत’ जैसी कहानियाँ लिखकर कालिया रातों रात प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँच गया। ‘5055’ एक कहानी भी है और एक घर का नंबर भी जहाँ चार मित्र (हमदम, प्रयाग शुक्ल, गंगा प्रसाद विमल और संभवतः रवींद्र कालिया) एक साथ रहते थे। मोहन राकेश जालंधर में कालिया के अध्यापक थे। राकेश जी ने ही उसे धर्मयुग में भिजवाया। उसकी एक अलग कहानी है जिसकी परिणति ‘काला रजिस्टर’ जैसी महान कहानी के रूप में लिखकर हुई। कालिया तभी 1970 के आसपास इलाहाबाद आया। शुरू में वह अश्क जी के घर 5, खुशरोबाग में उनके साथ रहा। इलाहाबाद प्रेस जो नारंग जी ने उसको सौंपा था, जो शमदाबाद वाली गली में ठीक ‘शबखून’ के दफ्तर के सामने है, प्रेस चलाते हुए कालिया के यहाँ कहानीकारों का जमावड़ा लगा रहता था। अपनी बांबे वाली नौकरी छोड़कर ममता भी यहीं आ गई थी।

कालिया ने प्रेस का काम देखते हुए भी वहाँ कहानियों की झड़ी लगा दी। एक के बाद एक उसके संग्रह आते रहे। ‘खुदा सही सलामत है’ दो भागों में लिखा उसका उपन्यास अतरसुइया, अहियापुर, शमदाबाद वाली गली, रोशनबाग यानी कोतवाली के इर्द-गिर्द के मुख्य शहर के इलाकों का वह एक खूबसूरत दस्तावेजी उपन्यास है। कालिया के पास एक अजब सी हल्की-फुल्की व्यंग्यात्मक और हास्य से भरी हुई गद्य शैली थी। पंजाब से लेकर दिल्ली, बांबे और इलाहाबाद में बोली जाने वाली हिंदी भाषा का जो तर्जे-बयाँ है, उसका सबसे खूबसूरत उदाहरण कालिया की कथाभाषा है।

दोस्तों के बीच उसकी जुबाँ से जैसे फूल झड़ते थे। हँसी-मजाक और व्यंग्य के वे पुरजोर कहकहे अब दुबारा पढ़ने सुनने को नहीं मिलेंगे। उसने और भी विधाओं में काम किया। उसने साथी कथाकारों पर ‘सृजन के सहयात्री’ नाम से संस्मरण की एक प्रसिद्ध किताब लिखी। कमाल है कि जिनसे झगड़ा था उनके प्रति भी किसी संस्मरण में कोई कटुता नहीं है। उसने ‘गालिब छुटी शराब’ जैसी अत्यंत लोकप्रिय किताब लिखी। हालाँकि शराब न गालिब से छूटी न कालिया से। और दोनों के लिए शराब जानलेवा साबित हुई। इस जहर की ओर तिल-तिल बढ़ते हुए और चखते हुए उसे मैंने लगातार देखा है। शमदाबाद वाली गली में और दिल्ली के लाजपत नगर में जहाँ ‘नया ज्ञानोदय’ के बतौर संपादक के रूप में वह रहता था। यह आदत उसने कई बार छोड़ी फिर भी नहीं छूटी। मेंहदौरी में, इलाहाबाद प्रेस में और लाजपत नगर में, हर जगह उसकी शाम अकेले ही शराब के गिलास के साथ गुलजार रहती थी। इसके पीछे कोई तर्क नहीं चलता कि बड़े और महान लेखक जानते बूझते हुए भी मौत को इस तरह गले क्यों लगाते हैं। सआदत हसन मंटो, मोहन राकेश और रवींद्र कालिया, तीनों के बारे में मैं यह सवाल बार-बार पूछता हूँ। महान प्रतिभाएँ अक्सर अपना ही हनन करती है। यह खयाल आता है।

कालिया की कुछ कहानियाँ जिसमें ‘काला रजिस्टर’ और ‘एक डरी हुई औरत’ को मैं सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ, समय के लंबे अंतराल में बची रहीं। कुछ हद तक उसका उपन्यास भी। नया ज्ञानोदय जैसी पत्रिका को कालिया ने तरह-तरह की सामग्रियों से चमका दिया। भरपूर लोकप्रियता दिलाई। सूचनाओं के मामले में अप टू डेट संपादक कालिया मगर अंत तक हाथ से ही लिखता रहा। लेकिन इस सब कुछ के बावजूद उसका अचानक चले जाना अजीब लगता है। उसने मौत की कई घाटियाँ बार-बार पार कीं। जो उसे जानते हैं, वो सब इस बात को जानते हैं। हम चार यारों (रवींद्र कालिया, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह और ज्ञानरंजन) के नाम से हिंदी कहानी में प्रसिद्ध थे। अचानक ही मौत उनमें से एक को झपट्टा मारकर उठा ले गई है। मेरे लिए इस दुख की छाया का कोई अंत नहीं है। उसको भुलाना संभव नहीं है। एक खिलखिलाता हुआ चेहरा हमेशा के लिए खो गया।

दूधनाथ सिंह

दूधनाथ सिंह (1936 – 2018) हिंदी के आलोचक, संपादक एवं कथाकार थे. उन्होंने अपनी कहानियों के माध्यम से साठोत्तरी भारत के पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक एवं मानसिक सभी क्षेत्रों में उत्पन्न विसंगतियों को चुनौती दी.

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