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स्वप्‍न कभी-कभी स्‍फूर्तिदायक होते हैं। पिछले एक वर्ष से डायरी लिखने का शौक लगा। समय-समय पर कागज पर अंकित, एकांत क्षणों में मेरे अच्‍छे और बुरे विचार मुझे अपने जीवन की समालोचना करने का अवसर देते हैं। डायरी निष्‍पाप और निष्‍कलंक है – मेरा अंतःकरण भी निष्‍पाप और निष्‍कलंक है। मैं दोनों को प्‍यार कर सकता हूँ, दोनों का आदर करना जानता हूँ, बहुत-सी बुराइयों के सा‍थ ही मुझमें एक अच्‍छाई है। काश, इन दोनों के आदेशों का पालन भी करने लगूँ !

22 अक्‍टूबर, 1941 ई. अमृतलाल नागर

शालिनी सिनेटोन स्‍टूडियो,

कोल्‍हापुर। (महाराष्‍ट्र)

22 अक्‍टूबर, 1941 ई.

दिवाली हो गई। आज भैया दूज है। अगर मेरी अपनी कोई सगी बहन होती तो आज के‍ दिन मुझे न भूलती। मुझे इस बात को देखकर बड़ी शांति है कि मेरे चि. बेबी (नागरजी के ज्येष्ठ पुत्र कुमुद) और चि. शरत (नागरजी के कनिष्ठ पुत्र शरद) के तिलक काढ़ने वाली उनकी बहन भा. आशा (नागरजी के ज्येष्ठ पुत्री अचला का बाल्यकाल में रखा गया नाम) है। प्रभु, मेरी प्रार्थना की लज्‍जा रक्‍खो! – ये दोनों भाई और उनकी ये बहन अखंड सुख भोगते हुए शतायु प्राप्‍त करें। बहन को उसकी ये भैया दूज मुबारक हो। उसे अपने दोनों भाइयों को इस तरह टीका काढ़ने का अवसर, प्रभु कृपा से, सौ वर्ष तक आए। तथास्‍तु।

चि. रतन (नागरजी के अनुज रतनलाल नागर) घर गया होगा। चि. रतन और चि. मदन (नागरजी के दूसरे अनुज मदनलाल नागर) तथा सौ. साधना (अनुज रतनलाल नागर की धर्मपत्नी) ने माते (नागरजी की माता) के साथ दिवाली मनाई होगी। प्रभु, इन्‍हें शतायु प्रदान करो और अखंड सुख दो। एवमस्‍तु !

आजकल मन चौबीस घंटे घरेलू वातावरण में ही रमा रहता है। नाथ, मुझे अपनी पूरी गृहस्‍थी के साथ रहकर जीवन भर सुख बिताने का अवसर दो। कोल्‍हापुर में अब मन जरा भी नहीं लगता। – मुझे एक-एक सेंकेंड भारी मालूम पड़ रहा है। मेरी मनोदशा इस समय बहुत खराब है।

शारीरिक अवस्‍था भी ठीक नहीं। मैंने इस छोटी-सी अवस्‍था में अपने शरीर पर जितना अधिक अत्‍याचार किया है, वह कम नहीं है। …मैं यह भी चाहता हूँ कि व्‍यायाम करके अपने शरीर को सुगठित बनाऊँ। मेरी यह बड़ी इच्‍छा है कि स्‍वास्‍थ्‍य भी मेरा बहुत अच्‍छा हो जाए। मेरा नियमित जीवन जिस दिन बन सकेगा-वह दिन बड़ा शुभ होगा। मैं दुनिया में कुछ काम कर सकूँगा। हे प्रभु, जिस दिन अपने साहित्‍य द्वारा मैं अपने देश की सेवा कर सकूँ – मैं अपने को धन्‍य समझूँगा। सचमुच, मेरा उद्देश्‍य यही है कि मैं अपने साहित्‍य द्वारा हिंदी साहित्‍य और अपने देश की सेवा कर सकूँ। बेकारी, झूठी प्रतिष्‍ठा, दलित वर्ग की करुण कहानी, सीधी-सादी भाषा में (झूठी और सस्‍ती भावुकता के चक्‍कर में न पड़कर) पुरअसर तरीके से अपने देशवालों को सुनाता चलूँ-विश्‍व को अपने देश की उस अवस्‍था (दशा) का परिचय दूँ, जिसे हमारे गौरांग प्रभु अपना उल्‍लू सीधा करने की गरज से छिपाते हैं। प्रसिद्धि का हर एक आदमी भूखा होता है; पर मैं यह बात मानने के लिए तैयार हूँ कि मुझमें यह बात कमजोरी तक बन कर आ गई है; लेकिन सिनेमावालों की तरह खुद ही अपनी तारीफ लिखकर और खुद होना मुझे नहीं भाता। मैं तो चाहता हूँ जनता ही में से कोई आकर मेरी कला पर लिखे, मुझसे इंटरव्‍यू ले, मेरे आटोग्राफ माँगे। यह मैं जानता हूँ कि अगर मैं अपना काम करता रहा तो ईश्‍वर मुझे यह सम्‍मान भी कृपापूर्वक प्रदान करेंगे। – सचमुच ‘बड़ा’ बनने की मेरी सबसे बड़ी महत्‍वाकांक्षा है। प्रभु, मैं निर्बल हूँ, मूर्ख हूँ। अपनी अस्लियत से मैं पूरी तरह परिचित हूँ, मुझे दुनिया वैसे जो कुछ भी समझे। प्रभु यह तुम्‍हारी ही कृपा का फल है कि आज मैं यह ‘कुछ’ बन सका हूँ – और एक दिन तुम्‍हारी ही कृपा के बल पर मैं बहुत कुछ बन जाऊँगा। मुझे तो मात्र तुम्‍हारा ही सहारा है।

अभी दिन की बात है – कंपनी की एक्‍स्‍ट्रानटियों में से एक – लालाबाई मुझसे कहने लगी : ”पंडितजी, अगली पिक्‍चर में मुझे काम दो और ऐसा लिखो कि ये कंपनी वाले आदमी नहीं, जम के दूत हैं। दूसरों को अपनी पिक्‍चर में बताते हैं कि गरीबी और अमीरी का भेदभाव दूर करो, मगर खुद ही करते हैं।” लालाबाई ने किस जलन और व्‍यथा के कारण यह बात मुझसे कही होगी, इसका मैं अंदाज लगा सकता हूँ। मुझसे उसका यह कहने का साहस भी सिर्फ इसलिए हुआ कि मैं स्‍टूडियो में विनायकराव (नवयुग चित्रपट के मालिक तथा ‘संगम’ फिल्म के निर्माता-निर्देशक) से लेकर होटल के एक मामूली ‘ब्‍वॉय’ तक से एक-सा प्रेम-व्‍यवहार रखता हूँ। सभी मौका पड़ने पर मुझसे अपने दिल की बात कह डालते हैं। मैंने यह चीज यहाँ पहले भी महसूस की। मैं यह नहीं कहता कि यह सिर्फ नवयुग चित्रपट में ही है। यह चीज आमतौर पर देखी जाती है -‘चिराग तले अँधेरा’ की कहावत पर यकीन हो जाता है। इसके पहले भी एक ऐसा ही किस्‍सा मैंने यहाँ देखा। म्‍यूजिक डिपार्टमेंट में केशोराय नाम का एक बुड्ढा करताल बजाने वाला था। बारह रुपये माहवार उसको मिलते थे। केशोराय बड़ा सीधा आदमी है। कंपनी के खर्चे में कमी करने की गरज से उसके लाख-लाख चिरौरी करने पर भी उसे निकाल दिया गया। एक दिन मैंने म्‍यूजिक डिपार्टमेंट में जाकर उसका अभाव महसूस किया। उसके बारे में पूछा तो सारा किस्‍सा मालूम हुआ। पता लगा, कोई साबुत कपड़ा न होने की वजह से चार रोज से अपनी कोठरी के बाहर नहीं निकली – यह उसकी 15/16 बरस की जवान जहान लड़की के संबंध में मैंने सुना। बेचारे को बुढ़ापे में भीख माँगने की कला का अभ्‍यास करना पड़ रहा है – यह मैंने सुना। उसके दो छोटे बच्‍चे भी अब पाठशाला जाना छोड़ भीख माँगने की कोशिश कर रहे हैं। मुझसे और कुछ सुना न गया। मैं उसके मकान का पता पूछकर उससे मिलने के लिए चला। रानडे (नवयुग चित्रपट में नागरजी के सहकर्मी) रास्‍ते में ही मिल गए। उनके पूछने पर मैंने तमाम किस्‍सा बतलाया। मैं और रानडे उसके घर गए। केशोराय अपने सामने स्‍टूडियो के दो ‘देवताओं’ (बड़े अफसरों) को देखकर स्‍तब्‍ध रह गया। हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए बोला : ‘आज हमारे यहाँ सत्‍तनरायन हैं – पूजा करूँगा।’

दो रंग की दो फटी हुई धोतियों को गाँठों से जोड़कर उसकी लड़की छोटी-सी-समृद्धिहीन-पूजन सामग्री सँजो रही थी। उसके दोनों भाइयों की बुरी हालत भी हमने देखी। केशोराय का पाताल से बातें करता हुआ पेट भी हमने देखा। वह भीख से थोड़े-बहुत पैसे जुटा कर भगवान को प्रसन्‍न करने का प्रबंध करता है। विदुर के घर शाक ग्रहण करने वाले, दीनबंधु हरि क्‍या उसका यह अमूल्‍य-प्रसाद ग्रहण न करेंगे? – नहीं, भगवान में इतना साहस नहीं। भगवान केशोराय और उसके परिवार को सुख दो। मैं सोचने लगा, उसकी लड़की जो देखने-सुनने में ऐसी कुछ बुरी भी नहीं – इस आफत में पड़कर खुद या अपने बाप के द्वारा अपनी जवानी की दुकान खोलकर बैठ जाए। …बड़े-बड़े लोग-यही परम भावुक श्री विनायक भी तब शायद चिल्‍ला देंगे कि हाय-हाय! केशोराय ने अपनी लड़की को वेश्‍या बनाकर बाजार में बैठा दिया। …पर आज उसकी मुसीबत का अंदाज लगाने की तरफ कोई ध्‍यान भी नहीं देता। बेकार का पेट्रोल खूब फूँका जाएगा – उसमें कमी कैसे हो? – अपनी कमजोरियों को Black mailer journalists से खरीदने के लिए हजारों रुपया फूँका जाएगा, क्‍योंकि वह Business है, खुद Rs. 1500/- में एक पाई कम करना पसंद नहीं करेंगे। साल-साल, डेढ़-डेढ़ साल से ‘एपरंटिसों’ को झौओं की तादाद में रखकर उन्‍हें एक पैसा दिए बगैर मजदूरों की तरह उनसे काम लिए जाएँगे। स्‍टॉफ की मीटिंग कर ‘भाई-भाई’ बनकर मेरी-आपकी सबकी कंपनी कहने का ढोंग रचेंगे, अपने साम्‍यवाद का इस तरह लेक्‍चरी-सबूत देकर यह समझ लेंगे कि हम सचमुच ही अपना सारा फर्ज अदा कर चुके। अखबारों में अपनी पब्लिसिटी भेजेंगे कि मामूली-से-मामूली नौकर भी उनसे भाई की तरह मिलता है। और घरौआ बरत सकता है। और उसके बाद यह हालत ! दुनिया सचमुच दुरंगी है।

खुदा का घर (नागरजी के प्रस्तावित उपन्यास का शीर्षक, जो कि पूरा नहीं हुआ।) अब उठाना चाहता हूँ। उस पर मैंने नोट्स लिखने शुरू कर दिए हैं। बहुत जल्‍द ही पूरा चार्ट बनाकर लिखने का काम शुरू कर दूँगा।

जुन्‍नरकर (नवयुग चित्रपट की फिल्म ‘संगम’ के सह-निर्देशक) ने मुझसे ‘पार्वती’ के संवाद और गायन लिखने की बात की है। लेकिन Business side के लिए चिंचलीकर (प्रस्तावित फिल्म के निर्माता) अभी बात नहीं करते। उनसे अभी ही सौदा तय हो जाता तो मेरी इच्‍छा थी, इसी बीच में पार्वती के गायन और संवाद लिखकर और रुपये लेकर घर जाता, परंतु प्रभु की जैसी मर्जी़ होगी वही होगा। उसी का आसरा है।

आज ईद है। मौलाना (नवयुग चित्रपट में नागरजी के एक अन्य सहकर्मी) शहर में नमाज पढ़ने गए थे। बाल-बच्‍चों से दूर इस तरह त्‍योहार का फीकापन मौलाना किस तरह से महसूस कर रहे हैं-यह मैं बड़ी ही अच्‍छी तरह समझ सकता हूँ।

23-10-41

कल शाम को ही मैंने डायरी में लिखा था, व्‍यायाम करके अपना शरीर सुगठित बनाने की मेरी इच्‍छा है। रात में ही काका (श्री चिंतामण राव मोडक – नवयुग चित्रपट में नागरजी के एक अन्य सहकर्मी) से बातें होने लगीं। उन्‍होंने मुझे बहुत उत्‍साहित किया और तीन अच्‍छी कसरतें भी बताईं। काका बड़े ही हँसमुख और खुशमिजाज आदमी हैं। नवयुग के एक यूनिट के रिकॉर्डिस्‍ट होकर आए हैं। पहले भी किसी वक्त यहाँ ही थे। काका से ‘संगम’ के सेट पर मेरी मुलाकात कराई गई और पाँच मिनट के अंदर ही हम इतने बेतकल्‍लुफ हो गए, मानो बरसों के दोस्‍त हों। काका अभी चार-पाँच दिन मेरे कमरे में मेहमान बन कर रहे, आज ही पूना वापस गए हैं। काका का शरीर बढ़ा सुगठित है। वे बतलाते थे कि 15 वर्ष की उम्र में उन्‍हें थाइसिस हो गई थी और वह 2nd stage तक पहुँच गई थी। डॉक्‍टरों ने जवाब दे दिया था। दैवयोग से इनके मन में अपने-आप ही धुन समाई और कसरत करना शुरू कर दिया और आज यह हालत है कि ढाई-पौने तीन मन का Iron Bar आसानी से उठा लेते हैं। सुप्रसिद्ध फिल्‍म-स्‍टार मास्‍टर मोडक (साहू मोडक) के चचा हैं, क्रिश्चियन हैं-मगर सबसे ऊपर काका बहुत अच्‍छे आदमी हैं। आज काका के जाने से सूना-सूना सा लगता है।

आज से ‘संगम’ की शूटिंग शुरू हो गई। एक सप्‍ताह के अंदर ही सब सीन डालने का इरादा है। आठ नवंबर को बंबई के वेस्‍ट-एंड-सिनेमा में प्रदर्शित होना निश्चित हुआ है। मैं श्री जुन्‍नरकर के साथ ही यहाँ से 5 नवंबर को बंबई जाऊँगा। रिलीज के बाद फिर लखनऊ जाऊँगा। अगर इसी बीच में ‘पार्वती’ के डॉयलॉग लिख जाता और पैसे मिल जाते तो अच्‍छा होता। जैसी प्रभु की मर्जी़ होगी-होगा। – हम सब उसी के आधीन हैं।

हिंदी साहित्‍य की खूब उन्‍नति हो – बस अब तो यही मन में लग रही है। चारों तरफ से अच्‍छी-अच्‍छी रचनाएँ निकलें। साहित्‍य के हर अंग को अच्‍छी तरह से सजाया जाए। क्‍या बताऊँ, एक अच्‍छी-सी मासिक पत्रिका मेरे हाथ में आ जाए तो मन की कुछ निकालूँ। ‘खुदा का घर’ और ‘लूलू’ (इस चरित्र पर केंद्रित संस्मरण वर्षों बाद ‘लूलू की माँ’ शीर्षक से ‘ये कोठेवालियाँ में लिखा।) दिमाग में घूम रहे हैं। पहले ‘खुदा का घर’ लिखना शुरू करूँगा। खूब लिखूँ ! खूब लिखूँ !! खूब लिखूँ !!! बस !

हरि तुम्‍हारी जय हो !

 

24-10-41

कल से कसरत करना शुरू कर दिया है। बदन के जोड़-जोड़ में उसके कारण दर्द हो रहा है। मौलाना कहते हैं, कसरत शुरू में दो महीने तक बड़ी तकलीफ देती है। जो भी हो, अब तो इसे छोड़ूँगा नहीं – यही मेरा निश्‍चय है। प्रभु इसे निबाह दें। मैं भी अपना बदन गठीला बना हुआ देखना चाहता हूँ। 

कल से ‘संगम’ के बकाया हिस्‍से की शूटिंग चल पड़ी है। दिन भर सेट पर ही बीता है।

 

आज ‘खजांची’ देखा। कहानी क्‍या है, बस वो मसल है कि ‘कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा – भानमती ने कुनबा जोड़ा’ – मगर इस पिक्‍चर को सफल जाना ही चाहिए था। इसमें वो ‘मास-अपील’ का मसाला मौजूद है। भगवान, मेरे ‘संगम’ को भी ‘फ्लूक’ बनाकर निकाल दें तो मुझे भी फायदा हो। सब कुछ प्रभु कृपा पर निर्भर है।

आज विनायकराव मुझसे कहते थे कि ‘संगम’ की पब्लिसिटी के संबंध में तुम भी चिंचलीकर के साथ दिल्‍ली जाओ।

आज बच्‍चों की याद बड़ी आ रही है। भगवान मेरे भाइयों और बच्‍चों तथा सारे परिवार को शतायु प्रदान करें और अखंड सुख दें। तथास्‍तु! – प्रभु तुम्‍हारी जय हो !

 

26-10-41

कल रानडे ने एक मजाक सुनाया। ‘सरकारी पाहुणे’ का ‘ट्रीटमेंट’ टाइप करने को दिया गया। रानडे ने लिखा था : A bullock-cart drawan by ten bullocks. टाइप होकर आया। ”A bullock-cart drawan by ten horses.” दुबारा ठीक करने के लिए भेजा गया। टाइप होकर आया! A bullock-cart drawan By Manutai. मनुताई फिल्‍म की हीरोइन का नाम है। टाइपिस्‍ट रौ में इस बार ‘मनुताई’ टाइप कर गया।

कल रात राजू और गोविंद को पत्र लिखा और 12 बजे सो गया। मौलाना शहर गए हुए थे।

आज सुबह से संपादक की कुरसी जोर मार रही है। तबीयत एक मासिक-पत्रिका को हाथ में लेने के लिए मचल रही है। हिंदी में इस समय कोई भी ऐसी मासिक पत्रिका नहीं जो आज के साहित्यिक-जगत के सामने अभिमान के साथ रखी जा सके। सबकी सब उसी दकियानूसी ढंग पर चली जा रही हैं। मेरा इरादा है एक ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो साहित्‍य के सभी अंगों की पुष्टि कर सके। उसमें मनन और स्‍वाध्‍याय की ठोस सामग्री हो। साधारण पाठक वर्ग के लिए भी काम उठाने का काफी साधन हो। हिंदी में इस वक्त बड़ी मनमानी और धाँधलेबाजी मची हुई है। गत से काम करने की तरफ किसी का ध्‍यान नहीं जाता। रामविलास शर्मा ऐसे उत्‍साही साहित्‍य-सेवियों की बड़ी जरूरत है। हिंदी में अच्‍छे-अच्‍छे लेखक पैदा किए जाएँ। विद्वानों का सहयोग प्राप्‍त किया जाए। मान लीजिए कि दुर्भाग्‍यवश बहुत से ऐसे विद्वान मौजूद हैं, जो अपनी मातृभाषा की सेवा करने की रुचि नहीं रखते। उन्‍हें उकसाया जाए। पहले यदि वो अंग्रेजी में भी लिखें तो उनसे लीजिए। संपादक खुद अनुवाद करके उसे छापे। ऐसे तीन-चार लेख जहाँ निकालें, फिर उनसे कहा जाए कि आप जैसी भी भाषा बने-हिंदी में ही लिखिए। बहुत से तो बस इसी वजह से संकोच करते हैं कि उनके पास भाषा नहीं। अगर उनका यह डर संपादक निकाल दें तो साल-छह महीने बाद वह सुंदर और सुचारु रूप से लिखने लगेंगे। ऐसे लोगों की भाषा भी जटिल न होकर प्राकृतिक बोलचाल की भाषा ही बनेगी। इस तरह हिंदुस्‍तानी का मसला आप ही आप हल हो जाएगा। कोई भी तकलीफ न होगी। संपादक लोग जरा भी मेहनत नहीं करते। उनमें स्‍फूर्ति ही नहीं। संपादक की कुरसी पर बैठकर, बस, लोग अभिमान से फूल जाते हैं – काम कायदे से करते ही नहीं। उन्‍हें लेखक बनाने का परिश्रम उठाने में शर्म मालूम पड़ती है। आशीर्वाद और उपदेश वो लोग बाँट सकते हैं। दौड़-धूप कर कायदे के विद्वानों का सहयोग प्राप्‍त नहीं करते। संपादक भी आम तौर पर जाहिल और बुद्धू ही है। हे ईश्‍वर, किस दिन हिंदी साहित्‍य का सूर्य चमकेगा!

10 बजे रात

योग की व्‍याख्‍या करते हुए महर्षि पतंजलि अपने योग-दर्शन के द्वितीय सूत्र में कहते हैं : ”योग * चित्‍तवृत्ति निरोधः” चित्‍त की वृत्तियों को रोकना दो प्रकार से संभव बतलाया गया है।

(1) संप्रज्ञात (2) असंप्रज्ञात।

इसके पहले कि इन दो प्रकार के योग साधनों का भेद बताया जाए, पतंजलिजी की परिभाषा के अनुसार चित्‍त के पाँच प्रकारों को समझ लेना आवश्‍यक है –

(1) क्षिप्‍त (2) मूढ़ (3) विक्षिप्‍त, (4) एकाग्र (5) निरुद्ध।

क्षिप्‍त – चित्‍त की उस अवस्‍था को कहेंगे जब उसमें निरंतर रजोगुण का प्राधान्‍य रहे।

मूढ़ – तामसी वृत्तियों के प्राबल्‍य से जब चित्‍त विवेकरहित हो जाए – ऐसा, जैसे कि मनुष्‍य निद्रावस्‍था में ज्ञान एवं चेतनता शून्‍य हो जाता है।

विक्षिप्‍त – इस प्रकार के चित्‍त में चंचलता अधिक होती है, वह कभी-ही-कभी स्थिर हुआ करता है। विक्षिप्‍त में प्रायः सतोगुण और रजोगुण की प्राधान्‍यता रहती है। तामस कम रहता है। विक्षिप्‍त की क्षणिक स्थिरता में ही एकाग्रता भी संभव है और एकाग्रता के कारण सात्विक वृत्तियों का पोषण भी संभव है, जिनके द्वारा योग के मार्ग, या यों कहना चाहिए कि योग के प्रवेश द्वार तक पहुँच जाना मनुष्‍य के लिए संभव है।

पातंजलि के मतानुसार क्षिप्‍त और मूढ़ प्रकारों के चित्‍त में योग का आभास भी होना संभव नहीं, क्‍योंकि उनमें सतोगुण का अभाव है।

एकाग्रता – किसी भी विषय-विशेष को लेकर उसी में रम जाना। उदाहरणार्थ हम sex को ही ले लें। sex को लेकर यह भी संभव है कि हम तमोगुण को प्राधान्‍यता दें, क्‍योंकि sex के संबंध में सोचते ही शारीरिक उपभोग…। रजोगुण भी संभव है कि हम उस सुख के मद में चूर हो जाएँ, परंतु इन दोनों गुणों को छोड़कर हम सतोगुण प्रधान चित्‍त से sex के संबंध में विचार कर सकते हैं। उस समय हमारा चित्‍त केवल अध्‍ययन के तौर पर ही इस विषय की विवेचना करेगा। ऐसा करते समय इंद्रिय-उपभोग की लालसा भी हमारे ध्‍यान में नहीं आएगी। एकदम ही न आए, यह तो मैं नहीं कह सकता, परंतु यदि सात्विक वृत्ति विशेष है तो वह राजस और तामस का नाश करने में निश्‍चयतः सफल होगी।

इस सात्त्विक वृत्ति विशेष एकाग्र-चित्‍त में ही संप्रज्ञात योग होता है। संप्रज्ञात (consciousness) हमारे में जागृत रहती ही है। हमें यह ध्‍यान रहता ही है कि इस समय हम इस विषय-विशेष का मनन कर रहे हैं।

इस तरह conscious state of mind से जो विषय का सीधा (direct) योग सात्त्विक रूप से होता है वह संप्रज्ञात योग हुआ।

 

30-10-41

कोल्‍हापुर, महाराष्‍

तीन दिन से रोज ही डायरी लिखने की बात सिर्फ सोचकर ही रह जाता था। आज चार रोज हुए यहाँ से 22 मील दूर ‘रुकड़ी’ स्‍टेशन पर आउटडोर शूटिंग के लिए गए थे। सबेरे साढ़े छह बजे ही यहाँ से मोटर पर निकल गए थे।

सूरज ताजा ही उगा था। सड़क और पहाड़ियाँ कुहरे से भरी हुईं। ठंडी मजेदार हवा और हमारी मोटर की तेज रफ्तार से उड़ती हुई – लाल धूल।

पहले एक पहाड़ी नाले के ऊपर बना हुआ छोटा-सा पुल मिला। पुल की ऊँचाई तक बढ़े हुए पेड़ों के सघन-कुंज। सड़क की ऊँचाई और नीचे घाटियों में कहीं कुदरती हरियाली, बसी हुई झोंपड़ियों के छप्‍परों से छनकर निकलता हुआ हल्‍का-हल्‍का धुआँ कुहासे के साथ ही मिलता हुआ। मोटर का हार्न बजा – दो बैलगाड़ियाँ खड़-खड़ करती खरामा-खरामा छोटी-सी सड़क को बड़ी जोरों में घेरे चली आ रही थीं। मोटर के हार्न ने उन्‍हें बतलाया, अभी स्‍वराज्‍य नहीं हुआ। हड़बड़ा कर ‘टिख-टिख हिलाः हिलाः’ की। बैलों की घंटियाँ बड़ी मस्‍ती के साथ मेरे कान के पास टुनटुना कर बैलों के गलों में झूमती-झूलती निकल गईं और गाड़ियों के निकलते ही हम कोल्‍हापुर के पास से होकर बहने वाली नदी ‘पंचगंगा’ के पुल पर थे। पंचगंगा को देखकर मुझे अपने यहाँ की गोमती की याद आई। ठिंगना आदमी अपने ही इतने कद वाले को पसंद करता है। दोनों किनारों पर हरियाली और पानी इतना शांत – मुझे लगा, नदी शायद अभी सोकर नहीं उठी – पंचगंगा नदी तो रियासत की ही है आखिरकार। बुझी हुई चौकोर कंदील को हाथ में लिए एक आदमी और उससे एकदम सट कर जरा उससे दो मुट्ठी आगे जाने वाली एक स्‍त्री को देखा – सड़क पर सामने कोहरा-नीचे पंचगंगा का एक कोना और हरियाली तथा पेड़ों पर छाया हुआ कोहरा। उस जोड़े की ‘सिलुएट’ पेंटिंग-सरीखी वह अदा दिल पर छाप मार कर अभी ही आँखों से ओझल हुई थी कि सड़क के बाईं तरफ दो पेड़ों का सहारा पाकर फलती हुई अमर बेल को देखा। दोनों पेड़ों पर बुरी तरह छाकर वह बीच में झूले की पटरी की तरह लटक रही थी। – उसके पीछे ही एक झोपड़ी और आगे एक बैलगाड़ी रखी हुई। उस वक्त बैल नहीं थे, झोपड़ी के आगे एक मुर्गा और एक मुर्गी पास-पास चुग रहे थे। मेरे दिमाग में ‘विलायती मुर्गे़ के लिए एक आया : ‘बुढ़िया हीरोइन एक नौजवान को लेकर इसी फिजा में मोटर पर खूब पीकर निकली है। यह पेड़ों का झूला, वह हरियाली और सन्‍नाटा देखकर वह फौरन ही मोटर रुकवाती है और नौजवान को उस कुदरती झूले के पीछे घसीट कर ले जाती है।’

रुकड़ी स्‍टेशन पर एक गूँगी बुढ़िया रेल के चले जाने के बाद कुछ ढूँढ़ रही थी। मैं समझ गया, किसी मुसाफिर ने कुछ दान फेंका है, वह उसी को खोज रही है। मेरी इच्‍छा थी कि अपना एक पैसा फेंककर उसे यह समझने दूँ कि यह वही पैसा है जिसे वह खोज रही थी। लेकिन उसने मुझे देख लिया और हाथ उठाकर सैकड़ों आशीर्वाद दिए और फिर ढूँढ़ने में लग गई। कुछ देर बाद उसे एक पाई मिली। बड़ी निराश हुई – उसने पाई मुझे दिखाकर अपने चेहरे पर ये भाव लिया कि इसके पीछे मुझे मेहनत बहुत ज्यादा करनी पड़ी और कीमत बहुत कम मिली। मैंने एक इकन्‍नी निकाल कर उसे दी। गरीब महाराष्‍ट्र प्रांत के बेहद मामूली स्‍टेशन रुकड़ी की उस गूँगी बूढ़ी भिखारिन को जान पड़ता है इकन्‍नी किसी ने कभी भी भीख में नहीं दी थी। उसे आश्‍चर्य और प्रसन्‍नता इस कदर हुई – अगर जबान होती तो वह न जाने क्‍या कहती। उसकी मुख-मुद्रा और हाव-भाव से ऐसा मालूम पड़ता था जैसे वह आज अपनी वाक् शक्ति को थोड़ी देर के लिए चाहती ही है। उस वक्त तो उसने जितने आशीर्वाद दिए तो दिए ही; बाद में भी जब-जब वह मुझे देखती, आशीष देती। वह कितना सच्‍चा आशीर्वाद था! – उससे मेरे रतन-मदन और बेबी, शरत-आशा का कितना भला होगा।

सुंदरबाई बड़ी ही सीधी-सादी औरत है। बुढ़िया मुझसे बड़ा प्रेम करती है। रतनबाई और वत्‍सलाबाई तो कुरसी पर बैठी हुई और वह खड़ी हुई। मुझसे देखा न गया। मैंने एक बिस्‍तर उठा कर उसके लिए रखना चाहा। जैसे ही बिस्‍तर उठाने उठा, विनायक राव यह समझकर कि मैं उस पर बैठूँगा, खुद बैठने के लिए झुके। मैंने फौरन ही उनसे कहा : आपसे ज्यादा बुढ़िया को उसकी जरूरत है।

 

हाय, कैसा क्‍लेश होता है मन को जब यह देखता हूँ कि अधिकारी होकर लोग मनुष्‍यता को भूल जाते हैं।

 

24-1-46

बहुत दिनों बाद ! कल मद्रास जा रहा हूँ। प्रतिभा साथ हैं। पंतजी का तार और रुपया पाकर उदयशंकर की पिक्‍चर का काम करने। आज अचला आगरा गई। जाते समय दुखी थी। पहली बार प्रतिभा से अलग हुई है।

खोसलाजी के पास पैसा डूब गया।

चिमनलाल देसाई ने 1200/ – रुपये कम दिए।

किशोर वीर कुणाल में अनायास मेरा credit हज्म कर गए।

Dolls’ house के set पर पहले दिन रतन cameraman हो रहा था; नोटिस पर नाम भी आ गया था; फिर उस दिन कुमार photograph करने लगे। रतन को बड़ा Shok लगा।

काम इस वर्ष मैंने बहुत किया। बंगाल पर मेरा उपन्‍यास भी पूरा हुआ।

अब के आर्थिक और मानसिक रूप से बराबर धक्‍के खाए। नियति !

मन असंतुष्‍ट रहा। अभी भी है। अहं का प्रकोप मुझ पर पूरा है। मैं हारता हूँ। मुझे बचना चाहिए। मन में उस अमर प्रेम और सेवा भाव को जगाना चाहता हूँ जिससे अहं की कमजोरियाँ और दुख जल जाएँ। मैं खुद कमजोर हूँ। भविष्‍य ईश्‍वराधीन है। मुझे कुछ नहीं सूझता है। अपने से बहुत दूर हूँ।

 

26-1-46 , स्‍वाधीनता दिवस*

कल, जब हम चले थे तब तक लूटपाट और गोलियाँ चल रही थीं। स्‍वाधीनता दिवस की आड़ लेकर आज भी बहुत कुछ होना स्‍वाभाविक है। हम दूर से देख सकते हैं, जोश कितने गलत तरीके से नष्‍ट हो रहा है। उस भीड़ में मैं यदि होता तो क्‍या मुझ पर कुछ असर न पड़ता? क्‍या मैं अभी भी दिमाग का कच्‍चा हूँ? …किसी हद तक… यह मानना ही पड़ेगा।

 

मद्रास ठीक समय पर आ पहुँचे। रास्‍ते में दो गुजराती श्री शांतिलाल माणेकजी और श्री जयंती भाई चौकसी तथा एक सीलोन प्रवासी व्‍यापारी बोहरी (बोहरा) मुसलमान भाई थे। शांतिलाल किसी रईस के बेटे, किसी हद तक प्रतिभावान और मस्‍त तथा अहंवादी भी हैं। गुरुकुल कांगड़ी में पढ़े हैं। साथ के फर्स्‍ट क्‍लास में बैठे थे। जयंती भाई के बाल मित्र, अतः बीच-बीच में आते थे। जयंती भाई ने अपनी भुजा का कमाया है। स्‍वभाव में सीधापन खूब है, अपनी ही बातें किंतु बड़े अच्‍छे ढंग से। मुसलमान बेहद शरीफ, गंभीर और अनेक तरह से अपने उसूलों के पक्‍के लगे। साथ बहुत भाया। मुसलमान भाई ने सीलोन आने का निमंत्रण दिया है।

स्‍टेशन पर आल्‍तेकरजी थे। मिले। पंतजी से घर आकर भेंट हुई। पंतजी आज सवेरे हिंदी प्रचार सभा महोत्‍सव में गए थे। कविता पाठ आदि हुआ। उन्‍हें आज हरारत हो गई है। उन्‍हें देखकर हम दोनों प्रसन्‍न हुए। मामा वरेरकर भी यही हैं। अच्‍छे लगे।

नई जगह में हमारी और प्रतिभा की पहली शाम है। अचला भी इस बार साथ नहीं-वह अपने भाइयों के साथ इस समय आगरा में हँस-खेल रही होगी।

चौदह वर्ष के विवाहित जीवन में पहली बार हम दोनों ने एक साथ इतनी लंबी यात्रा की है। नया-सा लग रहा है। एक ताजगी महसूस कर रहे हैं। एक कमरा मिल गया है – बाथरूम मिला हुआ है। बाग सामने है। हम लोग मजे में हैं।

* 15 अगस्त 1947 के पूर्व 26 जनवरी को ही स्वाधीनता दिवस के रूप में अभिहित किया जाता था।

 

28-01-46

पंतजी के साथ कल से समय अच्‍छा बीत रहा है। पंतजी से कल श्री अरविंद का जीवन-चरित्र लाया। पढ़ रहा हूँ। श्री अरविंद पर श्रद्धा उत्‍पन्‍न हुई। य‍द्यपि मैं अनुभव करता हूँ कि मेरा अहं बड़ा ही विकट है। और भी कहूँ बड़ा हीन है, क्‍योंकि वह अपने आगे किसी को कुछ समझता ही नहीं। उसकी स्‍पर्द्धा तो बड़े-बड़ों से बढ़ी है – असलियत दो कौड़ी की भी नहीं। लेकिन एक बात है – मैंने अब यह तय कर लिया है कि उसे कुचलने का, तथा उस पर जोरो-जब्र करने का प्रयत्‍न नहीं करूँगा। ज्यादा कुचलने से वह ज्यादा जिद्दी हो गया है। मैं अपने काम में लगा रहूँगा। आप ही रास्‍ता न पाकर वह ठीक हो जाएगा। पंतजी ने भी यही सलाह दी। पूना में श्रीमान अप्‍पा साहब (धु.गो.) विनोद ने भी यही सलाह दी। श्री अरविंद भी अपरोक्ष रूप से यही सलाह देते हैं। मैं भी इसे ही भला विचार समझता हूँ।

 

श्री अरविंद की स्‍पमि divine और Essays on Gita के लिए आज आर्डर भेज दिया है। Life divine मुझे बहुत कुछ सिखाएगी।

उदयशंकरजी से कल शाम भेंट हुई। भले और प्रतिभाशाली हैं। आज जैमिनी स्‍टूडियो गए थे। बहुत बड़ा और सुव्‍यवस्थित स्‍टूडियो है। बंबई की संकुचित व्‍यावसायिकता ने वहाँ एक भी ऐसा अच्‍छा स्‍टूडियो नहीं बनने दिया।

आल्‍तेकर और मामा वरेरकरजी ने मामा का ‘सारस्‍वत’ नाटक अनुवाद करने के लिए कहा है। हो जाएगा।

तमिल सीखने के लिए शिक्षक की बात भी मैंने की है।

प्रतिभा बड़ी प्रसन्‍न हैं। मेरे साथ मद्रास आई हैं, मेरे साथ हैं, उन्‍हें इसका बड़ा संतोष है। ईश्‍वर ने ही उनके लिए यह सुयोग जुटाया है।

 

29-01-46

आज सवेरे श्रीमती शिराली और उनके बच्‍चे आ गए। दोनों बच्‍चे दिन भर रोते हैं। हर पाँच मिनट के बाद रोना शुरू होता है और पाँच मिनट तक चलता है। माँ की लापरवाही इसका कारण है। पंतजी को बहुत कष्‍ट होता होगा। मैं भी शांति नहीं पा रहा। हम कुछ पराए से हो गए हैं। अच्‍छा नहीं लगता। प्रतिभा की भी यही दशा है। आज उदयशंकरजी से बातें हुईं। वे कल प्रोग्राम बनाएँगे। काम जल्‍द खत्‍म हो जाए और हम यहाँ से चल दें।

आज सबेरे कागज लाया। उपन्‍यास fair करना शुरू किया है।

जप और ध्‍यान में चित्‍त एकाग्र नहीं होता। चित्‍त कैसे एकाग्र होता है? इस समस्‍या को सुलझाना ही होगा।

 

30-1-46

आज 25) भाड़े पर टैक्‍सी की। नगर घूमे। बापूजी की प्रार्थना में सम्मिलित हुए। जनता की अव्‍यवस्‍था से बापू को अपार कष्‍ट होता है। बापू महान हैं, उस कष्‍ट को तभी वह हलाहल की भाँति पीकर पचा जाते हैं। बापू को शत-शत प्रणाम। मद्रास भी अच्‍छा है। कौन शहर बुरा है? भारतीय संस्‍कृति की छाप सब जगह न्‍यूनाधिक एक-सी ही पाई।

 

1-2-46

कल ‘लैला मजनू’ देखा। पंतजी को उपन्‍यास का पहला परिच्‍छेद सुनाया। उन्‍होंने पसंद किया – एक चैप्‍टर सुनकर आगे के संबंध में उनकी उत्‍सुकता स्‍वाभाविक थी। आज दूसरा और तीसरा चैप्‍टर सुना। उत्‍सुकता और बढ़ी। ‘अगर’ अभी भी लगा है – ‘अगर इसी तरह चला है तो बहुत अच्‍छा होगा।’ पंतजी को भी उपन्‍यास पसंद आ रहा है। भविष्‍य के लिए कितनी जिम्‍मेदारी बढ़ गई है। और मैं इधर कुंद हो चला हूँ। लेकिन इतना तो ऊपरी सतह के विचारों से दिखाई पड़ रहा है – कहीं गहरे में जाना है। क्‍या मैं गहरे पैठने से डरता हूँ? खो क्‍यों गया हूँ? कारण क्‍या है? कमलवत क्‍यों नहीं बन रहा? आसक्ति क्‍यों है? लड़ क्‍यों नहीं पाता? इस ऊपरी सतह के जीवन में रस भी तो अब नहीं मिलता। जीवन में नया परिवर्तन, नई प्रगति कब आने वाली है? क्‍या मेरा जीवन यह सिद्ध नहीं करता कि मैं बहुत ही मामूली, बहुत ही शक्तिहीन और बहुत ही अयोग्‍य हूँ। किसी अज्ञात शक्ति का हथियार हूँ। कठपुतली के तमाशे में बाजीगर का हाथ का खिलौना? ऐसे तो सभी हैं? फिर मैं श्रेय क्‍यों लूँ? मैं अभिमान क्‍यों करूँ? समबुद्धि क्‍यों न धारण करूँ? लेकिन यह सब प्रश्‍न हैं-इनका उत्‍तर? इनका हल?-प्रश्‍न-मैं भाग रहा हूँ-बचना चाहता हूँ। लेकिन नरेंद्र द्वारा बाइबिल की कहावत Hound of Heaven is after you… you… man! आने दो। मुझे तैयार होने दो। प्रभु ! ले चलो ! चिंता न करो ! मुझे कितने झकोले लगेंगे। मैं यात्रा करना ही चाहता हूँ। लौकिक शांति मत दो। मैं माँगू तब भी नहीं। मेरी वास्‍तविक शांति अलौकिक शांति, मुझे दो। मुझे बचाओ ! मुझे बचाओ ! अहं का राक्षस मुझे मुट्ठी में भींच रहा है। बनते-बनते मैं आप ही बन गया हूँ। इस बनने से मुझे बचाओ नाथ !

 

3-2-46

”सेवा शारीरिक-मानसिक दोनों रूप से करनी चाहिए।” – मैं इसी मंत्र में अपने ध्‍यान को एकाग्र करूँगा। मुझे गांधीजी के इस मंत्र में आज पहली बार प्रकाश दिखाई पड़ रहा है।

 

कल से पंतजी के पैरों में मालिश कर रहा हूँ। पंतजी को बहुत आराम मिल रहा है। उनके आराम से मुझे आराम मिल रहा है। तब दरअसल आराम किसे मिल रहा है? -मुझे। पंतजी कहेंगे : ‘मुझे।’ दोनों तरफ से कह लो, सुख मुझे ही मिला। इस विचार को मैं अनेक रूपों में अब तक सोच तो चुका था। दिमाग की ऊपरी सतह में fix भी समझ लो। मगर मौके पर दिमाग से slip भी हो जाता था। अंतर्चेतन में तो ‘मैं’ fix है। मेरा चेतन अब प्रायः चेतन में dubbed हो चला है – बल्कि यों समझूँ कि उसके ऊपर छा गया है। इसलिए ऊपरी विचार ढँक जाते हैं। उन्‍हें अंतर्चेतन की पर्त में जमा लेना चाहिए। शायद जम भी जाएँगे – जम रहे भी हैं। लेकिन इस समय प्रयत्‍न भी आवश्‍यक है ! प्रयत्‍न सेवा द्वारा ही होगा। आत्‍म-सेवा से ही यह संभव है। आत्‍मसेवा को fix कर लूँ । कर लूँगा।

मैं कारण तो नहीं दे सकता, परंतु एक अनुभव अवश्‍य कर रहा हूँ। आज का अंतर्चेतन दरअसल चेतन कस ही (b) भाग है। अंतर्चेतन जिसे कहना चाहिए वह उससे परे है। वह बुद्धि पर संस्‍कारी प्रभाव है। इन संस्‍कारों को भी खोजना पड़ेगा।

 

श्री अरविंद आश्रम, पांडिचेरी

 

21 फरवरी 1946

आज माँ का जन्‍मदिन है। श्री अरविंद के दर्शन होंगे। परसों हम लोग यहाँ आए थे। परसों शाम माँ के दर्शन हुए। परसों दिन में ग्‍यारह बजे पहली बार माँ के दर्शन हुए थे। परसों शाम एक-एक फूल लेकर हम लोग माँ के दर्शन करने गए। चरण-स्‍पर्श, फूल प्रदान किया, माँ ने सिर पर हाथ फेरा, श्री नेत्रों से अपार करुणा बरसा दी, एक फूल प्रदान किया।

कल सुबह साढ़े छह बजे दर्शन करना चूक गए। देर से उठे थे। कल दिन में दर्शन हुए। ध्‍यान के बाद फिर माँ के दर्शन को गए – माँ की ओर से माँ के श्रीकर से आशीर्वाद के रूप में गुलाब का फूल और नेत्रों से अपार करुणा मिली।

आज सवेरे साढ़े छह बजे माँ के दर्शन हुए – दूसरी बार अकस्‍मात फिर सौभाग्‍य से माँ के दर्शन करने को मिल गए। इन दर्शनों के पीछे मेरी मानसिक अवस्‍था भी देखने लायक है। मन गिरा हुआ था, अनेक तरह से विकृति आ गई थी।

 

प्रतिभा यहाँ आकर जमी हैं। उनका मन उत्‍साह से भरा है। उनके हठ का एक विकास हो रहा है, अच्‍छा है। प्रभु उन पर कृपा करें। माता उनकी सहायक हैं। सब भाग्‍यवान हैं।

माँ का प्रथम दर्शन बड़ी अनास्‍था-आस्‍था से भरा हुआ था। मेरी कमजोरियाँ, प्रार्थनाएँ और भक्ति की भावना को उत्‍पन्‍न करके श्रीमाँ उस भाव को देखना चाहती थीं। मेरी कायरता आमना-सामना होने पर क्षमा की गिड़गिड़ाहट से भर उठी थी। मेरा अहं कायरता से क्रुद्ध सशंक और विरोधी था। मैं दब रहा था।

उस दिन शाम को समुद्र तट पर विशेष रूप से लड़ना और प्रार्थना चलती रही। माँ के चरण-स्‍पर्श का भाग्‍यलाभ पहले दिन आने वालों को होता है। श्री नलिनीकांत गुप्‍त से permission लेनी थी। उनके कमरे के दरवाजे पर खड़ा-खड़ा उनकी प्रतीक्षा नरेंद्र के साथ कर रहा था। प्रार्थना और लड़ाई, क्षोभ जारी था – तभी अचानक एक वाक्‍य ध्‍यान में पैठा : ‘जो पाना होगा पाओगे।’ मैं चुप हो गया। ठीक है, पर मन तो पाजी है न !

माँ के दर्शन करने चला। हाथ में फूल था। माँ के श्रीचरणों में मस्‍तक रखा, फूल दिया। फूल पाया। उनके नेत्रों से बरसने वाली करुणा का क्‍या वर्णन करूँ?

कल भी दर्शन में करुणा बरस रही थी। आज के मनोभाव दर्शन के उपरांत लिखूँगा।

आज माँ का जन्‍मदिन है। ऐसी करुणामयी माँ के लिए क्‍या प्रार्थना करूँ? किससे करूँ? वह तो सदा रहेगी ही। वह तो सदा रही है – सदा-सर्वदा है। माँ ! करुणामयी ! तेरी जय हो।

 

दर्शनोपरांत, 21 फरवरी

सवेरे श्री अरविंद कृत ‘माता’ पढ़ने लगा। मन की हलचल मिट गई। मन जम गया। दर्शन के पहले इस प्रकार मन का जम जाना अच्‍छा हुआ।

दर्शन ! श्री अरविंद की उस छवि का वर्णन कौन कर सकता है? दुनिया में तो ऐसा तेजस्‍वी रूप दीखता नहीं। गांधी दूसरे हैं। श्री अरविंद के दर्शन करते ही मुझे शिव प्रतीत हुए। माता भी विराजमान थीं। अपनी करुणा बरसाती हुई ! दर्शन में माता की ओर मेरा ध्‍यान कम गया – जाना नहीं चाहता था। माता के दर्शन तो दुबारा जब सवेरे हुए थे उस समय का वर्णन नहीं किया जा सकता, माँ की मुस्‍कान से इतनी करुणा बरसी कि वे स्‍वयं भी उसी में डुबकी लगा गईं। उस दृश्‍य को अंतःकरण से आँखें अभी भी देख रही हैं और गहरा अनुभव हो रहा है – परंतु शब्‍द कहाँ हैं जो वह दृश्‍य वर्णन किया जा सके !

 

इस यात्रा में श्री सुमित्रानंदन पंत, श्री नरेंद्र शर्मा, श्री सुंदरी भवनानी, प्रतिभा और मेरे साथ सैकड़ों यात्रियों-दर्शनार्थियों ने दर्शन किए। संख्‍या हजार से ऊपर ही होगी।

 

4-3-46

सवेरे तमिल शिक्षक आए थे। आँख खुलते ही माता सरस्‍वती की आराधना में लग गया। नरेंद्र और रतन के पत्र मिले। पांडिचेरी से The Life Divine के दो सैट आ गए। एक नरेंद्र के लिए है। दिन में थोड़ी-सी मार्केटिंग की। प्रतिभा के साथ समय बिताया। पत्र लिखे। तमिल भाषा का अध्‍ययन। अभी स्‍वर सीखे हैं – उन्‍हें लिखता रहा। शाम को जप, गीता पाठ। रात को पंतजी की सेवा। अब यह डायरी – फिर सोना। कल से पाँच बजे उठना है। – आज पंतजी ने प्रतिभा का हाथ देखा। अच्‍छा है – 33 वर्ष की आयु के बाद उनके जीवन में परिवर्तन आएगा।

5-3-46

दिन भर क्‍या किया? तमिल पढ़ी ! लिखी। सोया। वक्त खोया। दोनों वक्त खाना खाया। एक सिगरेट पी। पंतजी की सेवा की। जप। ध्‍यान-ध्‍यान कुछ अच्‍छा जमा। अब सो रहा हूँ। उपन्‍यास fair करना है। जरूरी काम है। समय का अच्‍छा उपयोग करना है। कल से नियम बाँधूँगा।

‘ सीता’

मद्रास, 28-3-46

आज डायरी लिखने की इच्‍छा हो आई। क्‍यों? नरोत्‍तम को पत्र लिखते-लिखते अपने विचारों की थाह लगी। अपने अंदर की नई जरूरत को नए सिरे से आज फिर महसूस किया। हर रोज भूलकर पुरानी बात को नए सिरे से अनुभव करना क्‍या है? अगति। यह अगति क्‍यों है? मेरी लापरवाही के कारण। लापरवाही क्‍यों है? एकाग्रता की कमी के कारण। एकाग्रता की कमी क्‍यों है? अपने प्रति sincere न होने के कारण। sincere क्‍यों नहीं हूँ? आदमी तो अपने प्रति sincere होने की इच्‍छा रखता ही है। – हाँ, मगर वह इच्‍छा मात्र ही रखता है। इच्‍छा (कर्म) शरीर न पाकर भूत है – इसीलिए वह अशांत है। शांति तन और मन की होनी ही चाहिए। आखिर को शांति ही तो चाहता हूँ न ! फिर उसे अपनाने का प्रयत्‍न क्‍यों नहीं? आलस्‍य आड है। लेकिन यह शत्रु तो उतना बलवान नहीं, जितना वास्‍तव में दिखता है। नियम, संयम। और उसके द्वारा विराट के प्रति समर्पण। करूँगा ही होगा। करूँगा ही । फिर भागता क्‍यो हूँ?

 

श्री अरविंद आश्रम

दर्शन दिवस 24-4-46

कज सबेरे पंतजी, नरेंद्र, प्रतिभा और मैं फिर यहाँ आ गए। इस बार यहाँ आने पर हम सब बड़े प्रसन्‍न हुए। वातावरण से परिचय था, इसलिए फिर देखकर नेह हुआ। कल शाम ध्‍यान में मन बहुत अच्‍छा था – हलकापन आनंद की छाया दे रहा था। श्री माँ के आने पर ध्‍यान अच्‍छा न जमा। कपाट जैसे बंद हो गए। लडा, पर असर न हुआ। विकृतियाँ और बढ़ीं। श्री माँ के दर्शन करने गए। मन ने कैसे कुछ गया हूँ। अधिक नहीं पाया। …एक यह एक impression है। मैं सो तो नहीं रहा, पर खो जरूर भटकने का दायरा भी लंबा नहीं। कोल्‍हू का चक्कर है – पर लगता है बहुत बडे घेरे में। अहं insolved ही रहा -उसकी विकृतियाँ जबर्दस्‍ती पकड़कर बैठी है। कभी हिल जाती हैं, परंतु जड़ तो गहरी जमी हुई हैं ही। बहुत दूर से अनुभव करता हूँ तबीयत के खिलाफ यह बुरापन कहीं बहुत गहरे में टीसें उठा रहा है। उनकी बाह्य चेतना दर्द के रूप में नहीं आती। आप ही अच्‍छा, आप ही बुरा। बुरा अच्‍छा नहीं बना तो शर्म करते-करते बेशर्म बन रहा है। लापरवाही की आड़ है। अच्‍छा हारा हुआ उपदेशक है। वह उपदेशक मात्र ही – है कर्मठ, विचारक, कर्मठ, सत्‍यानुरागी जो साल-सवा-साल पहले एक बार झलक था-वह अब कहीं नहीं दीखता। प्रभु मेरी रक्षा करो –

ट्रेन – मद्रास-बंबई

12-7-46

आज हम लोग बंबई जा रहे हैं। काम खत्‍म हो गया। फिल्‍म में फिलहाल सारे काम खत्‍म हो गए। यू.पी. जाना है। बच्‍चों के पास भी अधिक रहने का निश्‍चय है। दूसरा उपन्‍यास आरंभ करना है। ‘बूँद और समुद्र’ की छपाई आदि के विषय में देखना है। मद्रास में जो कैद-सी महसूस कर रहा था वह खुलती हुई नजर आती है। लेकिन इस आजादी का सदुपयोग होगा क्‍या? मैं अपने लिए पहेली तो नहीं, मगर मजाक जरूर बन गया हूँ। मैं अपने-आप को अब खलता हूँ। मेरा बड़प्‍पन अब तो मुझे खुद ही दबाए दे रहा है। बेवकूफियों के झकोले मेंरे लिए शर्म हैं। मगर हैं तो ! हारा नहीं, मगर थक गया हूँ। – नए दायरे में लाओ, जहाँ स्‍थायी शुद्धता हो, शांति हो, आनंद हो, कर्म हो, गति हो ! अब आँख मिचौली का समय नहीं !

बंबई-आगरा

23-7-46

आज हम लोग आगरा जा रहे हैं। मुझे यू.पी. से आए – लगभग डेढ़ साल हो गया। प्रतिभा भी सवा साल से इधर ही हैं। चि. मदन और चि. दिलीप हमारे साथ हैं। दोनों लखनऊ जा रहे हैं। झाँसी तक साथ रहेगा। जमीन चि. रतन ने खरीद ली है। मकान बनवाने की इच्‍छा ईश्‍वर के आधीन है। माते प्रसन्‍न रहीं। सौ. साधना बुखार से परेशान रहीं। अब ठीक है।

बच्‍चों से मिलेंगे। फिर अगस्त में प्रयाग जाना है। बूँद और समुद्र की छपाई, सुना हो रही है। सितंबर में तमिल मीरा की Dubbing के सिलसिले में यहाँ आना पड़ेगा। पंतजी बीमार हैं। नरेंद्र की सगाई पक्‍की हो गई, उनकी भावी पत्‍नी को देखा। सुशील हैं – बातूनी तो हैं ही। मेरा विश्‍वास है, नरेंद्र का जीवन इनके साथ सुखी होगा। बंबईपन ज्यादा है। नरेंद्र के जीवन में साहित्‍य अब जरा दूर की और शौक की चीज है। मेरा विश्‍वास है, उनका जीवन फिर सही राह पर आएगा। भगवती बाबू शायद आर्थिक रूप से बेहद चिंतित हैं। उनके मानसिक संघर्ष में हार और खीझ है। फिल्‍म में युग का संधिकाल स्‍पष्‍ट दृष्टिगोचर हुआ। नई चेतना का रूप विकसित होने से पहले झकोले आएँगे। जमाना हड़तालों का है। यह उभरी हुई प्‍यास न बुझने वाली सी दीखती है। प्रश्‍न केवल इस देश का ही नहीं, मानवता का है। इस देश में विशेष रूप से युग और मानवता के विश्‍वास का चित्र उभर कर आता है। पुराना सब मिट्टी – नया सब सोना – हिंदोस्‍तान का संघर्ष यदि बाँध कर सही राह पर न लगाया गया तो दुनिया का भविष्‍य एक भावी उलझन देखेगा -तीसरे महायुद्ध के बाद भी।

दूसरे उपन्‍यास की रूपरेखा बनाने में लग गया हूँ। अभी बहुत कुछ इकट्ठा करना है। खास तौर पर बूढ़े और अधेड़ वर्ग से उनके बचपन की कहानियाँ लेनी हैं। दो गोलार्द्धों में विकास पाई हुई सभ्‍यता और संस्‍कृति और ज्ञान के सहारे आज मनुष्‍य कहाँ है? यह भी देखना है।

17 अगस्‍त 46

लखनऊ

जिदंगी के तीस साल गुजर गए। आज इकतीसवें साल की गिरह बँधी। मेरा खोयापन मेरे साथ है। चेतना दूर से सत्‍य का परिचय करा रही है।

इलाहाबाद, बनारस घूम आया। स‍ब जगह, सब लोग लेकिन इनमें ही कहीं जीवन की झलक भी देख आता हूँ। अपने को देख रहा हूँ। हारा नहीं, घिसट-घिसट कर चल रहा हूँ।

 

2 अक्‍टूबर 46

आठ रोज से आगरा हिंदू-मुस्लिम दंगे के नाम पर गुंडों का शिकार है। मुहल्‍लों में पहरेबाजी और सनसनी 2 सितंबर से ही शुरू हो गई थी – जिस दिन दिल्‍ली में कांग्रेस की अस्थायी सरकार आई। आग, शोर, लूटपाट, लाठी, छुरे और बंदूकें हिंदू और मुसलमान के नाम पर बेकसूरों को मौत की सजा देती रहीं। कर्फ्यू लगा हुआ है। तीन रोज से दिन में खुल जाता है। बात रामलीला के वनवास के जुलूस से शुरू हुई। माल एक बाजार से जुलूस गुजर रहा था और ऊपर से ईंटें और गोलियाँ बरसाई गईं। उसके बाद से मनुष्‍य की घृणा और खून की प्‍यास बेतहाशा बढ़ गई। आदमी को आदमी पर भरोसा उठ गया है। दिमागी उलझन डर के शिकंजे के साथ जुड़ी हुई हर व्‍यक्ति को हार, खिझलाहट और निराशा भरे पागलपन में फेंक रही थी। दंगे के जोर के दिनों में एक बात बड़ी मार्के की देखी – लोगों के दिमागों से राजनीतिक कब्जे छूट गए थे। कांग्रेस या लीग, जिन्‍ना और पटेल, जवाहर का नाम कोई भी नहीं लेता था, सिर्फ हिंदू-मुसलमान की ही बातें थीं। जो मुसलमान है वह लीगी हो, नेशनलिस्‍ट हो, या कोई भी हो, सिर्फ मुसलमान है। जो हिंदू है, वह भी सिर्फ हिंदू ही है। हाँ, रात के पहरों में हिंदू जैहिंद पुकारते थे और मुसलमान अल्‍लाहो अकबर। ‘जय हिंद’ का यह दुरुपयोग मेरे लिए बहुत ही तकलीफदेह रहा। ‘जयहिंद’ चालीस करोड़ की जय का सूचक है और मुसलमान उसी हिंद में शामिल हैं। ‘जयहिंद’ का ‘अल्‍लाहो अकबर’ के साथ बैठना हमारी दोनों ओर की खोई या बिखरी हुई राष्‍ट्रीयता का सूचक है। कांग्रेस की जीत में हिंदू अपना बड़ा हिस्‍सा देखते हैं। उनमें इस समय गुलामी का भाव जाकर आजादी की भावना जागी है। बीमार रोगी के लिए यह पथ्‍य कुपथ न हो जाए-बड़ा डर लगता है। तानाशाही रूहानी नुकसान पहुँचाएगी। ठाकुरशाही, इस देश में गिरे-से-गिरे रूप में ही सही, पर विद्यमान अवश्‍य है। उसके खंडहरों पर नई तानाशाही की इमारत बड़ी ही भयावह कल्‍पना को आश्रय देती है। रामलीला निकालने का जोम अब भी है। दो महीने बाद मुहर्रम पर बदला लेने का भी जोश है। इन्‍हें सही तरीके से समझाने वाला भी कोई नहीं। अराजकता में प्रतिक्रियाएँ तो सदा ही बड़ा महत्‍वपूर्ण भाग लिया करती हैं। इतिहास ने सदा यों ही अपना नया पृष्‍ठ उलटा है।

पर मैं उलझ जाता हूँ। विश्‍व के इतिहास में बुद्धि का विकास, सामाजिक चेतना और एकात्‍मता का ज्ञान पहले कभी भी इस ऊँचाई पर नहीं पहुँचा था, जहाँ आज है। फिर भी इतिहास अपने पुराने ढर्रे पर ही करवट ले, यह तो कुछ समझ में नहीं आता। मगर समझ को तस्‍वीर का दूसरा रुख भी देखना पड़ता है। प्रस्‍तर युग से एटम तक मानवी विकास की जर्रे जैसी छिपी हुई, नामालूम या लापरवाही से पीछे ढकेल दी गई कमजोरियाँ आज इकट्ठी होकर एक बड़ा ढेर और बड़ी शक्ति हो गई हैं। युग की समाप्ति के साथ जब तक यह नहीं जाएँगी – आगे का जमाना भी झूठी प्रगतिशीलता का ही जामा ओढ़कर आएगा। व्‍यक्तिगत स्‍वार्थ, व्‍यक्तिगत सत्ता की ससीमता अपनी सामाजिक असीमता को देखकर डर रही है। इस सत्‍य को, इस डर को वह संधि की गाँठ में बाँध कर समाज को अपने पुराने ढाँचे में नए मढ़े हुए कागज के साथ देखकर ही संतुष्‍ट हो जाना चाहता है। यह गलत है। समाज की व्‍याख्‍या, धार्मिक समाज, सांप्रदायिक समाज, अमीर समाज, गरीब समाज, राजनीतिक समाज के दायरे में नहीं की जा सकती – हरगिज नहीं। प्रांतीयता, राष्‍ट्रीयता और अंतर्राष्‍ट्रीय्ता की दीवारों में भी समाज नहीं बँध सकता। पुराने, सदियों के sentiments जो इन चीजों के अंतराफ हैं, उन्‍हें तोड़ना ही होगा। धीरे-धीरे उन्‍हें तोड़ना ही होगा। वे गलत है। धीरे धीरे उन्‍हें पर मनौविज्ञानिक की हैसियत से मैं फिसलनों का डर देखता हूँ। मनुष्‍य को एकदम absolute Truth तीव्र प्रहार की छाप छोड़े बिना न रहेंगे- उनकी प्रतिक्रियाएँ भविष्‍य में बिलकुल नहीं होंगी, यह दावा गलत होगा। उनसे बचने का एकमात्र उपाय है कि इस अराजकता को सत्‍य और न्‍याय की बुद्धि के जबर्दस्‍त प्रहार से खत्‍म कर देना चाहिए।

इस दंगे में मेरा व्‍यक्तिगत और जबर्दस्‍त हिस्‍सा भी है। जब से पहरे लगने लगे, जिस दिन से अंदेशा हुआ, मैं निहत्‍था घूमता था। रामविलास ने एक दिन इस पर कहा भी। मैं भी सोचता रहा कि क्‍या आत्‍मरक्षण करना हिंसा है। मैं एक मन से इसे हिंसा नही मानता था, पर अहिंसा का सिद्धांत मेरी भावुकता के साथ लिपटा था। जिस दिन दंगे कि शुरुआत हुई, गोकुलपुरे में भी एकाएक गुंडों के आ जाने और हमला करने का जबर्दस्‍त हल्‍ला मच गया। मैं नीचे बैठक में माझा प्रवास का अनुवाद कर रहा था। फौरन ही लट्ठ लेकर बाहर आ गया। ‘घटिया’ नीचे-से – आठ-दस काछी लट्ठ लेकर आ रहे थे। गुंडों के आने का वह एक रास्‍ता है। मैं समझा आ गए और मैंने लाठी तान दी। लाठी तानने वाला मैं अकेला ही था, बाकी सब मुहल्‍लेवाले भी लट्ठ लिए हुए अपने जोश में इधर-उधर बिखरे हुए थे। काछियों ने तुरंत हाथ उठाकर मुझे ‘स्‍वपक्ष’ का सबूत दिया। बात, अब सोचता हूँ, मजे की रही। मोहल्‍ले में भी मेरी इस ‘वीरता’ के चर्चें हो गए, पर मैं यह वीरता दिखाने का मौका नहीं चाहता। ईश्‍वर, जल्‍द से जल्‍द इस गुंडेबाजी का खातमा करो, लाखों का दिल दहलता है। मेरा दिल भी दहलता है। शांति ! शांति !! शांति !!!

अमृतलाल नागर

अमृतलाल नागर (17 अगस्त, 1916 - 23 फरवरी, 1990) हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। आपको भारत सरकार द्वारा 1981 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

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मेरे मन का ख़याल

कितना ख़याल रखा है मैंने अपनी देह का सजती-सँवरती हूँ कहीं मोटी न हो जाऊँ खाती

तब भी प्यार किया

मेरे बालों में रूसियाँ थीं तब भी उसने मुझे प्यार किया मेरी काँखों से आ रही

फूल झरे

फूल झरे जोगिन के द्वार हरी-हरी अँजुरी में भर-भर के प्रीत नई रात करे चाँद की

पाप

पाप करना पाप नहीं पाप की बात करना पाप है पाप करने वाले नहीं डरते पाप

तुमने छोड़ा शहर

तुम ने छोड़ा शहर धूप दुबली हुई पीलिया हो गया है अमलतास को बीच में जो