मोहन राकेश का पत्र राजेंद्र यादव के नाम

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डी.ए.वी. कॉलेज,
जालंधर
13-5-55

माई डियर राजेन्द्र यादव,

दोस्त उपन्यास की पांडुलिपि भेजने में दो दिन की देरी हो ही गई, जो अपनी आदतों को देखते हुए बहुत कम है। ख़ैर, पार्सल आज रवाना हो गया – उपन्यास मैंने पूरा पढ़ा है – एक एक शब्द! मुझे उपन्यास के पूर्वार्घ और उत्तरार्ध में एक भेद लगा। जहाँ पूर्वार्ध में तुम्हारी दृष्टि की पकड़ बहुत यथार्थ है वहाँ उत्तरार्ध में वह सैद्धांतिकता और निष्कर्षवाद के चक्कर में काफ़ी हिल गई है – तुमने हर पात्र पर थोड़ा बहुत नक़ली पेंट चढ़ा दिया है। परिणाम यह है कि अन्त में सब पात्र कठपुतलियों की तरह चालित होने लगते हैं – यहाँ मेरी मुराद प्रधान पात्रों से है। उपन्यास का अन्त नाटकीय या ठीक कहें तो मैलोड्रैमेटिक सा है – घटनाओं को तुमने इस बुरी तरह एक दूसरी पर लाद दिया है कि स्वाभाविकता उनमें गुम होकर रह गई है। चरित्रों पर शाब्दिकता आ गई है और इस तरह तुमने अन्त में चलकर ‘कृशन चंदरियत’ के प्रति आत्म-समर्पण कर दिया है…

पढ़ने में उपन्यास आरम्भ से अन्त तक रोचक है – कहानी कहीं ‘डल’ नहीं होती और यह कम सफलता नहीं है। इससे बड़ी सफलता है आरम्भ से अन्त तक तुम्हारी दृष्टि की स्पष्टता और अभिव्यक्ति की साहसिकता, बल्कि कहीं-कहीं दुःसाहसिकता। इस तरह इस पुस्तक से तुम्हें कुटिल दृष्टिपात और गाढ़ालिंगन तो बहुत मिलेंगे, परन्तु निन्दा स्तुति के फेर से हटकर भी तो उपन्यास का एक अस्तित्व है और उस दृष्टि से इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है सभी पात्रों की प्रायः एक ही भाषा में भाषण देने की प्रवृत्ति – हर प्रसंग में वे पुस्तकीय ज्ञान बधारने से बाज़ नहीं आते और अपनी स्वाभाविकता और लैक्चरबाजी को मिलाकर वे रेडियो सीलोन का व्यापार विभाग बन जाते हैं। मैं इसे तुम्हारी कमज़ोरी कहूँगा कि तुमने जो कुछ पढ़ा है, और जो तुम्हें अच्छा लगा है, उसे पात्रों के मुँह में ज्यों का त्यों कहलवाने के लोभ को तुम संवरण नहीं कर सके–यह लोभ तुम्हें उन चीज़ों का विस्तार देने में भी रहा है, जो तुमने कभी देखी है, परन्तु जिनका फोटोग्राफ़िक विस्तार के साथ वर्णन उस श्रेणी के पाठक को उकता देगा, जो श्रेणी प्रायः इसे पढ़ेगी। तुम्हारी हज़ार कोशिश के बावजूद उपन्यास की अपील ‘इंटेलीजेंशिया’ तक ही सीमित होगी और उस दृष्टि में हर तीसरे कदम पर तौलियों-अलमारियों और मेज़पोशों के रंग, डिज़ाइन और सईज़ गिनाने लगना बहुत ‘एमैच्योरिश’ लगता है। ‘डिटेल’ देने का यह मतलब कदापि नहीं है कि आदमी बाणभट का चेला बनकर मैदान में उतर आए, कि साले पढ़ने लगा है तो अब जाता कहाँ है – ले, जूड़े का नाप और स्टाइल याद कर तेल का रंग और खुशबू पहचान, ब्लाउज़ का कपड़ा और कट देख- अच्छी खासी whiteways की सैर हो जाती है।

मुझे ज़्यादा गुस्सा इसलिए आया कि साला इतना अच्छा आरम्भ था – ऐसी अच्छी development चल रही थी और आप जाने दूसरे शो में कोई बंबइया पिक्चर देख आए और उपन्यास के अन्त को उसी रंग में ढाल दिया। साले ज़रा पेशेंस से काम लेता तो क्या बिगड़ जाता?

अब ज़रा टेकनीक के बखिये उधेड़े जाएँ – आरम्भ से उपन्यास में हर चीज़ को शरत की दृष्टि से देखा गया है, इसलिए पाठक शरत के साथ ही चलता है। यह महा ‘सोचालु’ चरित्र, काफी हद तक भी राजेन्द्र यादव जी के व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है – मजाक तो वह ठेठ उन्हीं की जबान में करता है (और यही क्यों, हर पुरुष और स्त्री प्रायः मज़ाक़ करते समय ठेठ राजेन्द्र यादवीय स्टाइल अपना लेना अपना जन्मजात अधिकार समझता है। खैर! तो शरत के साथ चलते हुए आपको दो एक जगह दिक्कत पेश आई और आप उस बेचारे को अकेला छोड़कर दूसरी जगह जा पहुँचे (जैसे कार में बैठे कथूरिया जी से सूरज जी की बातचीत के प्रसंग में और ‘बातें! बातें! बातें! शीर्षक अध्याय के कट सीन्ज़ में। यहाँ जर्क लगता है। या तो भेदानीय टेकनीक लेकर चलते और हर पात्र की स्वतंत्र दृष्टि इस्टैब्लिश करते। या फिर शरत का पल्ला पकड़कर ही चलते। यह कमज़ोरी बहुत खलती है!

ख़ैर निंदा बहुत हो गई। अब सुनो कि पूर्वार्ध के सूरज नेता भैया और माया देवी बहुत शार्प चरित्र हैं, जैसे कि हिन्दी में बहुत कम देखने में आते हैं। शरत सबसे ज्यादा Composite अर्थात् घालमेल चरित्र है – बाद में तुमने सभी को composite (चरित्र) बना दिया है। भाषा की दृष्टि से कहा जा सकता है कि इसनी सजीव भाषा भी बहुत कम मिलती है। कई जगह वर्णन बहुत सुन्दर और IMAGES बहुत आकर्षक हैं।

मगर एक बात बताओ कि यह साला शरत ‘चेतन और गर्मराक्ष’ के हीरो (क्या नाम था उसका?) का ही परिशोधित संस्करण नहीं है? अन्तर केवल इतना है कि यह साला मार्क्सिस्ट विश्लेषण कर लेता है। पर उपन्यास की परिणति तो पलायन में ही है – भले ही सूरज जी की नसें प्रत्यंचा की तरह तन गई, पन्तु वह प्रत्यंचा भी एक धोखे से ज्यादा क्या है?

अन्त में – भूमिका में गाड़ी की लेक्चरबाज़ी की उपन्यास की मेन थीम पर क्या इंजीनियरिंग है? वो चीज़ बहुत हल्की-हल्की आई है। उपन्यास का ढाँचा उठकर खड़ा नहीं है जैसी कि अपेक्षा होती है। अतः अब अपना तीसरा उपन्यास जल्दी से लिख डालो।

सस्नेह
राकेश

नोट : ‘उखड़े हुए लोग’ पर चर्चा है।

मोहन राकेश
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मोहन राकेश (1925 - 1972) नई कहानी आन्दोलन के सशक्त हस्ताक्षर थे। आपको 'आषाढ़ का एक दिन','आधे अधूरे' और 'लहरों के राजहंस' जैसी कृतियों के लिए याद किया जाता है।

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