क्या तुम रोई हो?

तुम देख लेते हो उसे वहाँ से निकल कर आते हुए अपने भीतर जहाँ जाकर सिसकती है अक्सर तुम पूछते हो : क्या हुआ? वह कहती है : कुछ नहीं तुम फिर पूछते

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एक ठहरा हुआ चाकू

अजीब बात थी, ख़ुद कमरे में होते हुए भी बाशी को कमरा ख़ाली लग रहा था। उसे काफी देर हो गई थी कमरे में आए–या शायद उतनी देर नहीं हुई थी जितनी

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भाग्य रेखा

कनाट सरकस के बाग में जहाँ नई दिल्ली की सब सड़कें मिलती हैं, जहाँ शाम को रसिक और दोपहर को बेरोजगार आ बैठते हैं, तीन आदमी, खड़ी धूप से बचने के लिए,

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दिल के ‘दाग़’

“सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं ख़त ग़ैर का पढ़ते थे जो टोका तो वो बोले अख़बार का पर्चा है ख़बर

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लयबद्ध

सबको तो रोशनी नहीं मिलती समझौता कर लो अँधियारे से हर भटके राही को सिर्फ़ यही उत्तर एक मिला ध्रुवतारे से। ज़्यादातर सुंदर ही होते हैं फूलों के बारे में यह सच

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लौटना

तुमने कहा जाती हूँ और तुमने सोचा कि कवि-केदार की तरह मैं कहूँगा जाओ लेकिन मेरी लोक-भाषा के पास अपने बिंब थे मेरी भाषा में जब भी कोई जाता था तो ‘आता

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मातृभाषा की मौत

माँ के मुँह में ही मातृभाषा को क़ैद कर दिया गया और बच्चे उसकी रिहाई की माँग करते-करते बड़े हो गए। मातृभाषा ख़ुद नहीं मरी थी उसे मारा गया था पर, माँ

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अपरिचित

कोहरे की वजह से खिड़कियों के शीशे धुँधले पड़ गये थे। गाड़ी चालीस की रफ़्तार से सुनसान अँधेरे को चीरती चली जा रही थी। खिड़की से सिर सटाकर भी बाहर कुछ दिखाई

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