ख़ामोश चिंताएँ

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ख़ामोश चिन्ताएँ सुनील सक्सेना

आठ बज गए। दूधवाले का अभी तक कोई अतापता नहीं था। पानी धुंआधार बरस रहा था। बादल जैसे आज ही गरज-बरस कर साल भर का कोटा पूरा करने पर आमादा थे। माया की बैचेनी बढ़ने लगी। अंशु के जगने का टाइम हो गया था। वो उठते ही दूध मांगेगा और घर में दूध की एक बूंद नहीं थी। सुधीर मस्‍त सो रहे थे। पिता हैं पर कोई परवाह नहीं। घर में क्‍या है और क्‍या नहीं सब मां ही संभाले?

“उठो यार कैसे इतने चैन से सो लेते हो तुम? नत्‍थू अभी तक नहीं आया। दूध खत्‍म हो गया है। अंशु उठ गया तो बिना दूध के रो-रो के आसमान सिर पर उठा लेगा। ये बरसात क्‍या शुरू हो गई इस नत्‍थू का तो रोज का नाटक हो गया है। कभी टाइम से दूध नहीं लाता। मालूम है उसको कि घर में छोटा बच्‍चा है। रोज लेट हो जाता है। हर बार एक नया कारण। कभी न खत्‍म होनेवाले बहानों की तो डायरी है उसके पास।” माया ने झुंझालते हुए सुधीर की चादर खींच ली।

“तुम भी न ज़रा-ज़रा सी बात पर पैनिक करती हो। देख रही हो कितना तेज पानी पड़ रहा है। सायकल से आता है वो। कहीं रूक गया होगा। थोड़ा पेशेन्‍स रखो। आता ही होगा।”

इतने में सायकल की घंटी बजी। नत्‍थू पानी में तरबतर दूध की केन लिए दरवाजे पर खड़ा था।

“ये क्‍या है नत्‍थू … तुम रोज लेट हो जाते हो। तुम्‍हें पता है अंशु बाबा को सुबह उठते ही दूध लगता है।”

“अब क्‍या करें मैडम। बरसात-पानी, आंधी-तूफान पर तो अपना जोर नहीं है न। हम जब डेरी से निकले तो आसमान साफ था। फिर तो झमाझम चालू हो गई। कितनी जगह रूकते-रूकाते, बचते- बचाते आया हूँ। फिर भी देख लीजिए क्‍या हालत हो गई मेरी।”

“भैया अब ये एक-दो दिन की बात तो नहीं है। बरसात तो अब दो-तीन महीने चलेगी। तुम रोज ऐसे ही देर से आओगे तो कैसे काम चलेगा? तुम बरसाती खरीद लो।”

“मैडम हम कहे थे अपने सेठ को एकठो रेनकोट के लिए। कहता है कि मिट्टी के बने हो क्‍या जो गल जाओगे। चलाओ कुछ दिन काम ऐसे ही। भीगो। मजे लो बरसात के। अगले महीने जब पगार मिले तो खरीद लेना।” नत्‍थू के कपड़ों से पानी चू रहा था। वो बुरी तरह ठंड से कांप रहा था।

सुधीर जो अभी तक नत्‍थू और माया की बात सुन रहा था, आया और नत्‍थू के हाथ में रूपये रखते हुए बोला – “लो ये कुछ पैसे हैं रख लो । आज बाजार से ढंग की एक अच्‍छी बरसाती खरीद लेना ।”

“दानवीर कर्ण तो सब हमारे घर में ही पैदा हुए हैं। अरे, महीना ख़त्म होने में अब बचे ही कितने दिन हैं। उसे तनख्‍वाह मिलती तो खरीद लेता। पर नहीं हमारे यहां तो पैसों की खदान है। खूब लुटाओ।” माया भुनभुनाती हुई दूध की भगोनी लेकर चल गई।

बारिश की झड़ी लगी हुई थी। अगले दिन जब नत्‍थू आया तो फिर भीगा हुआ था। लेकिन टाइम पर था।

“देखा … आप ही को पड़ी थी पैसे देने की। कहाँ ली उसने बरसाती? उड़ा दिये होंगे सारे पैसे पीने-पाने में।” माया के स्‍वर में तंज था। सुधीर ने सुना सब। लेकिन अनसुना कर, न्‍यूज पेपर पढ़ता रहा।

एक हफ्ता हो गया। नत्‍थू जब भी सुबह बारिश में दूध देने आता भीगा ही रहता। माया जब नत्‍थू को बिना बरसाती के देखती तो उसकी आत्‍मा कलप जाती। व्‍यग्र हो उठती। उसे लगता सुधीर के दिए पैसे नत्‍थू ने अय्याशी में उड़ा दिए। ये लोग हमदर्दी के लायक है ही नहीं। और जब एक दिन माया के सब्र का बांध टूटा तो उसने कह ही दिया – “नत्‍थू तुमने अभी तक बरसाती नहीं खरीदी। क्‍या किया उन पैसों का?”

“मैडम बरसाती तो हम खरीदे। पर अपने लिए नहीं अपने छोटे बचुआ के लिए। स्‍कूल खुल गए हैं न उसके। बरसाती की जरूरत हमसे ज्‍यादा तो बचुआ को है। और फिर हम कौन मिट्टी के बने हैं कि घुल जाएंगे मैडम। आप चिंता न करें, हम लेट नहीं होंगे। जैसा हमारा बचुआ वैसा ही अंशु बाबा हैं हमारे लिए।” नत्‍थू की बात सुन माया स्‍तब्‍ध थी। उसे लगा वो गलत थी। पिता भी चिंता करते हैं लेकिन उनकी चिंताओं में आवाज नहीं होती है। वे खामोश होती हैं।

सुनील सक्सेना
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सुनील सक्सेना ग्वालियर, मध्य प्रदेश से हैं। आपकी पहचान बतौर लेखक व अभिनेता के रूप में है। आप रंगमंच से भी जुड़े हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पे देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे sunil.saxena06@gmail.com पे बात की जा सकती है।

सुनील सक्सेना ग्वालियर, मध्य प्रदेश से हैं। आपकी पहचान बतौर लेखक व अभिनेता के रूप में है। आप रंगमंच से भी जुड़े हैं। आपकी रचनाएँ समय-समय पे देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। आपसे sunil.saxena06@gmail.com पे बात की जा सकती है।

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