एक-दूसरे को बिना जाने पास-पास होना और उस संगीत को सुनना जो धमनियों में बजता है, उन रंगों में नहा जाना जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं। शब्दों की खोज शुरु होते ही
Moreकुछ का व्यवहार बदल गया। कुछ का नहीं बदला। जिनसे उम्मीद थी, नहीं बदलेगा उनका बदल गया। जिनसे आशंका थी, नहीं बदला। जिन्हें कोयला मानता था हीरों की तरह चमक उठे। जिन्हें
Moreचंपा काले काले अक्षर नहीं चीन्हती मैं जब पढ़ने लगता हूँ वह आ जाती है खड़ी-खड़ी चुपचाप सुना करती है उसे बड़ा अचरज होता है: इन काले चिन्हों से कैसे ये सब
Moreरवींद्र कालिया से मेरी पहली भेंट सन 1963 में इलाहाबाद में हुई थी। परिमल के लोगों ने एक कहानी गोष्ठी की थी। उसमें कालिया और गंगा प्रसाद विमल दोनों आए थे। तब
Moreमैं हिंदी के उन खुशनसीब लेखकों में हूँ, जिसने श्रीलाल जी के साथ जम कर दारू पी है, डाँट खायी है और उससे कहीं ज्यादा स्नेह पाया है। जाने मुझ पर क्या
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