अमूर्त चाहनाएँ

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सीमा संगसार

खंडित आस्थाओं की
अपूर्ण प्रतिमाएँ
पूर्णता की तलाश में
स्थापित कर दी जाती हैं
प्राचीन धरोहरों की तरह
मंदिरों या समाहरणालय में

क्षत विक्षत अंगों के साथ
अमूर्त चाहनाएँ भी
बोल पड़ती है एक दिन
दीवार की भित्तियों पर
मूक संवेदनाओं की साक्षी
प्राचीन धरोहरों की तरह
कि मूर्तिभंजक आततायी
हर युग में आते रहे हैं

उनकी चेतना में
गर नहीं टूटा तो
प्राण प्रतिष्ठित पाषाण मूर्तियों के
अधरों पर स्मित मुस्कान
आँखों में अगाध स्नेह

कि हर स्त्री अहल्या नहीं होती
जिसे राम ने छुआ हो
पुनर्जीवित करने के लिए
त्याज्य ढांचे में ढली हुई
यक्षिणी
एक अधूरी कविता की तरह
भूला दी जाती है
पूर्ण रुप से

नदियों को पता होता है
इनके मन की थाह
गो कि नदियाँ सुनती आ रही हैं
सदियों से
उनकी अंतर्ध्वनि
कभी सुन सको तो सुन लेना
नदियों के जलधारा में बहते संगीत को

स्त्रियों ने मूक संवाद स्थापित किया
अपने मन की भित्तियों पर
जहाँ न जाने कितनी ही अबूझ लिपियाँ उकेरी गई हैं
घूंघट काढ़े इन स्त्रियों के आँखों में
कई कहानियाँ दर्ज हैं
लिख पाओगे कभी उन्हें शब्दों में बाँधकर?

सीमा संगसार

सीमा संगसार (जन्म - 1978) बेगुसराय, बिहार से हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पे देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे Sangsar.seema777@gmail.com पे बात की जा सकती है।

सीमा संगसार (जन्म - 1978) बेगुसराय, बिहार से हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पे देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे Sangsar.seema777@gmail.com पे बात की जा सकती है।

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