रबीन्द्रनाथ टैगोर का पत्र शरतचंद्र के नाम

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[शरतचंद्र की किताब ‘पथेर दाबी’ पे अपना मत व्यक्त करते हुए रबीन्द्रनाथ टैगोर का पत्र]

कल्याणयेषु !

तुम्हारा ‘पथेर दाबी’ पढ़ लिया। पुस्तक उत्तेजक है, अर्थात् अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध पाठकों के मन को अप्रसन्न करती है। लेखक के कर्तव्य के हिसाब से वह दोष नहीं हो सकता। क्योंकि लेखक अंग्रेजी राज को खराब समझता है। वह चुप नहीं बैठ सकता। लेकिन चुप न बैठने पर जो विपद पैदा हो सकती है वह भी उसको स्वीकार करनी चाहिए। अंग्रेजी राज क्षमा कर देगा, इस अधिकार को लेकर हम उसकी निन्दा करें, यह भी कोई पौरुष की बात नहीं है। मैं नाना देशों में घूम आया हूँ और जो कुछ जान सका हूँ, उससे यही देखा है कि एकमात्र अंग्रेजी राज को छोड़कर स्वदेशी या विदेशी प्रजा के मौखिक या व्यावहारिक विरोध को और कोई भी राज्य उतने धैर्य के साथ सहन नहीं करता।

यदि हम अपनी ताकत पर नहीं, बल्कि दूसरे की सहिष्णुता की बदौलत विदेशी राज्य के संबंध में यथेच्छ व्यवहार दिखाने का साहस दिखाते हैं तो, वह पौरुष की विडम्बना-मात्र है। उसमें अंग्रेज़ी शासन के प्रति ही श्रद्धा झलकती है न कि अपने प्रति। राजशक्ति में पशुबल है, यदि कर्तव्य के आधार पर उसके विरुद्ध खड़ा भी होना पड़े तो दूसरे पक्ष में चारित्रिक ज़ोर का होना यानी आघात सहने का ज़ोर होना आवश्यक है। पर हम अंग्रेज़ी शासन से उस चारित्रिक ज़ोर की मांग करते हैं, अपने से नहीं। उससे प्रमाणित होता है कि हम मुंह से चाहे जो भी कहें पर अपने अनजान में हम अंग्रेज़ों को गालियां देकर हम उनसे सज़ा की आशंका नहीं करते। शक्तिमान की दृष्टि से देखा जाए तो तुम्हें कुछ न कहकर सिर्फ तुम्हारी पुस्तक को जब्त कर लेना लगभग क्षमा करना है। कोई भी प्राच्य या पाश्चात्य विदेशी शासन ऐसा न करता। हम भारतीयों के हाथों में राजशक्ति होती तो हम क्या करते, इसका अनुमान हम अपने ज़मींदारों और भारतीय रजवाड़ों के व्यवहार से लगा सकते हैं।

पर इसीलिए लेखनी बन्द थोड़े ही करनी है। मैं भी यह नहीं कहता। मैं कह रहा हूँ कि सज़ा स्वीकार करके ही लेखनी चलानी पड़ेगी। जिस किसी देश में राजशक्ति के साथ विरोध हुआ है, वहां ऐसा ही हुआ है। राजशक्ति का विरोध करते हुए आराम से नहीं रहा जा सकता। इस बात को असंदिग्ध रूप से जानकर ही ऐसा करना है। क्योंकि यदि तुम पत्रों में उनके राज्य के विरुद्ध लिखते तो उसका प्रभाव बहुत थोड़ा और बहुत कम समय के लिए होता। किन्तु तुम्हारे समान लेखक गल्प के रूप में ऐसी कथा लिखें तो उसका प्रभाव सदा ही होता रहेगा। देश और काल दोनों ही की दृष्टि से उसके प्रचार की कोई सीमा नहीं हो सकती। कच्ची उम्र के बालक-बालिकाओं से लेकर बूढ़ों तक पर उसका प्रभाव होगा। ऐसी अवस्था में अंग्रेज़ी राज्य यदि तुम्हारी पुस्तक का प्रचार बन्द न करे तो उससे यही समझा जा सकता है कि साहित्य में तुम्हारी शक्ति और देश में तुम्हारी प्रतिष्ठा के संबंध में उसे कोई ज्ञान नहीं है। शक्ति पर जब आघात किया है, तो प्रतिघात सहने के लिए तैयार रहना ही होगा। इसी कारण से उस आघात का मूल्य है। आघात की गुरुता को लेकर विलाप करने से उस आघात के मूल्य को एक बार ही मिट्टी कर देना होगा। इति।

तुम्हारा,
रबीन्द्रनाथ ठाकुर
27 माघ, 1333 (10 फरवरी, 1927 ई०)

रबीन्द्रनाथ टैगोर

रबीन्द्रनाथ टैगोर  (1861 – 1941) विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता हैं। उन्हें गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बाँग्ला' गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।

रबीन्द्रनाथ टैगोर  (1861 – 1941) विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबल पुरस्कार विजेता हैं। उन्हें गुरुदेव के नाम से भी जाना जाता है। वे एशिया के प्रथम नोबेल पुरस्कार सम्मानित व्यक्ति हैं। वे एकमात्र कवि हैं जिसकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं - भारत का राष्ट्र-गान 'जन गण मन' और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान 'आमार सोनार बाँग्ला' गुरुदेव की ही रचनाएँ हैं।

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