राख हो जाए यह दुनिया

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राख हो जाए यह दुनिया अनुप्रिया

हमारे तलवे में है चक्कर
कि हमें घूमना है घर भर की धुरी पर
बिना नागा
अपने भीतर की आग को बचा कर रखना है
चूल्हे भर में
अपने सपनों को बेलना है रोटी की शक्ल में
जंगल में मन के
जो उग आयी है लतरती हुई बेल
उखाड़ फेंकना है उसे
कि उसके हरियाते पंख कहीं छू न लें आकाश
आँखों के नीचे, कलाईयों पर, बाहों पर और पीठ पर
जो उग आए हैं नीले निशान
उस पर हल्दी के लेप से मिलेगा आराम
या
रगड़ कर मिटा दूँ उन्हें
अपनी देह से
अपने मन से
अपनी नींद से
और खुरच दूँ तलवे के चक्कर
जिसकी धुरी मेरे भीतर रोप दी गयी है
कह दूँ उन लतरती बेलों से
छू लो आकाश के होंठ
और गमकने दो अजन्मे फूलों को
या
उस आग को हवा दूँ कि
राख हो जाए यह दुनिया
जो हमारे सपनों की राख पर जन्मती है!

अनुप्रिया

अनुप्रिया मूलतः सुपौल, बिहार से हैं और देश की मानी हुई चित्रकारों में से एक हैं। आपकी कृतियाँ कि कोई आने को है और थोड़ा सा तो होना बचपन इन दिनों अपने पाठकों के बीच है। आपसे anupriyayoga@gmail.com पे बात की जा सकती है।

अनुप्रिया मूलतः सुपौल, बिहार से हैं और देश की मानी हुई चित्रकारों में से एक हैं। आपकी कृतियाँ कि कोई आने को है और थोड़ा सा तो होना बचपन इन दिनों अपने पाठकों के बीच है। आपसे anupriyayoga@gmail.com पे बात की जा सकती है।

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