फूल झरे

फूल झरे जोगिन के द्वार हरी-हरी अँजुरी में भर-भर के प्रीत नई रात करे चाँद की गुहार। केसर-क्यारी से बहकी हिरना साँवरी ठुमुक-ठुमुक चले कहीं रुके नहीं पाँव री कहाँ तेरा हाट-बाट

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पाप

पाप करना पाप नहीं पाप की बात करना पाप है पाप करने वाले नहीं डरते पाप की बात करने वाले डरते हैं! मत डरिए, चाहे जितना पाप करें आप उतना पाप करें

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तुमने छोड़ा शहर

तुम ने छोड़ा शहर धूप दुबली हुई पीलिया हो गया है अमलतास को बीच में जो हमारे ये दीवार थी पारदर्शी इसे वक्त ने कर दिया शब्द तुम ले चली गुनगुनाते हुए

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मेरे रब की मुझ पर इनायत हुई

मेरे रब की मुझ पर इनायत हुई कहूँ भी तो कैसे इबादत हुई हक़ीक़त हुई जैसे मुझ पर अयाँ अलम बन गया है ख़ुदा की जुबां मुख़ातिब है बंदे से परवरदिगार तू

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स्वप्न में तुम हो, तुम्हीं हो जागरण में

स्वप्न में तुम हो तुम्हीं हो जागरण में कब उजाले में मुझे कुछ और भाया, कब अंधेरे ने तुम्हें मुझसे छिपाया, तुम निशा में औ’ तुम्हीं प्रात: किरण में; स्वप्न में तुम

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सुगंध फूल की भाषा है

भाषा क‌ई बार बिलकुल असहाय हो जाती है कभी-कभी ग़ैरज़रूरी और हास्यास्पद भी बिना बोले भी आख्यान रचा जा सकता है मौन संवाद का सर्वोत्तम तरीका है भाषा केवल शब्दों का समुच्चय

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कोरोना काल में

समझदार हैं बच्चे जिन्हें नहीं आता पढ़ना क, ख, ग हम सब पढ़कर कितने बेवकूफ़ बन चुके? यह समय और सत्ता दोनों ने बता दिया। बच्चे बेहतर है तुम स्याही का मतलब

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भूख से आलोचना

एक मित्र ने कहा, ‘आलोचना कभी भूखे पेट मत करना। आलोचना पेट से नहीं दिमाग से होनी चाहिए।’ आजादी के बाद देश के हुक्मरानों की कितनी आलोचनाओं को दिमाग वालों ने मारा,

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