आदर्श चरित्र

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खट्टर काका ने मेरे हाथ में पुस्तक देखकर पूछा – आज बड़ी मोटी पुस्तक लेकर चले हो, जी!

मैंने कहा – आदर्श चरितावली है।

खट्टर काका मुस्कुरा उठे। बोले – आजकल कोई इन आदर्शों पर चलने लगे, तो सीधे पागलखाना पहुँच जाय!

मैंने कहा – ऐसा क्यों कहते हैं, खट्टर काका? देखिए, सत्यवादी दानवीर राजा हरिश्चन्द्र कैसे थे?

चंद्र टरै सूरज टरै, टरै जगत व्योहार
पै दृढ़ श्री हरिचंद को, टरै न सत्य विचार!

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले – वाह रे सत्य विचार! मान लो, सपने में तुम अपना खेत मुझे दान कर दिया, तो क्या जागने पर दस्तावेज बना दोगे? मैं सपने में किसा को कन्यादान कर दूं, तो क्या जागने पर उसे अपना दामाद बना लूँगा?

मैंने कहा – खट्टर काका, वहाँ तात्पर्य है सत्य की महिमा दिखलाना।

खट्टर काका बोले – यहीं तो मूर्खता प्रारंभ हो जाती है। स्वप्न में न जानें, लोग कितनी बे-सिर-पैर की बातें देखते हैं। यदि उन्हें सच मानकर चलने लगें, तो क्या हालत होगी? मगर अपने यहाँ तो कुएँ में भी भंग पड़ी है। हम जाग्रत् अवस्था से स्वप्न को ही अधिक महत्त्व देते हैं। इसी नींव पर वेदांत का भवन खड़ा है। सारा संसार स्वप्नवत् है। सर्व मिथ्या। बल्कि सुषुप्ति से भी एक डेग और आगे, तुरीयावस्था को, हम आदर्श मानते हैं । विश्व के और देशों में जागृति के नगाड़े बजते हैं, और हमारे यहाँ का मंत्र है –

या देवी सर्व भूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमोनमः
(दुर्गासप्तशती)

मैंने कहा – खट्टर काका, अपने यहाँ का दृष्टिकोण आध्यात्मिक है।
खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक बोले – हाँ, इसलिए हम दिन को रात और रात को दिन समझते हैं!

या निशा सर्वभूतानां तस्या जागर्ति संयमी
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः
(गीता 2189)

जब सारा संसार जागता है, तब हम सोये रहते हैं। और, जब सब सो जाते हैं, तब रात्रि के अंधकार में हम जागते हैं। हो सकता है, किसी पक्षी से प्रेरणा मिली हो।

मैं – खट्टर काका, आपका व्यंग्य तो ‘नावक का तीर’ होता है। ‘देखन में छोटी लगे, घाव करै गंभीर।’

खट्टर काका बोले – गलत थोड़े ही कहता हूँ? इस देश के पक्षी भी तत्वदर्शी होते हैं। शुक, जटायु, गरुड़, काक, सभी तो हमारे गुरु हैं। और, उलूक की तो कोई बात ही नहीं! यदि उनमें विशेषता नहीं होती, तो वैशेषिक को औलूक्य दर्शन क्यों कहा जाता?

मैंने कहा – खट्टर काका, राजर्षि जनक जैसे ब्रह्मज्ञानी भी तो इसी देश में हो गये।

खट्टर काका बोले – अजी, इसी ब्रह्मज्ञान ने तो हम लोगों को चौपट कर दिया। मिथिलेश जनक का सिद्धांत था –

मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दहति किंचन

“सारी मिथिला जलकर खाक हो जाय, तो इसमें मेरा क्या बिगड़ता है?” यदि आज सभी भारतवासी यही आदर्श मानकर चलने लगें, तो इस देश की क्या दशा होगी?

मैंने कहा – खट्टर काका, उनका आदर्श था पद्मपत्रमिवांभसा। जिस प्रकार कमल का पत्ता जल में रहकर भी असंपृक्त रहता है, उसी प्रकार संसार में रहते हुए भी उससे निर्लिप्त रहना चाहिए।

खट्टर काका बोले – उपमा तो बड़ी सटीक है। लेकिन एक दिन भी उस तरह रहकर देखो तो। तुम पद्म-पत्र की तरह निर्विकार बैठे रहो, तो मैं अभी जाकर तुम्हारा समूचा घर-बार दखल कर लूँ।

मैंने कहा – खट्टर काका, जनक विदेह थे। उनके लिए जैसे मिट्टी के ढेले, वैसे सुंदरी के स्तन।

खट्टर काका विहँसकर बोले-तब तो विदेह बनने में अनिर्वचनीय आनंद है! लेकिन एक बात बताओ कि यदि वह सचमुच विदेह थे, तो उनके जिए जैसे राम, वैसे रावण । फिर धनुष-यज्ञ ठानने की क्या आवश्यकता थी? और यदि कहीं रावण ही धनुष तोड़ देता तो?

मैंने कहा – खट्टर काका, महर्षि याज्ञवल्क्य को लीजिए। वह कैसे आत्मज्ञानी थे!

खट्टर काका मुस्कुराते हुए बोले – ऐसे आत्मज्ञानी थे, कि दो-दो पलियाँ रखते थे। आत्मा के लिए मैत्रेयी और शरीर के लिए कात्यायनी।

मैंने कहा – परंतु गार्गी के साथ उनका शास्त्रार्थ कितने उच्च स्तर पर हुआ था?

खट्टर काका बोले – बिल्कुल बचकाने स्तर पर हुआ था। जब गार्गी प्रश्न पर प्रश्न पूछकर उनको नाकोदम करने लगी, तब झल्ला उठे “अब ज्यादा पूछोगी तो तुम्हारी गर्दन कटकर गिर पड़ेगी।”

मैं-वह कैसे त्यागी थे?

ख.-ऐसे त्यागी थे कि शास्त्रार्थ से पहले ही सभी गायों को हँकवाकर अपने घर भेज दिया कि बाद में कहीं दूसरा न ले जाय।

मैं-यहाँ के ब्राह्मण कैसे वीतराग होते थे?

ख.-ऐसे, कि उनकी नाक पर हमेशा क्रोध ही चढ़ा रहता था। भृगु ने विष्णु को लात मार दी। भार्गव ने अपनी माता की गर्दन उड़ा दी।

मैं-महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र कैसे थे?

ख.-दोनों वेश्या-संसर्गी थे। एक उर्वशी के गर्भ से निकले। दूसरे ने मेनका को गर्भ कर दिया। ऋषियों का भीतरी हाल अप्सराएँ जानती हैं।

मैं-देवर्षि नारद कैसे पहुँचे हुए भक्त थे…

ख.-कि मोहिनी ने बंदर की तरह नचा दिया! अजी, यहाँ के मुनियों को सुंदरियाँ सदा से अँगुलियों पर नचाती आयी हैं। एक भ्रूभंग से उनकी सारी तपस्या भंग कर देती हैं।

मैं-प्रह्लाद और विभीषण कैसे धर्मात्मा थे?

ख.-एक ने बाप को मरवाया, दूसरे ने भाई को। भगवान् ऐसे आदर्शों से भारत की रक्षा करें!

मैं भीष्मपितामह कैसे मर्यादा-पालक थे? ख.-जो भरी सभा में द्रौपदी को नग्न होते हुए देखकर भी चुप लगा गये! मैं-द्रोणाचार्य कितने महान् थे।

ख.-कि स्वार्थवश एकलव्य जैसे शिष्य का अंगूठा कटवा लिया। आज का छात्र रहता, तो दूर से ही अँगूठा दिखा देता!

मैं-आरुणि कैसे गुरुभक्त थे…

ख.-जो गुरु के खेत में आड़ बाँधने के बजाय खुद वहाँ लेट गये! वह विशुद्ध मूर्खता का आदर्श दिखा गये हैं। ऐसे ही विद्यार्थी ढिबरी में तेल नहीं रहने पर दिन भर सूखे पत्ते बटोरते थे और रात में उन्हें जलाकर पढ़ने बैठते थे।

मैंने क्षुब्ध होते हुए देखा-खट्टर काका, तब ऐसी कथाओं की कोई उपयोगिता नहीं?

खट्टर काका बोले – उपयोगिता थी। उस समय के गुरु चालाक थे। विद्यार्थी मंदबुद्धि होते थे। इसीलिए गुरुभक्ति के ऐसे-ऐसे उपाख्यान गढ़े गये हैं। आचार्य लोग विद्यार्थियों से गायें चरवाते थे, लकड़ी कटवाते थे। प्रत्येक कथा में कुछ न कुछ अभिप्राय भरा है किसी ने बिना पूछे पेड़ से अमरूद तोड़ लिया होगा। उसी को लज्जित करने के लिए शंख-लिखित की कथा रच डाली गयी। किसी राजा ने ब्राह्मण गाय देकर छीन ली होगी। उसी को डराने के लिए राजा नृग की कहानी गढ़ दी गयी। राजा नृग ने इतनी हजार गौएँ दान की, वे तो गयीं कोठी के कंधे पर! और, एक गाय भूली-भटकी उनके पास लौट आयी तो उन्हें हजारों वर्ष तक कुएँ में गिरगिट बनकर रहना पड़ा! अजी, नृग के वंशजों को जरा भी अक्ल रही होगी, तो फिर कभी भूलकर भी गोदान का नाम नहीं लिया होगा।

मैंने कहा – खट्टर काका, आपसे कौन बहस करे? मगर देखिए, इसी भरत भूमि पर कैसे-कैसे राजा हो गये हैं! भरत को लेकर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। उनके पिता दुष्यंत यहाँ के भूषण थे।

खट्टर काका बोले – दुष्यंत ने कुमारी मुनिकन्या शकुंतला को दूषित कर दिया और पीछे पहचानने से भी इनकार कर दिया। ऐसे लंपट और कायर राजा को तुम भूषण कहते हो? दूषण कहो।। दुष्यंत नाम भी तो वही सूचित करता है। अजी, एक से एक कामुक और विषयलोलुप राजा यहाँ हो गये हैं। राजा ययाति की वृद्धावस्था में इंद्रिय शिथिल हो जाने पर भी यौन लालसा नहीं मिटी तो पुत्र से यौवन उधार माँगकर भोग किया! ऐसी उद्दाम कामवासना का दृष्टांत और किसी देश के इतिहास में मिलेगा?

मैंने कहा – खट्टर काका, आप दूसरा पक्ष क्यों नहीं देखते हैं? इसी देश में शिवि-दधीचि जैसे आदर्श दानवीर भी तो हो गये हैं!

खट्टर काका बोले – हाँ, राजा शिवि ने अपना मांस काटकर दान किया। दधीचि ने अपनी हड्डी दान कर दी। तुम भी अपनी नाक काटकर किसी को दे दो, तो क्या मैं तुम्हें आदर्श मान लूँगा?

मैंने कहा-खट्टर काका, आप तो ऐसा दो-टूक कह देते हैं कि जवाब ही नहीं सूझता। लेकिन देखिए, ये सातों चरित्र अमर समझे जाते हैं –

अश्वत्थामा बलिप्सः हनूमांश्च विभीषणः
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः

खट्टर काका मुस्कुराकर बोले-इस श्लोक का असली तात्पर्य समझे? दरिद्र ब्राह्मण, मूर्ख राजा, खुशामदी पंडित, अंध भक्त, कृतन भाई, दंभी आचार्य एवं क्रोधी विप्र-ये सातों चरित्र इस भूमि पर सदा विद्यमान रहेंगे। यह देश का दुर्भाग्य समझो।

मैंने कहा – खट्टर काका, अपने यहाँ एक से एक आदर्श चरित्र भरे पड़े हैं और आपको कोई ऊँचता ही नहीं! देखिए, सती-सावित्री जैसी आदर्श देवियाँ इसी देश में हो गयी हैं।

खट्टर काका बोले-इन देवियों में किसी ने अपने बाप की बात नहीं मानी। माता-पिता से विद्रोह कर स्वेच्छानुसार प्रेम-विवाह किया। इन्हीं को तुम आदर्श मानते हो? आज अगर मेरी बेटी भी वैसा ही करने लग जाय, तो मुझे कैसा लगेगा? इसीलिए मैं सती-सावित्री के उपाख्यान अपनी लड़कियों को नहीं पढ़ने देता। देखो, यह चरितावली मेरे घर में नहीं जाने पाए!

मैंने क्षुब्ध होते हुए कहा – इन्हीं आदर्शों को लेकर तो हमारा देश धर्मप्राण कहलाता है यहाँ एक से एक अनुपम आदर्श हो गये हैं.

खट्टर काका ने कहा – यह बात ठीक कहते हो। यहाँ ऐसे-ऐसे बेजोड़ नमूने हो गये हैं, जिनका दुनिया में जवाब नहीं! मोरध्वज पर आतिथ्य का उन्माद चढ़ा, तो बेटे को आरे से चीरकर अतिथि के आगे रख दिया! इसे सिद्धांत कहोगे या पागलपन? किसी पर दानोन्माद चढ़ता था; किसी पर सत्योन्माद! एक स्त्री पर सतीत्व की सनक सवार हुई, तो कोढ़ी पति को सर पर लादकर उसे वेश्या के कोठे पर भोग कराने के लिए ले गयी! तुम इन्हें आदर्श समझते हो। मैं कहता हूँ, ये लोग मानसिक विकृतियों के शिकार थे।

मैंने कहा – खट्टर काका, अपने यहाँ के राजा और ब्राह्मण उच्च सिद्धांत पर चलते थे।

खट्टर काका बोले – अजी, राजा के पास बल था, बुद्धि नहीं । ब्राह्मण के पास बुद्धि थी, बल नहीं। एक बात-बात पर शस्त्र निकालते थे, दूसरे बात-बात पर शास्त्र निकालते थे। एक के हाथ में चाप चढ़ा रहता था। दूसरे की जिह्वा पर शाप चढ़ा रहता था। ब्राह्मण को सनक चढ़ती थी, तो कोई वचन गढ़ लेते थे। राजा को सनक चढ़ती थी तो कोई प्रण ठान लेते थे। ऐसे-ऐसे प्रणों के चलते न जानें इस देश में कितने प्राण गये हैं!

मैंने कहा – खट्टर काका, अपने यहाँ तो यह परंपरा रही है कि प्राण जाहिं पर वचन न जाहिं!

खट्टर काका बोले – यही तो मूर्खता है। सिद्धांत हमारे लिए बने हैं; हम उनके लिए नहीं बने हैं। वे हमारे साधन हैं, साध्य नहीं। अगर वे लक्ष्य की पूर्ति में साधक नहीं होकर बाधक बन जायँ, तो किस काम के?

वा सोना को जारिये जा सौं टूटै कान!

आज बचपन का मोजा तुम्हें नहीं अँटेगा, तो क्या उसी के मुताबिक अपना पाँव मैंने कहा-पर सिद्धांत तो मोजे की तरह बदलनेवाली चीज नहीं है।

खट्टर काका बोले – क्यों नहीं है? कभी पति की चिता पर सती होनेवाली स्त्री देवी की तरह पूजी जाती थी। आज कोई ऐसा करने जाय, तो उसे पुलिस पकड़कर ले जाएगी।

मैंने कहा – किंतु जो सिद्धांतवादी हैं, वे कानून की दफा के अनुसार थोड़े ही चलते हैं।

खट्टर काका बोले – नहीं चलें। किंतु बुद्धि के अनुसार तो चलना ही चाहिए। ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है, जिस पर आँख मूंदकर चला जाय। मान लो, कोई गुरु विद्यार्थी को आदेश देते हैं-‘पूरब की ओर जाओ।’ अब यदि वह विद्यार्थी नाक की सीध में बढ़ता चला जाय और किसी ताड़ के पेड़ से टकरा जाय और वहाँ जिद पकड़ ले कि ‘एक इंच भी पेड़ से इधर या उधर होकर नहीं जाऊँगा’, तो क्या इसे आदर्श कहोगे या बेवकूफी? इस अक्खड़पन के चलते कितने राजा कट मरे, कितनी रानियाँ जल मरीं, है। कितने महल खंडहर हो गये! सारा इतिहास तो इन्हीं मूर्खताओं से भरा है।

मैंने कहा – खट्टर काका, तो फिर ऐसे पौराणिक उपाख्यान क्यों बने?

खट्टर काका कहने लगे-अजी, राजाओं को ठगने के लिए, विद्यार्थियों और शद्रों से सेवा कराने के लिए, स्त्रियों को वश में रखने के लिए, इतने सारे उपाख्यान गढ़े गये हैं। उपाख्यानकार जिस नैतिक आदर्श का चित्रण करते हैं, उसे पराकाष्ठा पर ही पहुंचा देते हैं। सतीत्व की महिमा दिखलानी हुई, तो किसी सती के आँचल से आग की लपट निकलती है! कोई स्वामी को यमराज के हाथ से छीनकर ले आती है! कोई सूर्य के चक्के को रोककर काल की गति बंद कर देती है! बिना अतिशयोक्ति के उन्हें बोलना ही नहीं आता । नतीजा यह हुआ कि आदर्शों के चित्र फोटो नहीं होकर महज कार्टून (विद्रूप) बन गये हैं।

मैंने पूछा – तब इन पौराणिक आदर्शों का कोई मूल्य नहीं ?

खट्टर काका बोले – वही मूल्य, जो अजायबघर में रखी, पुरानी जंग-लगी ढाल-तलवारों का होता है। वे प्रदर्शन के लिए होते हैं, व्यवहार के लिए नहीं।

मैं – खट्टर काका, चरित्र-चित्रणों में इतनी अतिशयोक्ति क्यों है?

खट्टर काका बोले – अजी, अतिशयोक्ति हमारे रक्त में है। वैदिक युग से ही हम जिसकी प्रशंसा करते हैं, उसे त्वमर्कः त्वं सोमः करते हुए आकाश पर चढ़ा देते हैं । जिसकी निंदा करनी होती है, उसे पाताल में धंसा देते हैं। जेहि गिरि चरण देहि हनुमंता, सो चलि जाँहि पताल तुरंता!’ बीच का रास्ता हम जानते ही नहीं।

देखो न, हमारा सारा साहित्य ही अतिशयोक्तियों से भरा हुआ है। बड़ी आँखें अच्छी लगी तो उन्हें कान तक सटा दिया। पुष्ट पयोधर पसंद आये, तो उन्हें कलशों के बराबर बना दिया। अजी, सब बातों की एक सीमा होती है। यहाँ तो कोई सीमा ही नहीं!

मुख मस्तीति वक्तव्यं दशहस्ता हरीतकी!

जिसे जो मन में आया, लिख मारा ! कोई पहाड़ उठा लेता है! कोई समुद्र सोख जाता है! कोई पृथ्वी को दाँतों में रख लेता है! कोई सूर्य को निगल जाता है! कोई चतुरानन, कोई पंचानन, कोई षडानन, कोई दशानन! कोई चतुर्भुज, कोई अष्टभुज, कोई सहस्रभुज! कोई एक सहस्र वर्ष युद्ध करता है। कोई पाँच सहस्र वर्ष तपस्या करता है। कोई दस सहस्र वर्ष भोग करता है! इन्हीं अतिशयोक्तियों के प्रवाह में हमने सत्य को डुबो दिया।

मैंने पूछा – तो क्या ये सारी बातें कपोल-कल्पित हैं?

खट्टर काका व्यंग्यपूर्वक बोले – जब तक हमारे देश में दिग्गज पंडित मौजूद हैं, तब तक ऐसी बात कहने की धृष्टता कौन कर सकता है? हमारे एक महावीरजी आ जायँ तो सभी देशों की सेनाओं को अपनी पूँछ में लपेट लें! एक अगस्त्य मुनि आ जायँ तो जहाज सहित सभी समुद्रों को सोख जायँ! एक वराह अवतार हो जाय, तो सारी पृथ्वी को उठाकर फुटबॉल की तरह फेंक दें! एक वामन आवे तो डेग भर में चंद्रमा को नाप लें ! और देशवाले आविष्कार करते रहें, हम लोगों का काम अवतार से ही चल जाता है। एक अवतार अभी हो जाय, तो सारी समस्याएँ हल हो जायँ । एक हुंकार से खाद्यान्न का पहाड़ लग जाय! एक वाण से दूध-दही का समुद्र लहराने लगे!

मैंने कहा – खट्टर काका, आपने तो अतिशयोक्ति की धारा बहा दी।
खट्टर काका हँसते हुए बोले – अजी, हम वंशज किसके हैं? रक्त का धर्म कहीं छूटता है? विज्ञान की उन्नति करने के लिए तो और देश हैं ही।  कल्पना-विलास का भार भी तो किसी पर रहना चाहिए!

अच्छा भाई। अपना अलबम ले जाओ। मुझे ऐसे आदर्श नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूँ।

हरिमोहन झा
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हरिमोहन झामैथिली भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक आत्मकथा 'जीवन–यात्रा' के लिये उन्हें सन् 1985 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित(मरणोपरांत) किया गया।

हरिमोहन झामैथिली भाषा के विख्यात साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक आत्मकथा 'जीवन–यात्रा' के लिये उन्हें सन् 1985 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित(मरणोपरांत) किया गया।

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