ग़ालिब के परसाई

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तमाम दूबों, चौबों, तिवारियों, वर्माओं, श्रीवास्तवों, मिश्रों को चुनौती है – बता दे कोई , अगर ग़ालिब के पूरे दीवान में कहीं किसी का ज़िक्र हो। कबीरदास ने अलबत्ता हमारे पड़ोसी पाण्डेयजी का नाम लिखा है -“साधो पांडे निपट कुचालि।” इससे पांडे जी कबीर से बहुत नाराज़ है। मगर ग़ालिब ने लगातार दो शेरों में परसाईजी को याद किया है। मुलाहज़ा हो –

पए-नज्रे करम तोहफ़ा है शर्मे न रसाई का
ब-खूं-गल्तीदा-ए-सद-रंग दावा पारसाई का
न हो हुस्ने तमाशा दोस्त रुस्वा बेवफ़ाई का
बमुहरे सद नज़र साबित है दावा पारसाई का

मेरा दावा इन शेरों से साबित होता जाता है। कहता हूँ सच कि झूठ की आदत नहीं मुझे।

ग़ालिब ने मेरे लिए इतना किया है कि ख़ुदा और प्रेमिका के बाद परसाई को याद किया है। मेरा भी उनके प्रति कुछ फ़र्ज़ हो जाता है। मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ की उनकी याद में जलसा कामयाब हो। इस साल टोटल १७२१५ समारोह ग़ालिब की याद में होंगे। इतने समारोहों के उद्घाटन के लिए इतने साधारण विद्वान नहीं मिलेंगे। पर देश में पंचायती विद्वानों की कमी नहीं है। कल ही एक पंचायती विद्वान का भाषण सुन रहा था। वे कह रहे थे – ग़ालिब ? अहा ! ग़ालिब महान कवि थे ! अहा ! ग़ालिब महान शायर थे। अहा !मिर्ज़ा ग़ालिब के क्या कहने, अहा !’

मैं पंचायती विद्वान की तकलीफ़ देख बहुत दुखी हुआ। तय किया कि इस तकलीफ़ को दूर करूँगा। मैं सारे पंचायती विद्वानों के लिए एक नमूने का भाषण लिख रहा हूँ जिससे उनकी तकलीफ़ दूर हो जायेगी, ग़ालिब के समारोह सफल होंगे और ग़ालिब के प्रति मेरा फ़र्ज़ भी निभ जाएगा – हक़ तो ये है कि हक़ अदा न हुआ।

जो वेद नहीं पढ़े वे भी वैदिक धर्म को मानते हैं। जो शास्त्र नहीं पढ़े, शास्त्रों में विश्वास रखते हैं। जो ग़ालिब को समझते हैं, वही ग़ालिब को समझा सकते । ग़ालिब ने ख़ुद कहा है।

जो ग़ालिब को नहीं समझे
वही उसे सही समझे

अगर ग़ालिब इस उम्दा शेर को अपने गले डालने से इंकार करे तो यह मीर को दे दिया जाए। अगर मीर भी इसका जोखिम न उठाना चाहे तो इसे मेरा ही मान लिया जाए।

इस बुनियाद पर अब भाषण खड़ा होता है।

भाइयों और बहनों,
बड़ी ख़ुशी की बात है कि सौ साल पहले ग़ालिब की मृत्यु हो गयी थी। अगर वे सौ साल पहले नहीं मरते, तो आज हमें यहाँ समारोह करने का सुनहरा अवसर न मिलता। हम ग़ालिब के आभारी है कि उन्होंने हमें ये चांस दिया।

आप पूछेंगे कि ग़ालिब कौन है ? यह प्रश्न ग़ालिब के समय में भी लोग पूछते थे। ग़ालिब प्रचार से दूर रहते थे। कोई नहीं जानता था कि ग़ालिब कौन है।

ग़ालिब खुद भी नहीं जानते थे कि वे ग़ालिब है। एक दिन एक आदमी ग़ालिब के घर आया था और उसने नौकर से पूछा – क्यों जी यह तो बताओ। ग़ालिब कौन है ? नौकर पड़ोसियों के पास जाकर बोला –

पूछते हैं वे कि ग़ालिब कौन है
कोई बतलाये कि हम बतलायें क्या ?

पड़ोसियों को भी नहीं मालूम था। नौकर ने उस आदमी से कहा – यहां कोई ग़ालिब फ़ालिब नहीं रहता। उधर लकड़ी के ताल पर पूछो। ऐसे थे ग़ालिब। और आज के इन कवियों को देखो जो ख़ुद अपना ढोल पीटते फिरते हैं।

मैं आज आपको एक रहस्य की बात बताता हूँ। ग़ालिब शायर थे। शायर ही नहीं, कवि भी थे। मुसलमान जिसे शायर कहते हैं, हिन्दू उसे कवि कहते हैं। बात एक ही है – राम कहो चाहे रहीम। मैं तो हिन्दू मुस्लिम भाई भाई का सिद्धांत मानता हूँ। हमारे महात्मा गांधी कहा करते थे –

एक साथ मिलकर गाओ
प्यारा भारत देश हमारा
झंडा ऊँचा रहे हमारा।

भाइयों, ग़ालिब विश्व के महान कवि थे। वे विश्व के ही नहीं, भारत के भी महान कवि थे। सिर्फ भारत के ही क्यों उर्दू के भी महान कवि थे। मैं तो उन्हें हिंदी का कवि भी मानता हूँ। हिंदी उर्दू में कोई भेद नहीं है। हिन्दू लोग जिसे हिंदी कहते हैं, मुसलमान उसे उर्दू कहते हैं। सच पूछा जाए तो ग़ालिब महान भारतीय परम्परा के कवि थे, क्यूंकि वे जुआ खेलते थे। हमारे यहाँ जुआ खेलने वाले को धर्मराज कहते है। ग़ालिब कलयुग के धर्मराज थे।

अब मैं ग़ालिब की शायरी पर प्रकाश डालूँगा। ग़ालिब ग़ज़ल लिखते थे। वे ग़ज़ल ही नहीं, शेर भी लिखते थे। शेर लिखना बड़ा ख़तरनाक काम है। ग़ालिब खानदानी सिपाही थे, इसलिए शेर से डरते नहीं थे और उसे लिख देते थे। दुनिया में सिकन्दर सरीखे बहादुर हो गये पर शेर एक भी ना लिख सके। यह ग़ालिब का ही दम था। और आज के ये कवि कुत्ते से डर जातें हैं। ये कायर क्या शेर लिखेंगे।

भाइयों, ग़ालिब ने बहुत दुख भोगे। एक कोई गुण्डा तो खंजर लेकर उनके पीछे ही पड़ा रहता था। उसका नाम ‘सितमग़र’ था। सितमग़र नाम का यह गुंडा ग़ालिब को ज़िन्दगीभर तंग करता रहा। दिल्ली की पुलिस उनसे मिली हुई थी, और उस पर कोई कार्यवाही नहीं करती थी। धिक्कार है चौहान साहब की पुलिस को।

ग़ालिब को पुलिस तंग करती थी। एक दिन वे थककर सड़क पर बैठ गये पुलिस वाला आया और उन्हें उठाने लगा। ग़ालिब ने बड़ी लाचारी से कहा – ‘बैठे हैं रहगुज़र पे हम कोई हमें उठाये क्यों ?’ पुलिसवाले ने उन्हें घसीटकर किनारे कर दिया। ग़ालिब रोने लगे। किसी राहगीर ने पूछा -“अरे भाई, रो क्यों रहे हो ?

ग़ालिब ने जवाब दिया –“रोयेंगे हम हजार बार कोई हमें सताए क्यों ?” यानी अगर पुलिसवाला हमें सताएगा, तो हम क्यों नही रोयेंगे!

दिल्ली में दूसरे शायर ग़ालिब को द्वेष कारण तंग करत थे । वे ग़ालिब की बदनामी के लिए कविताएँ लिखत थे और उन्हें फैलाते थे। एक शायर कहता था कि दिल्ली में ग़ालिब की आबरू ही नहीं है । वह लिखता है –

बना है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वरना शहर में ग़ालिब की आबरू क्या है

जरा सुनिए, ये बदमाश कैसी कैसी बातें उस महान कवि के बारे में करते थे

काबा किस मुँह से जाओगे गालिब
शर्म तुमको मगर नहीं आती

ये दिल जले कवि सम्मेलनों में ग़ालिब को अपने लोगों से हूट करवाते थे। परेशान हो कर ग़ालिब कलकत्ता के कवि सम्मेलन में चले गए। वहां भी स्थानीय प्रतिभाओं ने उन्हें हूट किया। कलकत्ता में भी वे उखड़ गए।

ये ऐसे नीच लोग थे कि जब ग़ालिब मर गए प्रशंसक रोने लगे, तो इन्हें बुरा लगा। ग़ालिब के लिए इतने लोग रोये! कलेजे पर सांप लोट गया। कहने लगे –

ग़ालिबे-ख़स्ता के बगैर कौन से काम बन्द हैं
रोइए जार जार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों

आखिर ग़ालिब ने भी इन दुष्टों से निपटने का निश्चय कर लिया । उन्होंने कहा-

कोई दिन ग़र जिन्दगानी और है
हमने जी में अपने ठानी और है

यानी हमने ठान ली है कि जितनी जिन्दगी बची है, उसमें इन दुष्टों से गिन-गिनकर बदला लेना है।

भाइयों, ग़ालिब के कष्टों का अन्त नहीं था। उन्हें दिल की बीमारी भी थी। उनके हार्ट में हमेशा दर्द होता रहता था और वे इतने परेशान थे कि जो मिलता उसी से पूछते – ‘आखिर इस दर्द की दवा क्या है ?’ दिल्ली में उन दिनों कोई अच्छा हार्ट-स्पेशलिस्ट नहीं था। उन्होंने कलकत्ता में जाँच करायी, दवा भी ली, पर कोई फायदा नहीं हुआ। आखिर निराश होकर उन्होंने कह दिया – ‘मौत से पहले आदमी ग़म से नज़ात पाए क्यों?”

धिक्कार है हेल्थ मिनिस्टर को! इतने बड़े कवि के इलाज का इन्तजाम नहीं कर सके। संसद में इस बात पर किसी को प्रश्न उठाना चाहिए। दिल की ही नहीं, ग़ालिब को पेट की बीमारी भी थी। उनके पेट में दर्द होता रहता था। दिल्ली के एक हकीम से उन्होंने दवा ली थी। एक दिन हकीम पांणी चौक में मिल गये। पूछा – ग़ालिब साहिब, पेट का दर्द कैसा है? ग़ालिब ने जवाब दिया –

दर्द मिन्नत कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

यानी तबीयत में कोई फ़र्क नहीं है। दर्द जैसा-का-तैसा है। उर्दू साहित्य के एक विद्वान ने खोज की है कि ग़ालिब के पेट के दर्द का कारण शराब थी। हाय डाक्टर बनर्जी साहब उस वक्त दिल्ली में होते, तो ग़ालिब को अच्छा कर देते। कवि का दुर्भाग्य देखिए कि डाक्टर बनर्जी उनके मरने के बाद पैदा हुए। इसी को विधि की विडम्बना कहते हैं।

अब मैं आप को बताता हूँ कि मैं ग़ालिब को बड़ा कवि क्यों मानता हूँ। दुनिया के किसी कवि ने मरने के बाद कविता नहीं लिखी। ग़ालिब एकमात्र कवि है जिन्होंने मरने के बाद भी कविता लिखी। गेटे, शेक्सपियर, कालिदास , रवीन्द्रनाथ किसी ने भी मरने के बाद एक लाइन नहीं लिखी। पर ग़ालिब मरने के बाद भी लिखते रहे । उन्होंने मरने के बाद अपनी लाश के बारे में यह लिखा –

यह लाश बेकफ़न असद-ख़स्ता जां की है
हक़ मगफ़रत करे अजब आजाद मर्द था

इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी बता दिया कि वे परदेश में मरे थे, बल्कि मारे गए थे। इस शेर को देखिये –

मुझको दयार ऐ-ग़ैर में मारा वतन से दूर
रख ली मेरे ख़ुदा ने मेरी बेकसी की शर्म

शासन क्या सो रहा है। वह पता क्यों नहीं लगाता कि परदेश में ले जाकर किसने ग़ालिब को मारा।

भाइयों, अब मैं अत्यन्त भरे हृदय से ग़ालिब का एक संस्मरण सुनाता हूँ। शाम उतर रही थी। दिल्ली में हलकी सर्दी पड़ने लगी थी। मैं चौक में घूम रहा था। मैंने देखा, फ़र्गुशन साहब की दूकान से ग़ालिब शराब खरीद रहे हैं। मैं उनके पास गया मैंने कहा – ‘ग़ालिब साहब, तुझे हम वली समझते जो न बादाख़्वार होता।’ ग़ालिब थोड़ा झेंप गये । बोले – ‘इधर कैसे ?’ मैंने कहा – ‘घंटे वाले हलवाई के बगल की दूकान पर भांग पीने जा रहा हूँ। चलिए, आपको भी पिलाऊँ।’ ग़ालिब मेरे साथ हो लिये। मैंने उन्हें बढ़िया केसरिया भांग पिलवायी। बाद में उन्होंने कहा भांग तो शराब से भी ज्यादा मजा देती है।’ मैंने कहा – यही तो भारतीय संस्कृति का मजा है यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी। इसके बाद मैं जबलपुर आकर रहने लगा। सोचता हूँ, यदि मैं दिल्ली में ही रहता तो ग़ालिब की शराब पीने की आदत छुड़ा देता। मगर होता है वही, जो मंजूरे-ख़ुदा होता है।

भाइयों, ऐसे थे ग़ालिब जिनकी शताब्दी आज हम मना रहे हैं।

हरिशंकर परसाई

हरिशंकर परसाई (22/08/1924 – 10/08/1995) हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंगकार थे. ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए आपको 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

हरिशंकर परसाई (22/08/1924 – 10/08/1995) हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और व्यंगकार थे. ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ के लिए आपको 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

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